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क्या 2019 में सामान्य लोक सभा चुनाव संपन्न होंगे ? --- Alok Bajpai

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 Alok Bajpai
जो लोग यह समझ रहे है की 2019 में सामान्य लोक सभा चुनाव संपन्न होंगे और भारतीय जनता इस भाजपा सरकार से ऊबकर एक धमनिर्पेक्ष विकल्प चुन लेगी. वे ग़लतफ़हमी में है।
कुछ लोग समझ रहे कि 2004 का वाकया दुहराया जायेगा,वे भी भूल कर रहे।
मत भूलिए की केंद्र सरकार फासिस्ट संगठन और फ़ासिस्ट तरीको को मानने वाले लोगो के हाथ में है।उनका लोकतंत्र में यकीं ही नहीं।जायज नाजायज तरीके उनकी चेतना का हिस्सा ही नहीं।
यह सरकार साम्राज्यवादी शक्तियो और विश्व कारपोर्टे लॉबी के अनुरूप है।
इसे हराना आसां नहीं।बहुत अधिक तैयारी परिश्रम और त्याग की जरुरत होगी।मुझे शक है कि जो धर्मनिरपेक्ष दल मौजूद है उनमे कोई ऐसी दृढ़ता मौजूद हो।
यह निराशावाद नहीं है ।परिस्थितियों को समझने की कोशिश भर है।यु तो राजनीती में भविष्यवाणियां करना नादानी ही कही जायेगी।परंतु निश्चित ही इसका अंदाज तो किया ही जाना चाहिए।सब कुछ चयन पर निर्भर करता है कि भविष्य की दिशा क्या होगी।
जो लोग इस मुगालते में हो की मात्र मोदी सरकार की आर्थिक नाकामियो को रेखांकि कर उन्हें हराया जा सकेगा,चूक कर रहे है।
लिख दिया ताकि सनद रहे और वक्त जरुरत काम आये।

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  • Ramendra Jenwarबहुत सही आँकलन है...बहुत अच्‍छा लगा पढकर जैसे जो मेरी सोच मेँ भी है उसे आपके शब्‍दोँ मेँ पढ रहा हूँ । लडाई बहुआयामी है.....
    • Virendra Yadavयह संयोग ही है कि कुछ ऐसा विचार आज मेरे जेहन में भी आया था भोर के दुस्वप्न सरीखा .
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      आलोक  बाजपेयी जी बधाई के पात्र हैं जो उनके दृष्टिकोण को वीरेंद्र यादव जी ,वरिष्ठ साहित्यकार व रामेन्द्र जी जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञों का समर्थन मिल गया है। वैसे इन सब बातों को मैं तो एक लंबे अरसे से कहता व लिखता रहा तथा सबों की उपेक्षा का सामना करता रहा हूँ। दो ब्लाग पोस्ट्स के लिंक निमन्वत हैं :
      (विजय राजबली माथुर )

      Tuesday, May 27, 2014


      प्रियंका-राहुल को राजनीति में रहना है तो समझ लें उनके पिता व दादी के कृत्यों का प्रतिफल है नई सरकार का सत्तारोहण:

      "16 वीं लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता का श्रेय RSS को है जिसको राजनीति में मजबूती देने का श्रेय इंदिरा जी व राजीव जी को जाता है।" 

      http://krantiswar.blogspot.in/2014/05/blog-post_27.html 

      Sunday, September 25, 2011


      डा सुब्रह्मण्यम स्वामी चाहते क्या हैं? 

      http://krantiswar.blogspot.in/2011/09/blog-post_25.html 

      (मूल रूप से यह लेख 1990 मे लिखा था जो प्रेस के सांप्रदायिक प्रभाव में होने के कारण प्रकाशित   नहीं किया  गया था ,मुझे लगता है परिस्थितियों मे कोई बदलाव नहीं हुआ है अतः इसे ब्लाग पर दे रहा हूँ)
       इस पोस्ट के कुछ अंश प्रस्तुत हैं :( 'हस्तक्षेप'तथा 'भड़ास फार मीडिया'ने भी इस लेख को अपने यहाँ प्रकाशित किया था ) 
      *अब क्या करेंगे?:

      डा सुब्रह्मण्यम स्वामी हर तरह की संदेहास्पद गतिविधियां जारी रख कर 'लोकतान्त्रिक ढांचे की जड़ों को हिलाते रहेंगे'और संघ सिद्धांतों की सिंचाई द्वारा उसे अधिनायकशाही  की ओर ले जाने का अनुपम प्रयास करेंगे।

      07 नवंबर 1990 को वी पी सरकार के लोकसभा मे गिरते ही चंद्रशेखर ने तुरन्त आडवाणी को गले मिल कर बधाई दी थी और 10 नवंबर को खुद प्रधानमंत्री बन गए। चंद्रशेखर के प्रभाव से मुलायम सिंह यादव जो धर्म निरपेक्षता की लड़ाई के योद्धा बने हुये थे 06 दिसंबर 1990 को विश्व हिन्दू परिषद को सत्याग्रह केलिए बधाई और धन्यवाद देने लगे। राजीव गांधी को भी रिपोर्ट पेश करके मुलायम सिंह जी ने उत्तर-प्रदेश के वर्तमान दंगों से भाजपा,विहिप आदि को बरी कर दिया है।

      आगरा मे बजरंग दल कार्यकर्ता से 15 लीटर पेट्रोल और 80 लीटर तेजाब बरामद होने ,संघ कार्यकर्ताओं के यहाँ बम फैक्टरी पकड़े जाने और पुनः शाहगंज पुलिस द्वारा भाजपा प्रतिनिधियों से आग्नेयास्त्र बरामद होनेपर भी सरकार दंगों के लिए भाजपा को उत्तरदाई नहीं ठहरा पा रही है। छावनी विधायक की पत्नी खुल्लम-खुल्ला बलिया का होने का दंभ भरते हुये कह रही हैं प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उनके हैं और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। चंद्रास्वामी भी विहिप की तर्ज पर ही मंदिर निर्माण की बात कह रहे हैं।

      संघ की तानाशाही:

      डा सुब्रह्मण्यम स्वामी,चंद्रास्वामी और चंद्रशेखर जिस दिशा मे योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रहे हैं वह निकट भविष्य मे भारत मे संघ की तानाशाही स्थापित किए जाने का संकेत देते हैं। 'संघ विरोधी शक्तियाँ'अभी तक कागजी पुलाव ही पका रही हैं। शायद तानाशाही आने के बाद उनमे चेतना जाग्रत हो तब तक तो डा स्वामी अपना गुल खिलाते ही रहेंगे।
      **आज ब्लाग के माध्यम से इसे सार्वजनिक करने का उद्देश्य यह आगाह करना है कि 'संघ'अपनी योजना के अनुसार आज केवल एक दल भाजपा पर निर्भर नहीं है 30 वर्षों(पहली बार संघ समर्थन से इंदिरा जी की सरकार 1980 मे  बनने से)  मे उसने कांग्रेस मे भी अपनी लाबी सुदृढ़ कर ली है और दूसरे दलों मे भी । अभी -अभी अन्ना के माध्यम से एक रिहर्सल भी संसदीय लोकतन्त्र की चूलें हिलाने का सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया है।(हिंदुस्तान,लखनऊ ,25 सितंबर 2011 के पृष्ठ 13 पर प्रकाशित समाचार मे विशेज्ञ विद्व जनों द्वारा अन्ना के जन लोकपाल बिल को संविधान विरोधी बताया है। )   जिन्होने अन्ना के  राष्ट्रद्रोही आंदोलन की पोल खोली उन्हें गालियां दी गई  ब्लाग्स मे भी फेस बुक पर भी और विभिन्न मंचों से भी और जो उसके साथ रहे उन्हें सराहा गया है। यह स्थिति  देश की आजादी और इसके लोकतन्त्र के लिए खतरे की घंटी है। समस्त  भारत वासियों का कर्तव्य है कि विदेशी साजिश को समय रहते समझ कर परास्त करें अन्यथा अतीत की भांति उन्हें एक बार फिर रंजो-गम के साथ गाना पड़ेगा-'मरसिया है  एक का,नौहा  है सारी कौम का '। 

       

 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है। 
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फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी :
 

'संसदीय लोकतन्त्र'को बचाने के मजबूत प्रयास न हुये तो --------- विजय राजबली माथुर

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सोनिया जी के इस मार्च की तुलना इन्दिरा जी से :
जबकि BBC द्वारा सोनिया जी के इस मार्च की तुलना इन्दिरा जी की 1978 की घटना से करने का प्रयास किया गया है परंतु वस्तुतः यह ऐसा है नहीं। जब 2009 में मनमोहन जी दोबारा पी एम बनने के लिए अड़ गए तो उनको बनाया तो गया था लेकिन बीच में उनको राष्ट्रपति बनवा कर हटाने का प्रयत्न हुआ था जिसको प्रेस में ममता बनर्जी द्वारा लीक करने से वह प्रयास विफल हो गया था। तब हवाई जहाज़ में जापान से लौटते वक्त मनमोहन जी ने कह दिया था कि वह जहां हैं वहीं ठीक हैं बल्कि तीसरे कार्यकाल के लिए भी तैयार हैं। इस घटना से पूर्व ही 2011 में सोनिया जी के इलाज के वास्ते विदेश जाने पर मनमोहन जी ने RSS/हज़ारे/केजरीवाल/रामदेव के सहयोग से 'कारपोरेट भ्रष्टाचार संरक्षण'का आंदोलन खड़ा करवा दिया था जिसके परिणाम के रूप में मोदी सरकार सत्तारूढ़ है। पूर्व पी एम नरसिंघा राव जी ने अपने उपन्यास THE INSIDER के जरिये खुलासा कर दिया था कि 'हम स्वतन्त्रता के भ्रमजाल में जी रहे हैं'। मनमोहन जी उनके प्रिय शिष्य रहे हैं और वही उनको वित्तमंत्री के रूप में राजनीति में लाये थे। उस वक्त यू एस ए जाकर एल के आडवाणी साहब ने कहा था कि मनमोहन जी ने उनकी (भाजपा की ) नीतियाँ चुरा ली हैं। अब तो सीधे-सीधे भाजपा का ही शासन है। मनमोहन जी के जरिये भाजपा को सत्तारूढ़ कराने के बाद उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है इसलिए उनके विरुद्ध अदालती कारवाई हो रही है जिसमें राजनीतिक रूप से कुछ किया जाना संभव नहीं होगा। 'जैसी करनी वैसी भरनी'का दृष्टांत है यह परिघटना। सोनिया जी के कदम अंततः उनकी पार्टी को ही क्षति पहुंचाएंगे जैसा कि यू एस ए प्रवास के दौरान जस्टिस काटजू साहब के अभियान से संकेत मिलते हैं। काटजू साहब को 'मूल निवासी'आंदोलन व वामपंथी रुझान के दलित वर्ग से संबन्धित नेताओं व विद्वानों का भी समर्थन है जो एक प्रकार से 'गोडसेवाद'को ही समर्थन करना हुआ। भाजपा/RSS विरोधी गफलत में भटके हुये चल रहे हैं और देश दक्षिण-पंथी अर्द्ध-सैनिक तानाशाही की ओर बढ़ रहा है यदि अभी भी 'संसदीय लोकतन्त्र'को बचाने के मजबूत प्रयास न हुये तो दिल्ली की सड़कों पर निकट भविष्य में ही 'रक्त-रंजित'संघर्ष की संभावनाएं हकीकत में बदलते देर न लगेगी।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=847638945298083&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=1&theater 

13 मार्च 2015 के इस नोट को 'हस्तक्षेप'द्वारा भी स्थान दिया गया है:
http://www.hastakshep.com/ 



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जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने गांधी के इस जादू को समझने की जगह घटनाओं की बड़ी थोथी और स्थूल व्याख्या कर उन पर वे आरोप लगा दिए जो किसी ने नहीं लगाए थे. किसी ने उन्हें कभी ब्रिटिश एजेंट नहीं माना और न ही हिंदू-मुस्लिम समुदायों में दरार डालने वाला. काटजू अगर यहां तक सोच पाए तो इसलिए कि शायद उनकी सोच का दायरा यहीं तक जाता है. धार्मिकता और सांप्रदायिकता में फ़र्क होता है, यह बात वे समझ ही नहीं पाए. जो बहुत पढ़े-लिखे और बिल्कुल आधुनिक लोग थे – मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत ख़ान जैसे – वे अपनी राजनीति में निहायत सांप्रदायिक रहे और जो टोपी-दाढ़ी वाले मौलाना बंधु थे, वे धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी बने रहे.--------   
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/847603305301647?pnref=story 

 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

समाज मे स्थिरता व शांति कायम करने का डॉ सरोज मिश्रा जी का नुस्खा

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( ***ढोंग-पाखंड-अंधविश्वास के विरुद्ध आज से पाँच वर्ष पूर्व 02-06-2010 को इस ब्लाग का प्रारम्भ किया था और उसी दिशा में आज भी चल रहे हैं। डॉ सरोज मिश्रा जी की एक रचना जो 31 दिसंबर 2012 को शेयर की थी आज भी प्रासांगिक है उसी को इस अवसर पर पुनः प्राकाशित किया जा रहा है। 
---विजय राजबली माथुर ***)
  • 1300 वर्षों की गुलामी के दौरान रचे गए पुराणों की झाड-सफाई किए बगैर समाज मे स्थिरता व शांति कायम नहीं हो सकती। देखिये स्पष्ट बता रहे हैं डॉ सरोज मिश्रा जी---

    Mishra Saroj
    भारतीय मानस जिन्हे धर्म ग्रंथ कहता है .
    मूलतः वे ही अधर्म को तर्क देते हैं
    ,इन्ही ने हमारे मॅन मस्तिस्क मे
    स्त्री को भोग्या बना रखा है
    स्त्री की योनि मे पत्थर .पुरुष डालता है .
    स्त्री से सामूहिक व्यभिचार पुरुष करता है .
    .जो उसने इन्ही धर्म ग्रंथो की क्षेपक कथाओं से सीखा है
    मानुष के आचरण की सभ्यता को धर्म
    किसी धर्म ग्रंथ ने नही कहा .
    ढोंग पाखंड को धर्म कहता है .,
    इन्ही धर्म ग्रंथो मे लंपट इंद्र
    स्त्री के का शील भंग करता है
    .इन्ही ने दुर्योधन की जाँघ पैर ड्रॉपड़ी को बैठाया गया
    पाँच पाँच पतियों की भोग्या बनाया
    इन्ही मे कुंती बिन ब्याही मा बनी ...
    इसी लिए कहता हूँ की सावधान
    यही ताकतें जो धर्म के नाम पर राजनीति करती हैं
    वही स्त्री का शील हरण करती हैं
    उन्हे मंदिरों मे गणिका बनाती हैं
    उठो जागो .स्त्री को मुक्त करो
    झूठे धार्मिक जकड़न से
    लेने दो सांस उन्मुक्त ..............
    जीने दो मनुष्य की तरह ..
    वह तुम्हे जन्म देती है .
    वह मा है .
    वह प्रकृति है .पुरुष !!!!!!!!!!!!!!!
    विनिष्ट मत करो

    *****      *****           *****.
    Adarsh Bhalla :वह तुम्हे जन्म देती है .
    वह मा है .
    वह प्रकृति है .पुरुष !!!!!!!!!!!!!!!
    विनिष्ट मत करो
  • Avdhesh Nigamइसी तरह जब तक आस्थाओं पर हथौड़े नहीं बरसेंगे कुछ होने वाला नहीं है इन धार्मिक ग्रंथों ने ही सारा कूड़ा पुरुष के दिमाग में भरा है |
  • Avdhesh Nigamइसी तरह जब तक प्रचलित मान्यताओं और आस्थाओं पर हथौड़े नहीं बरसेंगे कुछ होने वाला नहीं है | इन धार्मिक ग्रंथों ने ही सारा कूड़ा पुरुष के दिमाग में भरा है और उसके दिमाग को विकृत कर दिया है |
  • Vijai RajBali Mathurनिगम साहब यही तो दुख और अफसोस है कि ढोंग-पाखंड-आडंबर के पुलिंदों को तो धर्म कह कर अनावश्यक महत्व दिया जाता है और वास्तविक धर्म=सद्गुणों को अफीम कह कर ठुकरा दिया जाता है। अपने 'क्रांतिस्वर'के माध्यम से व्यक्तिगत तौर पर मैं यही संघर्ष चला रहा हूँ।
  • Avdhesh NigamVijai RajBali Mathur"क्रन्तिस्वर "कोई पत्रिका है या कोई संस्था ,फिलहाल मैं इससे जुड़ना चाहूँगा |
  • Vijai RajBali MathurAvdhesh Nigamhttp://krantiswar.blogspot.in/यह मेरा मुख्य ब्लाग है इस पर दूसरे मेरे ब्लाग्स के रेफरेंस भी मिल जाएँगे। आपके जुडने का स्वागत है।
    राजनीतिक,धार्मिक,ज्योतिष,सामाजिक ।
    krantiswar.blogspot.com





  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

82 वर्ष के जवान मुद्रा राक्षस जी से क्रांति -नेतृत्व का आह्वान --- विजय राजबली माथुर

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** वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा  के प्रोफेसर  नीरज सिंह जी के विचार :

आज दिनांक 21 जून को लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीय मुद्रा राक्षस जी ने 82 वें वर्ष में प्रवेश किया है किन्तु उनके प्रशंसकों ने कल ही राय उमानाथ  बली प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में 'मुद्रा जी अपनों के बीच'कार्यक्रम आयोजित करके मुद्राजी को जन्मदिन की पूर्व संध्या पर  सम्मानित किया।  लखनऊ के साहित्यकार और साहित्य प्रशंसक तो उपस्थित थे ही। आरा (बिहार ) से  वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर नीरज सिंह व इलाहाबाद से राजर्षी पुरुषोत्तम दास टंडन विषविद्यालय के पत्राचार व फिल्म विभाग के पूर्व निदेशक प्रोफेसर सतीश चित्रवंशी भी विशेष रूप से समारोह में भाग लेने आए थे। 

प्रो . नीरज सिंह जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि उनके पास जब कौशल किशोर जी का फोन इस समारोह के संबंध में आया तो वह खुद के शामिल होने का लोभ संवरण न कर सके तथा मुद्रा जी से आशीर्वाद लेने के लिए आरा से लखनऊ आ गए।  उनका कहना था  उनके  आरा में तो  82 वर्ष से जवानी शुरू होती है। इस संदर्भ में 1857 के वीर स्वतन्त्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह जी का उल्लेख करते हुये उन्होने उस ऐतिहासिक प्रसंग पर प्रकाश डाला जिसमें 82 वर्ष के कुँवर सिंह जी अवध की बेगम हज़रत महल का सहयोग करने हेतु आरा से आए थे। आजमगढ़ को फतह कर वह वापिस आरा लौटे थे। 

प्रो . नीरज सिंह जी ने कहा कि आज फिर से 1857 सरीखी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं। साम्राज्यवादी शोषण व उत्पीड़न चरम पर है जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। ऐसे समय में मुद्रा राक्षस जी ही बाबू कुँवर सिंह जी की भांति संघर्ष को नई धार दे सकते हैं। हम सबको उनके नेतृत्व में एक नई क्रांति के लिए तैयार होना है। 

सुभाष राय जी व कौशल किशोर जी की विशेष भूमिका इस समारोह के आयोजन में थी। सुभाष रायजी ने स्वम्य समारोह में उपस्थित होकर स्वतः ही रिपोर्टिंग तक की जिसका विस्तृत वर्णन उन्होने अपने समाचार-पत्र 'जन संदेश टाईम्स 'के प्रथम पृष्ठ पर दिया है। (स्कैन कापी नीचे दी जा रही है जिसे डबल क्लिक करके आसानी से पढ़ा जा सकता है ):





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  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

एमर्जेंसी 26 जून 1975 की --- विजय राजबली माथुर

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इस वर्ष 1975 में लगी एमर्जेंसी को 40 वर्ष हो गए हैं और काफी दिनों से लोग इस पर बहुत कुछ लिखते रहे हैं। 1971 के मध्यावधी चुनाव को बांग्ला देश निर्माण की पृष्ठ भूमि में इंदिरा कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत से जीत तो लिया था किन्तु रायबरेली में उनके प्रतिद्वंदी रहे चौगटा मोर्चा के राजनारायण सिंह ने मोरारजी देसाई के समर्थन से उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में उनके चुनाव को रद्द करने के लिए एक याचिका दायर कर दी थी।मेरे कार्यस्थल के एक साथी मेरठ कालेज , मेरठ से ला कर रहे थे उनके शिक्षक सिन्हा साहब के एक रिश्तेदार जगमोहन लाल सिन्हा साहब उस याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। उन शिक्षक महोदय ने अपने छात्रों से कह दिया था कि निर्णय इन्दिरा जी के विरुद्ध भी जा सकता है। उन्होने उदाहरण स्वरूप चौधरी चरण सिंह संबंधी घटना का वर्णन किया था जिसमें उनके किसी चहेते का केस जस्टिस सिन्हा के पास मेरठ में चल रहा था और वह निर्णय उसके पक्ष में चाहते थे। मुख्यमंत्री रहते हुये चरण सिंह उनसे मिलने उनकी कोठी पर जब पहुंचे तो जस्टिस सिन्हा साहब ने अर्दली से पुछवाया कि चौधरी चरण सिंह मिलना चाहते हैं या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जिसके जवाब में चौधरी साहब ने कहलवाया था कि जज साहब से कह दो कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह मिलने आए हैं। जस्टिस सिन्हा ने चौधरी साहब को मिलने से इंकार कर दिया था और बाद में निर्णय भी उनके परिचित के विरुद्ध देते हुये डरे नहीं थे। इसलिए 12 जून 1975 के निर्णय को देते हुये जहां उन्होने राजनारायन द्वारा लगाए गए तमाम आरोपों को खारिज कर दिया था वहीं इंदिरा जी के चुनाव को भी दो तकनीकी कारणों के कारण रद्द कर दिया था। इंदिरा जी के चुनाव एजेंट यशपाल का सरकारी सेवा से त्याग पत्र विधिवत स्वीकृत न होने से उनको सरकारी अधिकारी माना गया और रायबरेली के जिलाधिकारी द्वारा सभा की तैयारी कराना भी सत्ता का दुरुपयोग माना गया । इन दो आधारों पर इन्दिरा जी का चुनाव रद्द हुआ था। उनके स्टेनो रहे आर के धवन ने अब कहा है कि इन्दिरा जी तब स्तीफ़ा देना चाहती थीं लेकिन उनके सहयोगियों ने नहीं देने दिया जो सर्वथा गलत वक्तव्य है। 
वस्तुतः इंदिराजी को सुझाव दिया गया था कि वह बाबू जगजीवन राम को पी एम बनवा कर सुप्रीम कोर्ट में अपील करें।परंतु एन डी ए सरकार की मंत्री के पति संजय गांधी (जिनके निर्देश पर जगमोहन जी ने 'तुर्कमान गेट'और जामा मस्जिद क्षेत्र में फायरिंग करवाई थी ) की ज़िद्द के कारण इंदिराजी ने एमर्जेंसी के कागजात पर  बिना केबिनेट की पूर्व स्वीकृति के विदेश गए राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली साहब  को सोते से जगवा कर फ़ाईलो पर हस्ताक्षर करवाए थे।यह एमर्जेंसी 25 जून की सुबह 09 बजे लगनी थी और इंदिराजी के विश्वस्त गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित(दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी के श्वसुर साहब) को छोड़ कर अन्य मंत्रियों को इसकी कोई जानकारी न थी।  उमाशंकर दीक्षित जी उत्तर प्रदेश के राजभवन के अतिथि कक्ष में निर्धारित समय पर घोषणा की अपेक्षा में टहलते रहे थे । इंदिरा जी कुछ द्विधा में थीं और उमाशंकर दीक्षित जी ने दिल्ली लौट कर उनका हौंसला बढ़ाया तब 25 जून 1975 की रात्रि में 2 या 3 बजे जाकर एमेर्जेंसी की घोषणा की गई। 26 जून 1975 को मैं अन्य साथी के साथ दिल्ली में था खुद अपनी आँखों से इंडियन एक्स्प्रेस के दफ्तर पर काले कपड़ों की  विरोध पट्टिका को मुख्य द्वार पर  देखा था । अखबार का मुख पृष्ठ केवल काले हाशिये के चौखटे के साथ छ्पा था उस पर कोई खबर नहीं थी। 
होटल मुगल,आगरा में हमारे एक साथी लखनऊ के थे जो वस्तुतः उमाशंकर दीक्षित जी के दामाद के छोटे भाई अर्थात शीला दीक्षित जी की नन्द के देवर थे उनके पास अघोषित/अप्रकाशित खबरों का खजाना था उसी की कुछ मुख्य बातों का उल्लेख किया है। शुरू-शुरू में वह सज्जन आगरा के तत्कालीन DM विनोद दीक्षित जी के साथ रहे थे बाद में ताजगंज में अलग कमरा ले लिया था। जब अलग रहने लगे थे तब जब भी शीला दीक्षित जी किसी राजनीतिक/सामाजिक कार्य से होटल आती थीं तो उन सज्जन को बुलवा कर नियमित मिलती रहती थीं। 
इस संबंध में अपने एक पूर्व प्रकाशित लेख के कुछ अंश भी  नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ :

(16 मार्च 2011) 

"११ -१२ वर्ष की उम्र में शाहजहांपुर में नानाजी के साथ सभी राजनीतिक दलों की सभाओं में गया और सभी नेताओं को सुना फिर १९६७ में सिलीगुड़ी में प्रधानमंत्री इंदिराजी को सुनने छोटे भाई को लेकर गया.मुख्यमंत्री अजोए मुखर्जी को सुनने अकेले ही सिलीगुड़ी कालेज गया;आदत पड़ गयी थी हर दल और नेता को सुनने की.मेरठ में तो इंटर और बी. ए.का छात्र  था ;बाद में सर्विस में था अतः राजनीतिक दलों और नेताओं को न सुनने का प्रश्न ही न था.

उ.  प्र.में हुए १९६९ केमध्यावधी चुनावों के सम्बन्ध में पूर्व में वर्णन हो चूका है.१९७१ में बांगला देश निर्माण से उत्साहित होकर इंदिराजी ने संसद भंग करके मध्यावधी चुनाव करा दिये.स्वंत्र पार्टी-जनसंघ -भा.क्र.द.-कांग्रेस (ओ )-संसोपा आदि मिल कर चुनाव लड़ना चाहते थे.लेकिन चौ.सा :किन्हीं बातों पर अड़ गए और अलग हो गये.बाकी चार दलों के गठबंधन को 'चौगटा मोर्चा 'कहा गया.इस मोर्चा ने ताशकंद के शहीद लाल बहादुर शास्त्री जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री हरिकिशन शास्त्री को मेरठ से अपना उम्मीदवार बनाया था.बउआ ने तो कभी वोट डाला ही नहीं उनको सभी बेकार लगते थे.हमारे नानाजी और बाबूजी सिर्फ जनसंघ को वोट देते थे.लिहाजा इस बार बाबूजी ने भी वोट न देने का फैसला किया था.मैंने उन्हें समझाया कि आपकी पसंद के जनसंघ ने समर्थन दिया ही है और हरिकिशन जी तो शास्त्री जी के पुत्र हैं तो आप उन्हें ही वोट दे दीजिये. इस प्रकार बाबूजी ने मेरे आग्रह पर पहली बार गैर जनसंघी को वोट दिया.बाद में तो मैं धीरे-धीरे बाबूजी को जनता पार्टी और जनता दल को वोट दिलवाने में आसानी से राजी कर सकाऔर फिर मेरे कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल होने एवं उनके हास्टल के  साथी  और सहपाठी का.भीखा लाल जी से संपर्क करने पर तो वह अंततः भाजपा -विरोधी भी हो गये थे.

भैन्साली ग्राउंड मेंराजनीतिक दलों की मीटिंग होती थीं मैंने हर मीटिंग अटेंड की.इंदिराजी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी के साथ आयीं थीं.'समाजवाद कोई जादू की छडी नहीं है जो घुमाते ही सब समान हो जायेंगे'उनका महत्वपूर्ण डायलाग था.उनके दो-तीन दिन बाद जनसंघ अध्यक्ष पं.अटल बिहारी बाजपाई की भी सभा उसी जगह हुई जो कांग्रेस (ओ) के ह.कि.शास्त्री के समर्थन में आये थे.अटल जी का प्रमुख डायलाग था-'लोग आज मेरा ओजस्वी भाषण सुनने आये हैं परसों यहाँ लोग इंदिरा जी का मुखड़ा निहारने आये थे.'मुझे उनका यह वाक्य बेहद बुरा लगा था हालांकि मैं खुद इंदिरा विरोधी था.मैंने बाबू जी से भी कहा था आप जनसंघ का समर्थन करते रहे है उनके अध्यक्ष कितना अशालीन हैं.बाबूजी को भी इंदिरा-विरोधी होने के बावजूद यह कथन सुहाया नहीं था.मैंने याद किया कि पढ़ाई के दौरान हमारे प्रिय प्रो.कैलाश चन्द्र गुप्त भी जनसंघ के    सक्रिय कार्यकर्ता होने के बावजूद अटल जी से अच्छा प्रो.बलराज मधोक को मानते थे.

उ. प्र.विधान सभा केमध्यावधी चुनावों में प्रो.बलराज मधोक ने एल.के.आडवानी जी के जनसंघ अध्यक्ष बनने पर उससे अलग होकर जो 'राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक समूह'नामक पार्टी बनाई थी उसके उम्मीदवार के रूप में पं.जय स्वरूप तिवारी को मेरठ सिटी से खड़ा किया था.तिवारी जी की सियाही बनाने की फैक्टरी थी. उनकी फैक्ट्री  में घुस कर जनसंघियों ने मशीने तोड़ दीं और उन्हें भारी आर्थिक क्षति पहुंचाई थी.प्रो. मधोक ने जब यह सूचना खैर नगर चौराहे पर हो रही सभा में दी तो उनके कार्यकर्त्ता जनसंघ-विरोधी प्रचंड नारे लगाने लगे.उस पर प्रो. मधोक ने उन्हें ऐसा करने से रोका और अपनी बातें जारी रखीं.वह चाहते थे नारे लगाने की बजाये जनसंघ की हार सुनिश्चित की जाए.

अटल जीने अपनी सभा में प्रो.मधोक (जिन्होंने पं.दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के बाद अटल जी को हाथ पकड़ कर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाया था) को काफी कोसा.आदतन इंदिराजी की भी खूब खिल्ली उडाई जबकि खुद ही पहले इंदिराजी को 'दुर्गा'संबोधन के साथ माला पहना चुके थे -बांग्ला विजय पर .

इंदिरा जीभी आईं तो उन्होंने जनता से सवाल किया कि वह शख्स जो विधान सभा का चुनाव तक लड़ने से डर रहा है आपको 'हर खेत को पानी -हर हाथ को काम'कैसे दे पायेगा.(जनसंघ के पोस्टरों में यही नारा था और कहा गया था-'उ. प्र.की बागडोर अटल जी के मजबूत हाथों में सुरक्षित है')?

मुजफ्फर नगर -शामली संसदीय सीट से चौ. सा :उम्मेदवार थे.जाट बाहुल्य क्षेत्र में चौगटा मोर्चा ने अपना उम्मेदवार सांकेतिक खड़ा किया और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार ठा.विजय पाल सिंह को अन्दर खाने सपोर्ट कर दिया परिणामतः चौ.चरण सिंह की शर्मनाक पराजय हो गयी.अखबारों ने इस हार पर अटल जी का बयान सुर्ख़ियों में छापा था-'हमने मनीराम की हार का बदला ले लिया'.कितने मजे की बात थी बदला लेने के लिए १८० डिग्री पर चलने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी को जनसंघ कार्यकर्ताओं ने जी -जान लगा कर जिता दिया था.यहाँ आप जरूर जानना चाहेंगे कि यह 'मनीराम की हार'क्या थी?


मनीराम विधान सभाक्षेत्र गोरखपुर में था .चौ.सा :की संविद सरकार में अंतर्विरोधों के चलते उन्हें हटा कर पूर्व प्रधानमंत्री स्व.लाल बहादुर शास्त्री के सखा और उन्हीं की भाँती बेहद ईमानदार राज्य सभा सदस्य श्री त्रिभुवन  नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था.संविधान के मुताबिक़ उन्हें छः माह के भीतर विधायक निर्वाचित होना था तभी वह आगे पद पर बने रह सकते थे.मनीराम के विधायक ने उनके लिए सीट खाली की थे और वह उप-चुनाव लड़ रहे थे.चौ.सा:नहीं चाहते थे कि टी .एन.सिंह सा:जीत कर मुख्यमंत्री बने रहें अतः उन्होंने भा.क्र.द.से कमजोर उम्मीदवार खड़ा कर दिया था.कांग्रेस(आर) से अलीगढ़ में अमर उजाला के पत्रकार श्री रामकृष्ण दिवेदी चुनाव लड़े थे.चौ.सा:का भीतरी समर्थन उन्हें प्राप्त था सो उन्होंने उप-चुनाव में मुख्यमंत्री को हरा दिया .टी.एन.सिंह सा: राज्य सभा में बने रहे और उ.प्र.विधान सभा इस विवाद के कारण भंग कर दी गयी यहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.'जैसे को तैसा'के आधार परचौ.सा :को  हराने के बाद अटल जी ने 'मनीराम की हार का बदला'कहा था.इसी कारण विधान सभा का चुनाव भी लोक सभा के साथ हुआ था.


१९७१ में इंदिरा जीबांग्ला  देश की लहर पर सवार होकर भारी बहुमत से जीतीं थीं.उन्होंने समाज में अन्धकार फैला रहे संगठनों पर करारा प्रहार किया और उस समय उनकी कमर तोड़ दी थी.(आज फिर वे फुफकार रहे हैं).माउंट आबू में पूर्व हीरा व्यापारी लेखराज जी ने 'ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय'में अनैतिक अनर्थ चला रखा था जो उस समय के 'नव भारत टाईम्स'दिल्ली में प्रमुखता से छपा था.ख़ुफ़िया जांच में पुष्टि होने पर वहां छापा डलवा कर 'मटका'खेल रंगे हाथों पकड़वाया था.काफी समय कोर्ट केस भी चला.अब शायद वह 'मटका'खेल खुले में नहीं हो रहा है.यह मटका सट्टे का नहीं सेक्स का था.

'बाल योगेश्वर'उर्फ़ 'बाल योगी'नामक १३ वर्षीय बालक को कलयुगी अवतार घोषित करके 'डिवाइन लाईट मिशन'भी अनैतिक कार्यों में संलग्न था वहां प्रार्थनाएं होती थीं-'तन मन धन सब गुरु  जी के अर्पण'और वैसा ही होता भी था.यह अवतार घोषणा करता था कि वह 'राम'और 'कृष्ण'को नहीं मानता.गृह मंत्रालय में श्री कृष्णचन्द्र पन्त एवं श्री नाथू राम मिर्धा 'राज्य मंत्री'थे.इंदिराजी को लगा वे उनकी सत्ता को भी चुनौती दे रहे हैं.ख़ुफ़िया जांच करा कर उनके यहाँ भी छापा डलवा दिया.१३ वर्षीय अवतार और उनकी माता जी देश छोड़ कर अमेरिका भाग गए.'बाल योगी'जी अब वहीं सेटिल हैं और भारत आ कर सभाएं  करके 'दान'बटोर कर चले जाते हैं.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का भान्जा बताने वालेरेलवे के पूर्व क्लर्क श्री प्रभात रंजन सरकार उर्फ़ 'आनंद मूर्ती'अपने 'आनंद मार्ग 'और 'प्राउ टिस्ट ब्लाक आफ इण्डिया'के माध्यम से देश में गड़बड़ियाँ फैला रहे थे.मतभेद की और सही बात कहने की उनके यहाँ इजाजत नहीं थी.विरोध करने वाले की खोपड़ी धड से अलग कर दी जाती थी. पुरुलिया आदि में इंदिराजी ने आश्रमों पर छापे डलवा कर ऐसी अनेकों खोपड़ियाँ बरामद करवाईं थीं.मुक्क्दमे भी पर आज फिर आनंद मार्ग सक्रिय है.


ये तीनों संगठनकेन्द्रीय तथा राज्यों के सरकारी कर्मचारियों में घुसपैठ बना कर अपने को मजबूत बनाये हुए थे.ये ही नहीं बल्कि 'राधा स्वामी'-'साईं बाबा'-'इस्कान'आदि-आदि संगठन धार्मिक लबादा ओढ़ कर शासन -प्रशासन में अपनी लाबी बना कर देश को खोखला करने में लगे रहते हैं.पूर्व राष्ट्रपति अवकाश ग्रहण से पूर्व दयालबाग आगरा 'राधास्वामी सत्संग 'में भाग लेने आये थे तो पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरसिंघा राव आगरा के आंवल खेडा में  आचार्य श्रीराम शर्मा के दामाद श्री प्रणव पांड्या के बुलावे पर उनके कार्यक्रम में भाग लेने आये थे.इस राजनीतिक प्रश्रय से इन संगठनों की लूट-शक्ति बढ़ जाती है और उसी अनुपात में आम जनता का शोषण भी बे-इंतिहा बढ़ जाता है.


इंदिराजी में एक बात तमाम खामियों के बावजूद थी कि वह चाहें दिखावे ही के लिए सही आम जनता के हक़ की बातें कहती और कुछ करती भी रहती थीं.भले ही वह धार्मिक स्थलों की यात्रा कर लेती थीं परन्तु अन्याय नहीं सहती थीं.शायद उडीसा के किसी मंदिर में उनके साथ बाबू जगजीवन राम जी को प्रवेश नहीं करने दिया गया था तो उन्होंने खुद भी उस मंदिर में प्रवेश नहीं किया और बिना दर्शन किये लौट गईं.यही वजह थी कि वह सुगमतापूर्वक धार्मिकता का जामा ओढ़े संगठनों के विरुद्ध ठोस कार्यवाही कर सकीं जिससे तब जनता को राहत ही मिली."

http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/03/blog-post_16.html

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27 -06-2015 
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रामचन्द्र गुहा साहब ने उचित रूप से ही कांग्रेस व भाजपा को आपातकाल लगाने वालों से युक्त बताया है। मुलायम,लालू व नीतीश की पार्टियों को भी जे पी के रास्ते से भटका बता कर सही बात कही है। शेष बचते हैं साम्यवादी-वामपंथी दल उनमें भी कुछ कांग्रेस के साथ थे। आज के संन्दर्भ में फासीवाद की तलवार सिर पर लटकने के बावजूद वे ठोस मोर्चा बना कर जनता को अपने पीछे लामबंद करने में तब तक असमर्थ रहेंगे जब तक सामाजिक स्तर पर ब्राह्मणवाद से टकराना नहीं चाहेंगे। विभिन्न साम्यवादी दलों में ब्राह्मणों का प्रभाव व अस्तित्व देखते हुये अभी तो उनके ब्राह्मणवाद के विरुद्ध उठ खड़े होने की कोई संभावना नहीं है जो उन फासीवादी शक्तियों के लिए टानिक का काम कर रही है जो कि संविधान व लोकतन्त्र को नष्ट करने की दिशा में कदम उठा चुकी हैं।।


  ~विजय राजबली माथुर ©
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विश्व का भारी भरकम यह संविधान पूंजीपतियों के अधिकारों का दस्तावेज है; आम जन के लिए रद्दी कागज है दामोदर स्वरूप सेठ :---के विक्रम राव

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23 जूलाई 2015 ·
सोशलिस्ट तब के, समाजवादी अब के
Ram Manohar Lohiaकहते थे कि खूंटी गाड़ो ताकि फिसलन कही तो थमें। वर्ना रसातल जा पहुंचेंगे। अर्थात सिद्धान्तों से डिगने तथा समझौता करने का अधोबिन्दु कहां है ? इसीलिए लखनऊ उच्च न्यायालय द्वारा यादव सिंह पर दिये गये निर्देष के संदर्भ में उत्तर प्रदेष की समाजवादी सरकार को राजधर्म की कसौटी पर कसें। मायावती के कुशासन को हिला देनेवाले लोहिया के ये लोग अब खुद ही हिल गये। बसपा से डिग गये। बसपा से यादव सटे रहे यादव से सपाई सिंह से गलबहियां कर बैठे। मगर भिन्न था वह मंजर लोहिया के समकालीन लोगों का छह दषकों पहले। मुम्बई के उन सोषलिस्टों को भी परखें लखनऊ के समाजवादियों से सन्निध कर के।क्रान्तिकारी दामोदर स्वरूप सेठ जो लोहिया से वरिष्ठ थे, पच्चीस साल बडे थे, कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे।पर वह भी जालसाजी और धोखाधड़ी का मुकदमे में आरोपी थे। सर्वोच्च न्यायालय ने सजा भी सुनाई थी। उस वक्त भी यादवसिंह सरीखा एक धूर्त था। जिसने छल से इस अदम्य सोषलिस्ट को फसाया था। इसे जानकर ही प्रधानमंत्री Jawaharlal Nehruने दामोदर स्वरूप के पक्ष में मुम्बई जिला अदालतमें गवाही दी थी। आचार्य नरेन्द्र देव ने उनके निरपराध होने का सबूत दिया। बम्बई के राज्यपाल श्री श्रीप्रकाष ने दामोदर स्वरूप के समर्थन में बयान दिया। चन्दुभानु गुप्त ने कानूनी सहायता दी। अतः पुराने सोशलिस्ट के नैतिकता की तुलना आज के समाजवादियों के आचरण हो। पर इन अत्याधुनिक समतावादियों के करतबों का उल्लेख पहले हो ताकि उनकी छवि और अधिक चमकीली हो जाय और एक ठग अपनी कारिन्दगी द्वारा तीन-तीन मुख्यमंत्रियों को धन के बलस से पोटले सत्ता का वेष्याकरण कर दे और अकूत जन सम्पत्ति हथिया ले। सियासी अजूबा यह है। यादव सिंह का भूत मायावती पर सवार था उसके वाजिब कारण थे। दलित के नाते उन्हें दलित से खिंचाव था, लगाव था। दौलत की लिप्सा भी थी। पर मज्लूम मजदूरों तथा पसमन्दा काष्तकारों के रहनुमा समाजवादी लोग इस फरेबी के चाल में कैसे आ फंसे ? इसका जवाब चाहिए उन तमाम लोगों को जिन्होंने मुक्त, विकसित प्रदेष के लिए साइकिल को वोट दिया था। हाथी को तजा था।
पड़ताल हो कि एक तीसरे दर्जे का सरकारी कारिन्दा नॉएडा में जूनियर इंजिनियर से पन्द्रह वर्षाें में ही मुख्य मेंटेनेंस इंजीनियर बन गया और अरबों रूपयों से खेलने लगा। उसकी मोटरकार के डिक्की में दस करोड़ पाये गये थे। उसके विरूद्ध जांच हुई पर हर मुख्यमंत्री ने उसे रफा दफा करा दिया। गत सप्ताह लखनऊ के उच्च न्यायालय में सरकारी वकील पचहत्तर वर्षीय महाधिवक्ता विजय बहादुर सिंह ने जनहित याचिका का विरोध करते हुये यादव सिंह के भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच की मांग को खारिज करने का तर्क दिया मगर उच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच का आदेष दे ही दिया। इससे तमाम सरकारी पापियों का भाण्डा भूटेगा। मगर पंचीदा प्रश्न यही है कि सीबीआई सरकार विरोध क्यो कर रही थी। कैसा विद्रूप है कि साधारण से अपराध में गिरफ्तारी तथा जेल हो जाती है, पर राजकोष से जिसने करोड़ों लूटा है, गबन किया है वह अब तक छुट्टा घूम रहा है। प्रदेष के राजनेता आम जन को क्या संदेषा देना चाहते हैं ? इन सियासती, अपराधी महापुरूषों का भी महागठबंधन दीखता है। Narendra Modiसरकार के वित्त मंत्री ने उस आयकर आयुक्त का तबदला कर मानव संसाधन मंत्रालय में डाल दिया जिसने यादव सिंह के दिल्ली गाजियाबाद और नोइडा मकानों पर छापा मारकर अरबों रूपयों की काली कमाई पकडी थी। आखिर किसको भाजपाई सरकार बचा रही है ? सर्वोच्च न्यायालय में यादव सिंह की सहायता के पूर्व कांग्रेसी मंत्री और वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्षीद भी पेष हो चुके हैं। मायावती ने यादवसिंह को प्रश्रय दिया और उसे प्रोत्साहन दिया था। समाजवादी मुख्य मंत्रियों ने खादपानी डाला। छोटा सा जीव आज दैत्याकार हो गया है। एक त्रासद तथ्य पर गौर कर लें। उत्तर प्रदेष के गुप्तचर पुलिस विभाग ने यादव सिंह को निर्दोष पाया और मुकदमा अदालत से वापस ले लिया था। महज इत्तेफाक था की चैबीस घंटों में लखनऊ के आयकर विभाग ने छापा मारा और यादव सिंह के बेहिसाब कालेधन को पकड़ा, कब्जे में लिया। प्रदेश सरकार को ऐसी नाजायज हरकत का जवाब सीबीआई तथा अदालत को देना पडेगा। बडे़ राज खुलेंगे। दिग्गजोंके सर लुड्केंगे। मुख्य न्यायाधीष धनंजय चन्द्रचूड ने कहा भी जनता की गाढ़ी कमाई को लूटने का हक किसी को भी नहीं है। मगर यह पेंचीदगी सुलमानी होगी कि यादव सिंह का तिलिस्म नही पाये ? उत्कोच की लिप्सा ? यही पर फिर लोहिया की याद कर ले कि खूंटी गाडे। वर्ना क्या पता लाल टोपी कितना और खिसकती रहे।
अब याद करलें पुराने दौर की लाल टोपी को जब गांधी टोपी के कुछ वर्षों बाद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी लोगों ने सफेद की जगह रक्तिम रंग पसंद किया था। उसी युग के थे संघर्षषील सोशलिस्ट दामोदर स्वरूप् सेठ जो यूपी सोशलिस्ट पार्टी के 1936 में संस्थापक अध्यक्ष थे। जब वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुये थे तो आचार्य नरेन्द्र देव उपाध्यक्ष थे। वे बीस वर्ष की भरी तरूणाई के थे जब काकोरी षडयंत्र में गिरफ्तार हुये थे। फिर वे पांच बार जेल गये। भारत छोड़ों आन्दोलन (1942) में दो साल कैद रहे।
तो अचरज होना स्वाभाविक है कि ऐसा राष्ट्रभक्त समाजसेवी, क्रान्तिकारी व्यक्ति आखिर धोखाधड़ी, जालसाजी तथा गबन के अपराध में कैसे किन हालातों में कैद हुये और जेल की सजा पाये। यह महज राजनीतिक संयोग था और दगावाज साथियों पर अतिविष्वास करने का नतीजा था। दामोदर जी सरल प्रकृति के थे। घटना है भारत के स्वतंत्र हुये दो वर्षें बाद की। Netaji Subhas Chandra Boseके साथी रहे और उनकी पार्टी फारवर्ड ब्लाक के उपाध्यक्ष रहे लाला शंकरलाल दामोदर जी के मित्र थे। शंकरलाल जो वाणिज्यीय प्रबन्ध बीमा कम्पनी के अध्यक्ष थे। उन्होंने एक कुटिल व्यूह रचकर जूपिटर बीमा कम्पनी के शेयर हथिया लिये। नियंत्रण अपने हाथ में रखा पर वित्तीय लेनदेन दामोदर जी के नाम पर करते रहे। काले धन की आवक हुई और शंकरलाल ने अपना वित्तीय कारोबार विस्तृत कर लिया। जूपिटर बीमा कम्पनी में शीघ्र ही शेयरों का घपला पकडा गया। सरकारी जांच पर करीब पचास लाख (आज उसका हजार गुणा ज्यादा) रूपये का गबन और हेराफेरी उभरकर आई। बारह अभियुक्त बने जिनमें शंकरलाल पहले नम्बर पर थे और दामोदर स्वरूप् जी नौंवे नम्बर पर थे। किन्तु बैठक का सारा लेनदेन उन्हीं के नाम पर होता था। आचार्य नरेन्द्र देव ने दामोदर स्वरूप जी सावधान भी किया था कि उन्हे आर्थिक बारीकियों का ज्ञान नहीं है, व्यापार से यह समाजवादी क्रान्तिकारी अनभिज्ञ है। अतः वह जूपिटर कम्पनी छोड़कर लखनऊ लौट आये। पर दामोदरजी तब तक इन विष्वासघाती मित्रों के कारण आकण्ड डूब गये थे। मुम्बई जिला अदालत में मुकदमा चला। उस वक्त कारागार से तपेतपाये निकले इस स्वाधीनता सेनानी और सोषलिस्ट की वित्तीय अपराध में संलिप्तता कोई सोच भी नहीं सकता था। स्वयं जवाहरला नेहरू ने अदालत के बयान दिया कि दामोदर जी ऐसा गबन का अपराध कर ही नही सकते। नामी वकील और उत्तर प्रदेष के राज्यपाल रह चुके कन्हैयालाल माणिकलाल मंुषी ने दामोदर जी की अदालत के पैरवी स्वयं की। जिला जज ने दामोदर जी को दोषमुक्त पाकर रिहा कर दिया। तब मुम्बई सरकार ने उच्च न्यायालय में अपील दायर कर दी। मुकदमा लम्बा चला। सहअभियुक्तों के बनावटी बयानों के कारण दामोदर जी को सात साल का सश्रम दण्ड मिला। लाला शंकरलाल और उनके साथियों ने दामोदर जी की बलि दे दी। सलीव पर चढ़ा दिया।
दामोदर जी ने मुम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इस अपील की सुनवाई की प्रधान न्यायाधीष कोका सुब्बा राव जिन्हें विपक्षी पार्टियों ने 1967 में इन्दिरा गांधी के प्रत्याषी डा. जाकिर हुसैन के विरूद्ध राष्ट्रपति का प्रत्याषी बनाया। तब जनसंघ, सोशलिस्ट, स्वतंत्र पार्टी आदि के नेताओं ने कांगे्रस की पराजय की योजना बनाई पर विफल रहे। कम्युनिस्टों ने कांग्रेस का साथ दिया था।
फिलहाल प्रधान न्यायाधीष सुब्बा राव ने पांच वर्षोंतक सुनवाई कर 18 मार्च 1963 के दिन दामोदर स्वरूप सेठ की सजा को बरकरार रखा लेकिन दो वर्षों के भीतर (1965 में) उनका निधन हो गया। उन्हें मुम्बई कारागार में सश्रम कैद से महाराष्ट्र की राज्यपाल रही श्रीमति विजयलक्ष्मी पण्डित ने बचाया। उन्होंने यू.पी. के मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त से आग्रह किया था तो दामोदर जी को था तो दामोदरजी को लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में सुगणावस्था में भर्ती किया गया।
इसी सिललिसे में एक त्रासद अनुभव का भी उल्लेख कर दूँ। कितने युवा समाजवादी हैं जिन्होंने युसुफ मेहरअली, पुरूषोत्तमदास त्रिकमदास, रामवृक्ष वेनीपुरी, डा. उषा मेहता, गोपाल गौडा, एन्टोनी पिल्लई, आदि का नाम भी सुना हो। इसीलिए कम से कम उत्तर प्रदेष के समाजवादी सिरमौरों से उनका पत्रपत्रिकाओं में लेखों द्वारा। क्योंकि इन सबको दामोदर स्वरूप सेठ के बारे में केवल एक आर्थिक अपराध के संदर्भ में जानकारी होगी। लोहिया से भी वरिष्ठ इस समाजवादी को इन युवाओं को जताना होगा। बरेली में जन्में, इलाहाबाद तथा लखनऊ में षिक्षित दामोदर स्वरूप सेठ महज बीस वर्ष की उम्र में बनारस षडयंत्र केस में पांच वर्ष जेल काट चुके हैं। इस केस के प्रमुख आरोपी शचीन्दनाथ सान्याल को काला पानी आजीवन कारावास हुआ वे हिन्दुस्तान सोषलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापक थे जिसमे भगत सिंह और चन्द्रषेखर आजाद थे दामोदर स्वरूप जी के साथ दूसरे आरोपी थे रास बिहारी बोस जिन्होंने जापान में आजाद हिन्द फौज गठित किया था जिसका नेताजी सुभाष बोस ने बाद में नेतृत्व किया था।संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य के नाते 1946 में दामोदर स्वरूप सेठ ने सदन में कहा था कि विश्व में कहा था कि विश्व का भारी भरकम यह संविधान पूंजीपतियों के अधिकारों का दस्तावेज है। आम जन के लिए रद्दी कागज है।प्रथम संसद के वे एकमात्र सोषलिस्ट सदस्य थे क्योंकि समाजवादियों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। पर इस निर्णय की सूचना देर से मिलने के कारण दामोदर स्वरूप जी अपना नामांकन वापस नही ले पाये। उन्होंने संविधान में आरक्षण का पुरजोर विरोध किया था क्योंकि उनकी राय में इससे प्रषासन में अक्षम, निकम्मे और मूर्ख लोग चयनित हो जायेंगे। बेवाकी उनकी पहचान थी।उस दौर के सोषलिस्टों की संघर्ष गाथा  यदि आज के समाजवादी पढे, समझे और आत्मसात करे तो फिर राजकोष के लुटेरों की कोई भी पैरवी नहीं कर सकता जैसा लखनऊ उच्च न्यायालय में समाजवादी सरकार के वकीलों ने ठग यादव सिंह के लिए किया था। कहीं तो खूंटी गडे ताकि कदाचार की सीमा तय हो। वर्ना कांग्रेस क्या खराब थी ?

के विक्रम राव
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 ~विजय राजबली माथुर ©
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साम्प्रदायिकता और संस्कृति : मुंशी प्रेमचंद ------ के. के. चतुर्वेदी

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(३१ जुलाई को कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की १३५वीं जयंती है, इस अवसर पर प्रस्तुत है १५ जनवरी १९३४ को लिखे हुए इस लेख के कुछ अंश. अब आप देखिये कि ये लेख आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था. आज जबकि संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर घृणा और नफरत फैला रहा है एवम सऊदी अरेबिया सहित कई अन्य इस्लामिक देशों में वहाबी तथा तत्ववादी ताकतें इस्लाम के नाम पर बेगुनाहों का क़त्ल-ए-आम कर रहीं हैं, शांतप्रिय नागरिकों का दायित्व और भी बढ़ जाता है कि वे संगठित होकर इन फासीवादी ताकतों का मुक़ाबला करें.
-के. के. चतुर्वेदी)

साम्प्रदायिकता और संस्कृति
(मुंशी प्रेमचंद)
साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जामाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है. हिदू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, ये भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है,न कहीं हिन्दू संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति. अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं.
हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज़ नहीं है. हिन्दू मूर्तिपूजक है तो क्या मुसलमान क़ब्र पूजक और स्थान पूजक नहीं है?,ताजिये को शरबत को शीरीनी कौन चढ़ाता है?, मस्ज़िद को ख़ुदा का घर कौन समझता है? अगर मुसलामानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सर झुकाना भी कुफ़्र समझता है तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रंथों को गपौड़े समझता है.
इसी लेख में प्रेमचन्द जी आखिर में लिखते हैं “ये ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके,जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके.”
जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न तो अवकाश है और न ज़रूरत. ’संस्कृति’ अमीरों का, पेट भरों का, बेफ़िक्रों का व्यसन है, दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है. उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें. जब जनता मूर्क्षित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था. ज्यों ज्यों उसकी चेतना जाग्रत होती जाती है,वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो राजा बन कर, विद्वान् बन कर, जगत सेठ बन कर जनत को लूटती थी. उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिंता है जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है. उस पुरानी संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखें बंद किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी.
१५ जनवरी १९३४.
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  ~विजय राजबली माथुर ©
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सरस्वती की पूजा क्यों ---ध्रुव गुप्त /ज्ञान-विज्ञान की आराधना का पर्व ---विजय राजबली माथुर

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 देवी सरस्वती की पूजा क्यों करते हैं हम ?:

प्राचीन काल में आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत था। आज की विलुप्त सरस्वती तब वर्तमान जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पाकिस्तान के पूर्वी भाग, राजस्थान और गुजरात की मुख्य नदी हुआ करती थी। तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर और व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के किनारे बसे थे। तमाम ऋषियों और आचार्यों के आश्रम सरस्वती के तट पर स्थित थे। ये आश्रम अध्यात्म, धर्म, संगीत और विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और ज्यादातर स्मृति-ग्रंथों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी का दर्ज़ा प्राप्त था। ऋग्वेद में इसी रूप में इस नदी के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। कई हजार साल पहले सरस्वती में आई प्रलयंकर बाढ़ के बाद अधिकांश नगर और आश्रम गंगा और जमुना के किनारों पर स्थानांतरित तो हो गए, लेकिन जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं। इतिहास के गुप्त-काल में रचे गए पुराणों में उसे देवी का दर्जा दिया गया। उसके बाद अन्य देवी देवताओं के साथ सरस्वती की पूजा और आराधना भी आरम्भ हो गई। सरस्वती की पूजा वस्तुतः आर्य सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत और धर्म-अध्यात्म के कई क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।

सभी मित्रों को सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !
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ध्रुव गुप्त जी के आर्ष विचार पढ़ कर एक बार फिर से इस पुराने लेख को सार्वजनिक कर रहा हूँ :

Tuesday, February 8, 2011

वीर -भोग्या वसुंधरा


http://krantiswar.blogspot.in/2011/02/blog-post_08.html
 आज वसंत पंचमी है-सरस्वती पूजा.सुनिये एक छोटी स्तुति-



सरस्वती परमात्मा क़े उस स्वरूप को कहते हैं जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान  ,बुद्धि,विवेक  को अर्जित करते हैं.जिस प्रकार किसी संस्था या संगठन की स्थापना से पूर्व उसके लिये नियम-विधान बनाये जाते हैं.उसी प्रकार परमात्मा ने सृष्टि क़े सृजन से पूर्व मनुष्यों द्वारा पालन करने हेतु नियमों की संरचना वेदों क़े रूप में की.मनुष्य है ही मनुष्य इसलिए कि,उसमें मनन करने की क्षमता है,अन्य किसी भी प्राणी को परमात्मा ने यह योग्यता नहीं दी है.पूर्व-सृष्टि की मोक्ष -प्राप्त आत्माओं को परमात्मा ने अंगिरा आदि ऋषियों क़े रूप में वेद-ज्ञान प्रदान करने हेतु प्रथ्वी पर अवतरित किया.परमात्मा स्वंय अवतार नहीं लेता है न ही नस और नाडी क़े बंधन में बंधता है जैसा कि,पोंगा-पंथियों ने प्रचारित कर रखा है.,ढोंगियों-पाखंडियों ने वेद-विपरीत अपने निहित स्वार्थ में गलत पूजा पद्धतियाँ विकसित कर ली हैं.आज आम जनता उन्हीं दुश्चक्रों में फंस कर अपना अहित करती जाती और दुखी होती रहती है.आज ज्ञान-विज्ञान क़े देवता सरस्वती की पूजा क़े अवसर पर एक बार फिर सबको पाखण्ड से बचने हेतु प्रेरित करने का छोटा सा प्रयास इस लेख क़े माध्यम से कर रहा हूँ.

देवता वह है जो देता है और बदले में लेता नहीं है,जैसे-वृक्ष  ,नदी,वायु,बादल(मेघ),अग्नि,भूमि,अंतरिछ आदि.अतः जो लोग इनसे अलग देवता की कल्पना कर पूजते हैं ,निश्चय ही वेद-विपरीत आचरण करते हैं जो परमात्मा क़े निर्देशों का खुला उल्लंघन नहीं तो और क्या है?.फिर कष्ट भोगने पर परमात्मा को कोसते है और अपनी गलती को सुधारते नहीं.क्योंकि ढोंगी-पाखंडी सुधार होने नहीं देना चाहते.दोषी कौन?

आज कल एक रिवाज़ चल रहा है वैज्ञानिक धर्म को अवैज्ञानिक बताने का.आज क़े तथा-कथित वैज्ञानिक सुनियोजित तरीके से प्रचार करते हैं कि,धर्म-ज्योतिष आदि अवैज्ञानिक ,ढोंग एवं टोटका हैं.अज्ञान की इंतिहा इस से ज्यादा क्या होगी?जो वास्तव में अविज्ञान है,टोटका और टोना,ढोंग तथा पाखण्ड है उसे तो पूजा जाता है और ऐसा वे तथा-कथित साईंस्दा ही ज्यादा करते हैं.बनारस जो धर्म-नगरी समझा जाता है वहीं से सम्बंधित लोग ऐसा करने में अग्रणी हैं.यह कोई आज नयी बात नहीं है.बनारस क़े ही तथा कथित विद्वानों ने जो उस समय क़े शासकों क़े अनुगामी थे पहले तो गोस्वामी तुलसी दास जी क़े लिखित ग्रन्थ को जलाना  शुरू किया और जब उन्होंने बनारस शहर छोड़ कर अवधी में 'राम चरित मानस'की रचना करके जनता का आव्हान शासन व्यवस्था को उलट देने का किया तो कुचक्र चला कर मानस को पूज्य बना दिया गयाऔर राम को अवतार ,भगवान् आदि घोषित कर दिया गयाजिससे आम जनता उनके चरित्र  का आचरण न करने की सोचे तथा पंगु ही बनी रहे और शासकों की लूट बरकरार रहे.राम ने साम्राज्यवादी रावण का संहार करके भारतीय राष्ट्रवाद की रक्षा की थी. अब आप उन्हें भगवान् का अवतार मानें तब आप वैसा ही कैसे कर सकते हैं और नहीं कर भी रहे हैं.तब लुटते  रहियेफिर क्यों रोते हैं हमारा धन स्विस बैकों में क्यों पहुंचा ? हम गण-तन्त्र में भी औपनैवेशिक बस्ती  जैसे क्यों हैं ?बनारस क़े करमकांडी वर्ग  ने गंगा क़े घाटों पर बड़े -बड़े आरे लगा रखे थे और स्वर्ग जाने क़े इच्छुक लोगों से मोटी दान -दक्षिणा लेकर उन्हें ढलान क़े रास्ते भेज देते थे.बेवकूफ स्वर्ग लालची उन आरों से कट कर गंगा में बह जाता था उसके परिवार जन जश्न मना कर उन तोदुओं का पेट और भरते थे. यह था गुलाम भारत में बनारस का विज्ञान.वहां क़े तीस मारखा विज्ञानी ब्लॉगर  आज फिर दहाड़ रहे हैं उन क़े मंतव्य को समझने और अपनी रक्षा करने की महती आवश्यकता है.
मारा भारतीय वैदिक-विज्ञान हमें बताता है कि,हम जिस पृथ्वी क़े वासी हैं वह अपनी धुरी पर एक लाख ग्यारह हजार छै सौ कि.मी.प्रति घंटे की गति से घुमते हुए अपने से १३ लाख गुना बड़े और नौ करोड़ ३० लाख मील की दूरी पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रही है.सब ग्रहों का परिवार एक सौर परिवार है और एक अरब सौर परिवारों क़े समूह को एक नीहारिका कहते हैं और ऐसी १५०० निहारिकायें वैज्ञानिक साधनों द्वारा देखी गई हैं.एक आकाश गंगा में २०० अरब तारे हैं और अरबों आकाश गंगाएं विद्यमान हैं.एक आकाश गंगा का प्रकाश प्रथ्वी पर आने में १० अरब वर्ष लग जाते हैं.प्रकाश की गति ३ लाख कि.मी.प्रति सेकिंड है.अर्थात जब से यह पृथ्वी बनी है तब से कुछ नक्षत्रों का प्रकाश प्रथ्वी पर अभी नहीं पहुंचा है.इतने विशाल ब्रहमांड क़े रचियता की व्यवस्था में ग्रह-उपग्रह ,नक्षत्र आदि अपने स्थान (आर्बिट)पर सक्रिय हैं एक दूसरे से दूरी बनाये रख कर गतिशील हैं और आपस में नहीं टकरा रहे हैं.सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ३६० डिग्री में फैला है.सूर्य जिस पर निरन्तर हीलियम और हाईड्रोजन क़े विस्फोट हो रहे हैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परिभ्रमण ३० -३० डिग्री  क़े हिसाब से कर रहा है ,इस प्रकार १२ राशियाँ हैं और २७ नक्षत्र हैं २८ वें अभिजित को गणना लायक न होने क़े कारण नहीं गिनते हैं.प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं .सूर्य छै माह उत्तरायण तथा छै माह द्क्शिनायन रहता है.सूर्य की ६० कलाएं हैं.
३६०*६० =२१६०० /उत्तरायण/दक्षिणायन २१६००/२ =१०८००  और बाद क़े शून्य की गणना नहीं होने क़े कारण १०८ मान बना इसी को माला में मनके क़े रूप मेंरखा और विधान बना दिया कि १०८ बार जाप करने से वह एक माला या माने ब्रह्माण्ड का एक चक्र पूर्ण हुआ. यह है हमारा वैदिक विज्ञान,जिसे पाश्चात्य क़े पिट्ठू गररियों  क़े गीत बताते हैं.मैक्स मूलर सा :जर्मनी क़े विद्वान भारत आ कर ३० वर्ष रह कर संस्कृत सीखते हैं और यहाँ से संस्कृत की मूल पांडू लिपियें ले कर चले जाते हैं और जर्मनी में उसके आधार पर रिसर्च होती है तथा वह पश्चिम का विज्ञान कहलाती है.जर्मन वैज्ञानिकों को रूस तथा अमेरिका ले जा कर (हिटलर की पराजय क़े बाद)अणु(एटम )बम्ब का अविष्कार होता है और  वह पश्चिम की खोज बन जाती है ,है न हम भारतीयों का कमाल?हमारे बनारसी साईंस ब्लागर्स हमारे ज्योतिष विज्ञान को अवैज्ञानिक बताने का दुह्साहस कर डालते हैं क्योंकि वे आज भी दासत्व -भाव में जी रहे हैं.
अथर्व वेद १० /३ /३१ में कहा है 'अष्टचक्रा नवद्वारा देव पूरयोध्या 'अर्थात यह शरीर देवताओं की ऐसी नगरी है कि उसमें दो आँखें,दो कान,दो नासिका द्वार एक मुंह तथा दो द्वार मल-मूत्र विसर्ज्नार्थ हैं.ये कुल नौ द्वार अर्थात दरवाजे हैं जिस अयोध्या नगर में रहता हुआ जीवात्मा अर्थात पुरुष कर्म करता और उनके फल भोगता है.द्वारों क़े सन्दर्भ में ही इस शरीर को द्वारिकापुरी भी कहा जाता है.आप आज क्या कर रहे है ?जिस अयोध्या को राम जन्म भूमी बना कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा गढ़ी कहानी क़े आधार पर बेवजह लड़ रहे हैं उसे तो सम्राट हर्ष वर्धन ने साकेत नाम से बसाया था.राम क़े चरित्र को अपने में ढालेंगे नहीं ,राम की तरह साम्राज्यवाद का विनाश करेंगे नहीं बल्की साम्राज्यवादियों की चाल में फंस कर राम क़े नाम पर अपने ही देश में खून खराबा करेंगें.राम ने तो साम्राज्यवादी रावण का संहार उसके यहाँ जाकर किया था. आज क़े साम्राज्यवादी अमेरिका की चाकरी हमारे देश क़े वैज्ञानिक करने को सदैव आतुर रहते हैं.यह क्या है?
'ब्रह्म्सूत्रेण पवित्रीक्रित्कायाम 'यह लिखा है कादम्बरी में सातवीं शताब्दी में आचार्य बाणभट्ट ने.अर्थात  महाश्वेता ने जनेऊ पहन रखा है, तब तक लड़कियों का भी उपनयन होता था.(अब तो सबका उपहास अवैज्ञानिक कह कर उड़ाया जाता है).श्रावणी पूर्णिमा अर्थात रक्षा बंधन पर उपनयन क़े बाद नया विद्यारम्भ होता था.उपनयन अर्थात जनेऊ क़े तीन धागे तीन महत्वपूर्ण बातों क़े द्योतक हैं-
१ .-माता,पिता,तथा गुरु का ऋण उतारने  की प्रेरणा.
२ .-अविद्या,अन्याय ,आभाव दूर करने की जीवन में प्रेरणा.
३ .-हार्ट,हार्निया,हाईड्रोसिल (ह्रदय,आंत्र और अंडकोष -गर्भाशय )संबंधी नसों का नियंत्रण ;इसी हेतु कान पर शौच एवं मूत्र विसर्जन क़े वक्त धागों को लपेटने का विधान था.आज क़े तथा कथित पश्चिम समर्थक विज्ञानी इसे ढोंग, टोटका कहते हैं क्या वाकई ठीक कहते हैं?
विश्वास-सत्य द्वारा परखा  गया तथ्य
अविश्वास-सत्य को स्वीकार न  करना
 अंध-विश्वास--विश्वास अथवा अविश्वास पर बिना सोचे कायम रहना
विज्ञान-किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं.
इस प्रकार जो लोग साईंस्दा होने क़े भ्रम में भारतीय वैज्ञानिक तथ्यों को झुठला रहे हैं वे खुद ही घोर अन्धविश्वासी हैं.वे तो प्रयोग शाळा में बीकर आदि में केवल भौतिक पदार्थों क़े सत्यापन को ही विज्ञान मानते हैं.यह संसार स्वंय ही एक प्रयोगशाला है और यहाँ निरन्तर परीक्षाएं चल रहीं हैं.परमात्मा एक निरीक्षक (इन्विजीलेटर)क़े रूप में देखते हुए भी नहीं टोकता,परन्तु एक परीक्षक (एक्जामिनर)क़े रूप में जीवन का मूल्यांकन करके परिणाम देता है.इस तथ्य को विज्ञानी होने का दम्भ भरने वाले नहीं मानते.यही समस्या है.
आज वसंत-पंचमी को ही महा कवी पं.सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'का जन्मदिन भी है उन्होंने माँ सरस्वती से हम सब भारतीयों क़े लिये जो वरदान मँगा है ,वही इस लेख का अभीष्ट है-

वर दे वीणावादिनी
वर दे वीणावादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे ।
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष- भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दें !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ।

(--निराला)

  ~विजय राजबली माथुर ©
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शिव भारत देश का पर्याय --- विजय राजबली माथुर

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"ॐ नमः शिवाय च का अर्थ है-Salutation To That Lord The Benefactor of all "यह कथन है संत श्याम जी पाराशर का.अर्थात हम अपनी मातृ -भूमि भारत को नमन करते हैं.वस्तुतः यदि हम भारत का मान-चित्र और शंकर जी का चित्र एक साथ रख कर तुलना करें तो उन महान संत क़े विचारों को ठीक से समझ सकते हैं.शंकर या शिव जी क़े माथे पर अर्ध-चंद्राकार हिमाच्छादित हिमालय पर्वत ही तो है.जटा से निकलती हुई गंगा -तिब्बत स्थित (अब चीन क़े कब्जे में)मानसरोवर झील से गंगा जी क़े उदगम की ही निशानी बता रही है.नंदी(बैल)की सवारी इस बात की ओर इशारा है कि,हमारा भारत एक कृषि -प्रधान देश है.क्योंकि ,आज ट्रेक्टर-युग में भी बैल ही सर्वत्र हल जोतने का मुख्य आधार है.शिव द्वारा सिंह-चर्म को धारण करना संकेत करता है कि,भारत वीर-बांकुरों का देश है.शिव क़े आभूषण(परस्पर विरोधी जीव)यह दर्शाते हैंकि,भारत "विविधताओं में एकता वाला देश है."यहाँ संसार में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूंजी है तो संसार का सर्वाधिक रेगिस्तानी इलाका थार का मरुस्थल भी है.विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं तो पोशाकों में भी विविधता है.बंगाल में धोती-कुर्ता व धोती ब्लाउज का चलन है तो पंजाब में सलवार -कुर्ता व कुर्ता-पायजामा पहना जाता है.तमिलनाडु व केरल में तहमद प्रचलित है तो आदिवासी क्षेत्रों में पुरुष व महिला मात्र गोपनीय अंगों को ही ढकते हैं.पश्चिम और उत्तर भारत में गेहूं अधिक पाया जाता है तो पूर्व व दक्षिण भारत में चावल का भात खाया जाता है.विभिन्न प्रकार क़े शिव जी क़े गण इस बात का द्योतक हैं कि, यहाँ विभिन्न मत-मतान्तर क़े अनुयायी सुगमता पूर्वक रहते हैं.शिव जी की अर्धांगिनी -पार्वती जी हमारे देश भारत की संस्कृति (Culture )ही तो है.भारतीय संस्कृति में विविधता व अनेकता तो है परन्तु साथ ही साथ वह कुछ  मौलिक सूत्रों द्वारा एकता में भी आबद्ध हैं.हमारे यहाँ धर्म की अवधारणा-धारण करने योग्य से है.हमारे देश में धर्म का प्रवर्तन किसी महापुरुष विशेष द्वारा नहीं हुआ है जिस प्रकार इस्लाम क़े प्रवर्तक हजरत मोहम्मद व ईसाईयत क़े प्रवर्तक ईसा मसीह थे.हमारे यहाँ राम अथवा कृष्ण धर्म क़े प्रवर्तक नहीं बल्कि धर्म की ही उपज थे.राम और कृष्ण क़े रूप में मोक्ष -प्राप्त आत्माओं का अवतरण धर्म की रक्षा हेतु ही,बुराइयों पर प्रहार करने क़े लिये हुआ था.उन्होंने कोई व्यक्तिगत धर्म नहीं प्रतिपादित किया था.आज जिन मतों को विभिन्न धर्म क़े नाम से पुकारा जा रहा है ;वास्तव में वे भिन्न-भिन्न उपासना-पद्धतियाँ हैं न कि,कोई धर्म अलग से हैं.लेकिन आप देखते हैं कि,लोग धर्म क़े नाम पर भी विद्वेष फैलाने में कामयाब हो जाते हैं.ऐसे लोग अपने महापुरुषों क़े आदर्शों को सहज ही भुला देते हैं.आचार्य श्री राम शर्मा गायत्री परिवार क़े संस्थापक थे और उन्होंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा था -"उन्हें मत सराहो जिनने अनीति पूर्वक सफलता पायी और संपत्ति कमाई."लेकिन हम देखते हैं कि,आज उन्हीं क़े परिवार में उनके पुत्र व दामाद इसी संपत्ति क़े कारण आमने सामने टकरा रहे हैं.गायत्री परिवार में दो प्रबंध समितियां बन गई हैं.अनुयायी भी उन दोनों क़े मध्य बंट गये हैं.कहाँ गई भक्ति?"भक्ति"शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है."भ "अर्थात भजन .कर्म दो प्रकार क़े होते हैं -सकाम और निष्काम,इनमे से निष्काम कर्म का (आधा क) और त्याग हेतु "ति"लेकर "भक्ति"होती है.आज भक्ति है कहाँ?महर्षि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना धर्म में प्रविष्ट कुरीतियों को समाप्त करने हेतु ही एक आन्दोलन क़े रूप में की थी.नारी शिक्षा,विधवा-पुनर्विवाह ,जातीय विषमता की समाप्ति की दिशा में महर्षि दयानंद क़े योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता.आज उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज में क्या हो रहा है-गुटबाजी -प्रतिद्वंदिता .


काफी अरसा पूर्व आगरा में आर्य समाज क़े वार्षिक निर्वाचन में गोलियां खुल कर चलीं थीं.यह कौन सी अहिंसा है?जिस पर स्वामी जी ने सर्वाधिक बल दिया था. स्वभाविक है कि, यह सब नीति-नियमों की अवहेलना का ही परिणाम है,जबकि आर्य समाज में प्रत्येक कार्यक्रम क़े समापन पर शांति-पाठ का विधान है.यह शांति-पाठ यह प्रेरणा देता है कि, जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में विभिन्न तारागण एक नियम क़े तहत अपनी अपनी कक्षा (Orbits ) में चलते हैं उसी प्रकार यह संसार भी जियो और जीने दो क़े सिद्धांत पर चले.परन्तु एरवा कटरा में गुरुकुल चलाने  वाले एक शास्त्री जी ने रेलवे क़े भ्रष्टतम व्यक्ति जो एक शाखा क़े आर्य समाज का प्रधान भी रह चुका था क़े भ्रष्टतम सहयोगी क़े धन क़े बल पर एक ईमानदार कार्यकर्ता पर प्रहार किया एवं सहयोग दिया पुजारी व पदाधिकारियों ने तो क्या कहा जाये कि, आज सत्यार्थ-प्रकाश क़े अनुयायी ही सत्य का गला घोंट कर ईमानदारी का दण्ड देने लगे हैं.यह सब धर्म नहीं है.परन्तु जन-समाज ऐसे लोगों को बड़ा धार्मिक मान कर उनका जय-जयकारा करता है.आज जो लोगों को उलटे उस्तरे से मूढ़ ले जाये उसे ही मान-सम्मान मिलता है.ऐसे ही लोग धर्म व राजनीति क़े अगुआ बन जाते हैं.ग्रेषम का अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत है कि,ख़राब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है.ठीक यही हाल समाज,धर्म व राजनीति क़े क्षेत्र में चल रहा है.

दुनिया लूटो,मक्कर से.
रोटी खाओ,घी-शक्कर से.

   एवं
अब सच्चे साधक धक्के खाते हैं .
फरेबी आज मजे-मौज  उड़ाते हैं.

आज बड़े विद्वान,ज्ञानी और मान्यजन लोगों को जागरूक होने नहीं देना चाहते(प्रस्तुत 'महादेव'संबंधी विचारों के लेखक एक 'नास्तिक 'संप्रदाय से सम्बद्ध हैं और पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी विचारों की ही परिपुष्टि कर रहे हैं),स्वजाति बंधुओं की उदर-पूर्ती की खातिर नियमों की गलत व्याख्या प्रस्तुत कर देते हैं.राम द्वारा शिव -लिंग की पूजा किया जाना बता कर मिथ्या सिद्ध करना चाहते हैं कि, राम क़े युग में मूर्ती-पूजा थी और राम खुद मूर्ती-पूजक थे. वे यह नहीं बताना चाहते कि राम की शिव पूजा का तात्पर्य भारत -भू की पूजा था. वे यह भी नहीं बताना चाहते कि, शिव परमात्मा क़े उस स्वरूप को कहते हैं कि, जो ज्ञान -विज्ञान का दाता और शीघ्र प्रसन्न होने वाला है. ब्रह्माण्ड में चल रहे अगणित तारा-मंडलों को यदि मानव शरीर क़े रूप में कल्पित करें तो हमारी पृथ्वी का स्थान वहां आता है जहाँ मानव शरीर में लिंग होता है.यही कारण है कि, हम पृथ्वी -वासी शिव का स्मरण लिंग रूप में करते हैं और यही राम ने समझाया भी होगा न कि, स्वंय ही  लिंग बना कर पूजा की होगी. स्मरण करने को कंठस्थ करना कहते हैं न कि, उदरस्थ करना.परन्तु ऐसा ही समझाया जा रहा है और दूसरे विद्वजनों से अपार प्रशंसा भी प्राप्त की जा रही है. यही कारण है भारत क़े गारत होने का.


जैसे सरबाईना और सेरिडोन क़े विज्ञापनों में अमीन सायानी और हरीश भीमानी जोर लगते है अपने-अपने उत्पाद की बिक्री का वैसे ही उस समय जब इस्लाम क़े प्रचार में कहा गया कि हजरत सा: ने चाँद क़े दो टुकड़े  कर दिए तो जवाब आया कि, हमारे भी हनुमान ने मात्र ५ वर्ष की अवस्था में सूर्य को निगल लिया था अतः हमारा दृष्टिकोण श्रेष्ठ है. परन्तु दुःख और अफ़सोस की बात है कि, सच्चाई साफ़ करने क़े बजाये ढोंग को वैज्ञानिकता का जामा ओढाया जा रहा है.

यदि हम अपने देश  व समाज को पिछड़ेपन से निकाल कर ,अपने खोये हुए गौरव को पुनः पाना चाहते हैं,सोने की चिड़िया क़े नाम से पुकारे जाने वाले देश से गरीबी को मिटाना चाहते हैं,भूख और अशिक्षा को हटाना चाहते हैंतो हमें "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ को ठीक से समझना ,मानना और उस पर चलना होगा तभी हम अपने देश को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम"बना सकते हैं.आज की युवा पीढी ही इस कार्य को करने में सक्षम हो सकती है.अतः युवा -वर्ग का आह्वान है कि, वह सत्य-न्याय-नियम और नीति पर चलने का संकल्प ले और इसके विपरीत आचरण करने वालों को सामजिक उपेक्षा का सामना करने पर बाध्य कर दे तभी हम अपने भारत का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं.काश ऐसा हो सकेगा?हम ऐसी आशा तो संजो ही सकते हैं.
"ओ ३ म *नमः शिवाय च"कहने पर उसका मतलब यह होता है.:-
*अ +उ +म अर्थात आत्मा +परमात्मा +प्रकृति
च अर्थात तथा/ एवं / और
शिवाय -हितकारी,दुःख हारी ,सुख-स्वरूप
नमः नमस्ते या प्रणाम या वंदना या नमन 
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'शैव'व 'वैष्णव'दृष्टिकोण की बात कुछ विद्वान उठाते हैं तो कुछ प्रत्यक्ष पोंगापंथ का समर्थन करते हैं तो कुछ 'नास्तिक'अप्रत्यक्ष रूप से पोंगापंथ को ही पुष्ट करते हैं। सार यह कि 'सत्य 'को साधारण जन के सामने न आने देना ही इनका लक्ष्य होता है। सावन या श्रावण मास में सोमवार के दिन 'शिव'पर जल चढ़ाने के नाम पर, शिव रात्रि पर भी तांडव करना और साधारण जनता का उत्पीड़न करना इन पोंगापंथियों का गोरख धंधा है। 
'परिक्रमा'क्या थी ?:

वस्तुतः प्राचीन काल में जब छोटे छोटे नगर राज्य (CITY STATES) थे और वर्षा काल में साधारण जन 'कृषि कार्य'में व्यस्त होता था तब शासक की ओर से राज्य की सेना नगर राज्य के चारों ओर परिक्रमा (गश्त) किया करती थी और यह सम्पूर्ण वर्षा काल में चलने वाली निरंतर प्रक्रिया थी जिसका उद्देश्य दूसरे राज्य द्वारा अपने राज्य की व अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना था। कालांतर में जब छोटे राज्य समाप्त हो गए तब इस प्रक्रिया का औचित्य भी समाप्त हो गया। किन्तु ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों ने अपने व अपने पोषक व्यापारियों के हितों की रक्षार्थ धर्म की संज्ञा से सजा कर शिव के जलाभिषेक के नाम पर 'कांवड़िया'प्रथा का सूत्रपात किया जो आज भी अपना तांडव जारी रखे हुये है। अफसोस की बात यह है कि पोंगापंथ का पर्दाफाश करने के बजाए'नास्तिकवादी'विद्वान भी पोंगापंथ को ही बढ़ावा दे रहे हैं और सच्चाई का विरोध कर रहे हैं।

  ~विजय राजबली माथुर ©
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प्रतिवादों से अविचलित अमृतलाल नागर --- संजोग वाल्टर

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अमृतलाल नागर, 17 अगस्त, 1916 - 23 फ़रवरी, 1990)हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इन्होंने नाटक, रेडियो नाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हें साहित्य जगत में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई तदपि उनका हास्य-व्यंग्य लेखन कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
अमृतलाल नागर का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 ई. को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर 1895 ई. से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल 19 वर्ष के थे।
अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया।
अमृतलाल नागर ने एक छोटी सी नौकरी के बाद कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र 'चकल्लस'के सम्पादन का कार्य 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में किया इसके बाद बम्बई एवं मद्रास के फ़िल्म क्षेत्र में लेखन का कार्य किया। यह हिन्दी फ़िल्मों में डबिंग कार्य में अग्रणी थे। दिसम्बर, 1953 से मई, 1956 तक आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा, प्रोड्यूसर, उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र लेखन का कार्य किया।
नागर जी अपने व्यक्तित्व और सामाजिक अनुभवों की कसौटी पर विचारों को कसते रहते हैं और जितनी मात्रा में उन्हें ख़रा पाते हैं, उतनी ही मात्रा में ग्रहण करते हैं। चाहे उन पर देशी छाप हो या विदेशी, पुरानी छाप हो या नयी। उनकी कसौटी मूलभूत रूप से साधारण भारतीय जन की कसौटी है, जो सत्य को अस्थिर तर्कों के द्वारा नहीं, साधनालब्ध श्रद्धा के द्वारा पहचानती है। अन्धश्रद्धा को काटने के लिए वे तर्कों का प्रयोग अवश्य करते हैं, किन्तु तर्कों के कारण अनुभवों को नहीं झुठलाते, फलत: कभी-कभी पुराने और नये दोनों उन पर झुँझला उठते हैं। 'एकदा नैमिषारण्यें'में पुराणों और पौराणिक चरित्रों का समाजशास्त्रीय, अर्ध ऐतिहासिक स्वच्छन्द विश्लेषण या 'मानस का हंस'में युवा तुलसीदास के जीवन में 'मोहिनी प्रसंग'का संयोजन आदि पुराण पंथियों को अनुचित दुस्साहस लगता है, तो बाबा रामजीदास और तुलसी के आध्यात्मिक अनुभवों को श्रद्धा के साथ अंकित करना बहुतेरे नयों को नागवार और प्रगतिविरोधी प्रतीत होता है। नागर जी इन दोनों प्रकारों के प्रतिवादों से विचलित नहीं होते। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी एक साहित्यिक खाने में नहीं रखे जा सकते।
अमृतलाल नागर हिन्दी के गम्भीर कथाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसका अर्थ ही यह है कि वे विशिष्टता और रजकता दोनों तत्वों को अपनी कृतियों में समेटने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने न तो परम्परा को ही नकारा है, न आधुनिकता से मुँह मोड़ा है। उन्हें अपने समय की पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों का स्नेह समर्थन मिला और कभी-कभी दोनों का उपालंभ भी मिला है। आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास करते हुए भी वे समाजवादी हैं, किन्तु जैसे उनकी आध्यात्मिकता किसी सम्प्रदाय कठघरे में बन्दी नहीं है, वैसे ही उनका समाजवाद किसी राजनीतिक दल के पास बन्धक नहीं है। उनकी कल्पना के समाजवादी समाज में व्यक्ति और समाज दोनों का मुक्त स्वस्थ विकास समस्या को समझने और चित्रित करने के लिए उसे समाज के भीतर रखकर देखना ही नागर जी के अनुसार ठीक देखना है। इसीलिए बूँद (व्यक्ति) के साथ ही साथ वे समुद्र (समाज) को नहीं भूलते।
नागर जी की जगत के प्रति दृष्टि न अतिरेकवादी है, न हठाग्रही। एकांगदर्शी न होने के कारण वे उसकी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को देखते हैं। किन्तु बुराइयों से उठकर अच्छाइयों की ओर विफलता को भी वे मनुष्यत्व मानते हैं। जीवन की क्रूरता, कुरूपता, विफलता को भी वे अंकित करते चले हैं, किन्तु उसी को मानव नियति नहीं मानते। जिस प्रकार संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों और मृत धार्मिकता के ठेकेदारों से वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं, उसी प्रकार मूल्यों के विघटन, दिशाहीनता, अर्थहीनता आदि का नारा लगाकर निष्क्रियता और आत्महत्या तक का समर्थन करने वाली बौद्धिकता को भी नकारते रहे हैं। अपने लेखक-नायक अरविन्द शंकर के माध्यम से उन्होंने कहा है, जड़-चेतन, भय, विष-अमृत मय, अन्धकार-प्रकाशमय जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना ही होगा, कर्म करना ही होगा, यह बन्धन ही मेरी मुक्ति भी है। इस अन्धकार में ही प्रकाश पाने के लिए मुझे जीना है।[1] नागर जी आरोपित बुद्धि से काम नहीं करते, किसी दृष्टि या वाद को जस का तस नहीं लेते।
नागर जी किस्सागोई में माहिर हैं। यद्यपि गम्भीर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के कारण कहीं-कहीं उनके उपन्यासों में बहसों के दौरान तात्विक विवेचन के लम्बे-लम्बे प्रंसग भी आ जाते हैं। तथापि वे अपनी कृतियों को उपदेशात्मक या उबाऊ नहीं बनने देते। रोचक कथाओं और ठोस चरित्रों की भूमिका से ही विचारों के आकाश की ओर भरी गयी इन उड़ानों को साधारण पाठक भी झेल लेते हैं। उनके साहित्य का लक्ष्य भी साधारण नागरिक है, अपने को असाधारण मानने वाला साहित्यकार या बुद्धिजीवी समीक्षक नहीं। समाज में ख़ूब घुल-मिलकर अपने देखे-सुने और अनुभव किये चरित्रों, प्रसंगों को तनिक कल्पना के पुट से वे अपने कथा साहित्य में ढालते रहे हैं। अपनी आरम्भिक कहानियों में उन्होंने कहीं-कहीं स्वछन्दतावादी भावुकता की झलक दी है। किन्तु उनका जीवन बोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों वे अपने भावातिरेक को संयत और कल्पना को यथार्थाश्रित करते चले गये। अपने पहले अप्रौढ़ उपन्यास महाकाल में सामाजिक यथार्थ के जिस स्वच्छ बोध का परिचय उन्होंने दिया था, निहित स्वार्थ के विविध रूपों को साम्राज्यवादी उत्पीड़न, ज़मींदारों, व्यापारियों द्वारा साधारण जनता के शोषण, साम्प्रदायिकतावादियों के हथकंडों आदि को बेनकाब करने का जो साहस दिखाया था, वह परवर्त्ती उपन्यासों में कलात्मक संयम के साथ-साथ उत्तरोत्तर निखरता चला गया।
'बूँद और समुद्र'तथा 'अमृत और विष'जैसे वर्तमान जीवन पर लिखित उपन्यासों में ही नहीं, 'एकदा नैमिषारण्ये'तथा 'मानस का हंस'जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक पीठिका पर रचित सांस्कृतिक उपन्यासों में भी उत्पीड़कों का पर्दाफ़ाश करने और उत्पीड़ितों का साथ देने का अपना व्रत उन्होंने बखूबी निभाया है।अतीत को वर्तमान से जोड़ने और प्रेरणा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत करने के संकल्प के कारण ही 'एकदा नैमिषारण्ये'में पुराणकारों के कथा-सूत्र को भारत की एकात्मकता के लिए किये गये महान सांस्कृतिक प्रयास के रूप में, तथा 'मानस का हंस'में तुलसी की जीवन कथा को आसक्तियों और प्रलोभनों के संघातों के कारण डगमगा कर अडिग हो जाने वाली 'आस्था के संघर्ष की कथा'एवं उत्पीड़ित लोकजीवन को संजीवनी प्रदान करने वाली 'भक्तिधारा के प्रवाह की कथा'के रूप में प्रभावशाली ढंग से अंकित किया है।
सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए व्यक्ति के अंतर्मन में कामवृत्ति के घात प्रतिघात का चित्रण भी उन्होंने विश्वसनीय रूप से किया है। काम को इच्छाशक्ति गीत और सृजन के प्रेरक के रूप में ग्रहण करने के कारण वे उसे बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। काम अपने आधारों (व्यक्तियों) के सत, रज, तम के अंशों की न्यूनाधिकता के कारण सहस्रों रूप धारण कर सकता है। अपने निकृष्ट रूप में वह बलात्कार या इन्द्रिय भोग मात्र बनकर रह जाता है तो अपने उत्कृष्ट रूप में प्रेम की संज्ञा पाता है। नागर जी ने कंठारहित होकर किन्तु उत्तरदायित्व के बोध के साथ काम कि विकृत (विरहेश और बड़ी, लच्छू और उमा माथुर, लवसूल और जुआना आदि), स्वरूप (सज्जन और वनकन्या, रमेश और रानीवाला आदि) और दिव्य (सोमाहुति और हज्या, तुलसी और रत्नावली) एवं इनके अनेकानेक मिश्रित रूपों की छवियाँ अपनी कृतियों में आँकी हैं। पीड़िता नारी के प्रति उनकी सदा सहानुभूति रही है, चाहे वह कन्नगी के सदृश एकनिष्ठ हो, चाहे माधवी के सदृश वेश्या। स्वार्थी पुरुष की भोग-वासना ही नारी को वेश्या बनाती है। अत: पुरुष होने के कारण उनके प्रति नागर जी अपने मन में अपराध बोध का अनुभव करते हैं। जिसका आंशिक परिमार्जन उन्होंने सदभावना पूर्ण भेंटवार्ताओं पर आधारित ये कोठेवालियाँ जैसी तथ्यपूर्ण कृति के द्वारा किया है।
नागर जी की ज़िन्दादिली और विनोदी वृत्ति उनकी कृतियों को कभी विषादपूर्ण नहीं बनने देती। 'नवाबी मसनद'और 'सेठ बाँकेमल'में हास्य व्यंग्य की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह अनन्त धारा के रूप में उनके गम्भीर उपन्यासों में भी विद्यमान है और विभिन्न चरित्रों एवं स्थितियों में बीच-बीच में प्रकट होकर पाठक को उल्लासित करती रहती है। नागर जी के चरित्र समाज के विभिन्न वर्गों से गृहीत हैं। उनमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के लोग हैं, किन्तु उनके चरित्र-चित्रण में मनोविश्लेषणात्मकता को कम और घटनाओं के मध्य उनके व्यवहार को अधिक महत्त्व दिया गया है। अनेकानेक एकायामी सफल विश्वसनीय चरित्रों के साथ-साथ उन्होंने बूँद और समुद्र की 'ताई'जैसे जटिल चरित्रों की सृष्टि की है, जो घृणा और करुणा, विद्वेष और वात्सल्य, प्रतिहिंसा और उत्सर्ग की विलक्षण समष्टि है।
कई समीक्षकों की शिकायत रही है कि नागर जी अपने उपन्यासों में 'संग्रहवृत्ति'से काम लेते हैं, 'चयनवृत्ति'से नहीं। इसीलिए उनमें अनपेक्षित विस्तार हो जाता है। वस्तुत: नागर जी के बड़े उपन्यासों में समग्र सामाजिक जीवन को झलकाने की दृष्टि प्रघतन है। अत: थोड़े से चरित्रों पर आधारित सुबद्ध कथानक पद्धति के स्थान पर वे शिथिल सम्बन्धों से जुड़ी और एक-दूसरे की पूरक लगने वाली कथाओं के माध्यम से यथासम्भव पूरे सामाजिक परिदृश्य को उभारने की चेष्टा करते हैं। महाभारत एवं पुराणों के अनुशीलन ने उन्हें इस पद्धति की ओर प्रेरित किया है। शिल्प पर अनावश्यक बल देने को वे उचित नहीं मानते। उनका कहना है कि फ़ॉर्म के लिए मैं परेशान नहीं होता, बात जब भीतर-भीतर पकने लगती है तो वह अपना फ़ॉर्म खुद अपने साथ लाती है। मैं सरलता को लेखक के लिए अनिवार्य गुण मानता हूँ। जटिलता, कुत्रिमता, दाँव-पेंच से लेखक महान नहीं बन सकता। इसीलिए केवल 'फ़ॉर्म'के पीछे दौड़ने वाले लेखक को मैं टुटपँजिया समझता हूँ।
भाषा के क्षेत्रीय प्रयोगों को विविध वर्गों में प्रयुक्त भिन्नताओं के साथ ज्यों का त्यों उतार देने में नागर जी को कमाल हासिल है। बोलचाल की सहज, चटुल, चंचल भाषा गम्भीर दार्शनिक सामाजिक प्रसंगों की गुरुता एवं अंतरंग प्रणय प्रसंगों की कोमलता का निर्वाह करने के लिए किस प्रकार बदल जाती है, इसे देखते ही बनता है। सचमुच भाषा पर नागर जी का असाधारण अधिकार है। नागर जी शिल्प के प्रति उदासीन हैं। अपने पुराने शिल्प से आगे बढ़ने की चेष्टा बराबर करते रहे हैं। 'बूँद और समुद्र'में पौराणिक शिल्प के अभिनव प्रयोग के अनन्तर 'अमृत और विष'में अपने पात्रों की दुहरी सत्ताओं के आधार पर दो-दो कथाओं को साथ-साथ चलाना, 'मानस का हंस'में फ़्लैश बैक के दृश्य रूप का व्यापक प्रयोग करना उनकी शिल्प सजगता के उदाहरण हैं। फिर भी यह सत्य है कि उनके लिए कथ्य ही मुख्य है शिल्प नहीं।
नागर जी को 'बूँद'और 'समुद्र'पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बटुक प्रसाद पुरस्कार एवं सुधाकर रचत पदक, 'सुहाग के नूपुर'पर उत्तर प्रदेश शासन का 'प्रेमचन्द पुरस्कार', 'अमृत और विष'पर साहित्य अकादमी का 1967 का पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1970 तथा साहित्यिक सेवाओं पर युगान्तर का 1972 का पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
अमृतलाल नागर जी का निधन सन् 23 फ़रवरी, 1990 ई. में हुआ था। नागर जी की कृतियों ने हिन्दी साहित्य की गरिमा बढ़ायी है। नागर जी के तीन रंगमंचीय नाटक एवं 25 से अधिक रेडियो फ़ीचर और बहुत से निबन्ध हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।
नागर जी की हवेली लखनऊ के चौक में मिर्ज़ा टोला है जहाँ उनके परिजन रहते हैं ,श्री लालजी टंडन ने नगर विकास मंत्री के तौर ओ पर नागर जी के नाम पर प्रेक्षाग्रह के साथ एक बाज़ार लखनऊ वासियों को समर्पित किया था

प्रमुख कृतियाँ :

अमृतलाल नागर ने 1928 में छिटपुट एवं 1932 से 1933 से जमकर लिखना शुरू किया। इनकी प्रारम्भिक कविताएँ मेघराज इन्द्र के नाम से, कहानियाँ अपने नाम से तथा व्यंग्यपूर्ण रेखाचित्र-निबन्ध आदि तस्लीम लखनवी के नाम से लिखित हैं। यह कथाकार के रूप में सुप्रतिष्ठित थे। यह 'बूँद और समुद्र' (1956) के प्रकाशन के साथ हिन्दी के प्रथम श्रेणी के उपन्यासकारों के रूप में मान्य हैं।


साभार :
https://www.facebook.com/359121077501161/photos/a.493970777349523.1073741825.359121077501161/504111596335441/?type=1 
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अमृतलाल नागर के ‘ मानस का हंस ‘ के अनुसार मानस की रचना के दौरान तुलसी अयोध्या भी रहे । कैसे रहे ? खुद तुलसी के शब्दों में ‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है
http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/08/03/banarastulsi-ghatshambhoo-mallah/
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आज प्रातः 11 बजे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हज़रत गंज, लखनऊ में 'अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी समारोह'का प्रारम्भ दीप प्रज्वलन,माल्यार्पण और  सरस्वती वंदना से हुआ। मंचस्थ अतिथियों  डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय , बंधु कुशावर्ती,डॉ दीप्ति गुप्ता,नासिरा शर्मा,डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित,डॉ अचला नगर ,बेकल उत्साही,उदय प्रताप सिंह का अंग वस्त्र प्रदान कर संस्थान के निदेशक डॉ सुधाकर अदीब ने स्वागत किया। गोष्ठी की अध्यक्षता संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह जी ने तथा  कुशल संचालन डॉ अमिता दुबे जी ने किया। सर्व प्रथम लखनऊ दूर दर्शन द्वारा पूर्व प्रसारित एक वृत्त -चित्र भी नागर जी पर दिखाया गया। 
विद्वत जनों ने नागर जी के कहानी,उपन्यास,नाटक,रेडियो नाटक,फिल्मी पट कथा आदि विविध लेखन पर विस्तृत व विशिष्ट प्रकाश डाला। नासिरा शर्मा जी ने श्रोताओं से नागर जी की कहानी 'शकीरा की माँ'पढ़ने का विशेष आग्रह किया। उदय प्रताप जी ने अपने संस्मरण सुनाते हुये अतिथियों व श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया। 
भोजनोपरांत दिवतीय सत्र का संचालन भी डॉ अमिता दुबे जी ने किया  व अध्यक्षता उदय प्रताप जी ने । प्रारम्भ में नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर जी अपने पिताजी के व्यक्तिगत संस्मरण याद करते हुये कुछ उन पत्रों को भी पढ़ कर सुनाया  जिनको बचपन में उनके पिताजी ने उनको लिखा था। उनके बाद उनकी भाभीजी - विभा नगर जी ने भी नागर जी के व्यक्तिगत संस्मरणों की चर्चा की। नागर जी के पौत्र पारिजात अत्यंत भावुक हो जाने के कारण स्वम्य न बोल सके किन्तु हिन्दी संस्थान को आयोजन के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया। अचला जी के पुत्र सन्दीपन विमलकान्त नागर ने अपने नानाजी के संस्मरण सुनाते हुये उनको नई पीढ़ी का प्रेरणादायक बताया और उनके प्रति मुलायम सिंह जी के आदर भाव का वर्णन करना भी वह न भूले तथा उदय प्रताप जी को इस आयोजन की प्रेरणा देने के लिए उन्होने कृत्यज्ञता व्यक्त की। नागर जी की पौत्री डॉ दीक्षा नागर ने बचपन से उनके साथ के संस्मरणों को बताते हुये यह दुख भी व्यक्त किया कि इस अवसर पर उनके ताऊजी(कुमुद नागर),ताई जी व उनके पिता डॉ शरद नागर जी नहीं हैं (वे पहले ही दिवंगत हो चुके हैं)। लेकिन डॉ दीक्षा ने कहा कि अमृतलाल नागर जी सिर्फ अपने निजी परिवार के ही नहीं थे। उनका परिवार विस्तृत था सारे समाज को ही वह अपना परिवार मानते थे।इस संबंध में उन्होने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया कि एक बार नागर जी चौक में पान खाने निकले थे वह नौ वर्षीय बालिका थीं और उनके साथ थीं। वह एक चने वाले के पास रुक गए जिसका उनको अचरज हुआ फिर नागर जी ने उनको 'शंकर'कह कर संबोधित किया जिसके जवाब में उन्होने नागर जी को 'अमृत'का सम्बोधन दिया जिससे उनको और भी आश्चर्य हुआ। परंतु बाद में पता चला कि वह उनके सहपाठी थे। नागर जी मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं मानते थे।   मोहन स्वरूप भाटिया जी व सोम ठाकुर साहब ने भी अपने संस्मरणों से श्रोताओं को अवगत कराया। 
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 मेरे बाबूजी (स्व. ताजराज बली माथुर ) लखनऊ के  कालीचरण हाईस्कूल  में जब  पढ़ते थे तब खेल  - कूद में सक्रिय थे। टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन  की ओर से  पंडित अमृत लाल नागर जी  खेलते थे तब   बाबूजी  तत्कालीन छात्र की हैसियत से उनके साथ खेलते  थे ।  पत्रकार राम पाल सिंह जी ( जो नवभारत टाईम्स , भोपाल के संपादक रहे )  भी बाबूजी के खेल के साथी थे। का.भीखा  लाल जी  तो बाबूजी के रूममेट  और सहपाठी थे  जो जब तहसीलदार बने   तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया। इन तीनों का ज़िक्र अपने बाबूजी से बचपन से सुनता रहा हूँ। बाबू जी के खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी के जन्म शताब्दी समारोह का अवलोकन करने पर अपने को भाग्यशाली समझता हूँ।
(विजय राज बली माथुर )

वामपंथ फासिस्ट साजिश में उलझ कर पराजय पथ पर ----- विजय राजबली माथुर

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राज्यसभा में 'रेखा'और 'सचिन तेंदुलकर'ये दो ऐसे  सदस्य हैं जिनको मनमोहन सरकार ने अप्रैल 2012 में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी से मनोनीत करवाया था। मोदी ने सफाई नवरत्नों में तेंदुलकर को शामिल किया था अब 'पेटा'के जरिये रेखा को अपने साथ नामित करवाया है ये सारी कोशिशें इन दोनों सांसदों का दिल जीत कर अपनी सरकार के समर्थन में खड़ा करने के लिए हैं। तेंदुलकर को ज़मीन का भी लाभ दिलाने की कोशिश इसी योजना का ही हिस्सा है। 




 सिर्फ सिन्धी होने के कारण ही आडवाणी ने हिरानी की फिल्म का समर्थन नहीं किया है बल्कि आमिर खान और मोदी की घनिष्ठता के कारण भी यह समर्थन आया है। फासिज़्म को मजबूत करने के लिए विपक्ष को समाप्त करना है उस दिशा में दो गुट बनाए गए हैं । एक गुट एक बात उठाता है दूसरा गुट उसका विरोध करता है। हिंदूमहासभा के बेनर पर गोडसे की मूर्ती लगाने की तैयारी और भाजपा के बेनर पर उसका विरोध। साधारण जनता व फासिस्ट विरोधी दलों को इस साजिश को समझते हुये ही अपनी नीतियाँ बनानी व अमल करना चाहिए। आमिर खान द्वारा मोदी के समर्थन से फिल्म बना कर जो विवाद उत्पन्न किया गया है उसका पूरा-पूरा लाभ केंद्र की फासिस्ट सरकार को ही मिलेगा। यह ध्यान में रख कर ही कदम उठाने चाहिए। आडवाणी का वक्तव्य आँखें खोलने के लिए काफी होना चाहिए।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=808278565900788&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=1&theater


 मेरे उपरोक्त निष्कर्ष से सहमति व्यक्त करने वाले फिल्म निर्माता व समीक्षक सत्यप्रकाश गुप्ता जी ने खुद एक तथ्यात्मक सत्य - विश्लेषण प्रस्तुत किया है :

 https://www.facebook.com/groups/231887883638484/permalink/365350976958840/

 मोदी की यह सरकार एमर्जेंसी के दौरान गिरफ्तार मधुकर दत्तात्रेय देवरस और इन्दिरा गांधी के मध्य हुये गुप्त समझौते की ही परिणति है जिसके तहत RSS ने 1980 व 1984 के लोकसभा चुनावों में इन्दिरा कांग्रेस का समर्थन करके अपनी घुसपैठ बनाई थी।2011 से चले हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन को RSS/मनमोहन सिंह व देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का पूर्ण समर्थन था और उसी अनुरूप सौ से अधिक कांग्रेसियों ने भाजपा सांसद बन कर मोदी को स्पष्ट बहुमत प्रदान कर दिया। अब राज्यसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में समर्थन जुटाने की कवायद चल रही है और सफलता मिलते ही वर्तमान संविधान को ध्वस्त करके RSS की अर्द्ध-सैनिक तानाशाही को  संवैधानिक संरक्षण द्वारा स्थापित कर दिया जाएगा। साम्यवादी/वामपंथी विद्वान व नेता गण थोथी नास्तिकता या एथीस्टवाद में फंस कर ढोंग-पाखंड-आडंबर को मजबूत करते जा रहे हैं और अंततः फासिस्टों को सफलता दिलाते जाकर खुद को नष्ट करने की प्रक्रिया पर चल रहे हैं। तामिलनाडु में होने वाले वर्ष 2016 के चुनावों के लिए मोदी द्वारा रेखा को अपने पाले में खींचने का अभियान शुरू हो चुका है जिनका 29 जून 2017 तक का समय राजनीतिक रूप से उज्ज्वल है। क्यों नही तामिलनाडु से भाकपा के राज्यसभा सांसद कामरेड डी राजा साहब रेखा को वामपंथी खेमे में लाने का प्रयास करते ? क्योंकि एथीज़्म में ज्योतिष का कोई महत्व नहीं है भले ही फासिस्ट मोदी सरकार उनका लाभ उठा ले जाये। यदि रेखा को वामपंथी मोर्चे का नेता बना कर तामिलनाडु विधानसभा का चुनाव लड़ा जाये तो वहाँ यह मोर्चा सफलता प्राप्त कर सकता है। यदि फ़ासिज़्म को उखाड़ना है तो अभी से ही जुटना होगा और फ़ासिज़्म की चालों का शिकार बनने से बचना होगा। वामपंथी नेता गण बाजपेयी,केजरीवाल, pk फिल्म का समर्थन करके अपना जनाधार फासिस्टों को क्यों सौंपते जा रहे हैं? यह दुखद एवं सोचनीय विषय है। मनमोहन सिंह के फेर में फंस कर सोनिया कांग्रेस तो रेखा अथवा ममता बनर्जी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने से वंचित हो गई किन्तु वामपंथ के सामने 2016 के  तामिलनाडु विधानसभा चुनाव रेखा के नेतृत्व में लड़ने के प्रयास तो अभी से किए ही जा सकते हैं जिससे कि दक्षिण में मोदी के कदमों को थामा जा सके।

http://krantiswar.blogspot.in/2014/02/blog-post_11.html
  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

मकर -संक्रांति का महत्त्व --- विजय राजबली माथुर

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http://www.janadesh.in/InnerPage.aspx?Story_ID=6683


प्रति-वर्ष १४ जनवरी को मकर संक्रांति का पर्व श्रद्धा एवं उल्लास क़े साथ मनाया जाता रहा है.परंतु अब पृथ्वी व सूर्य की गतियों में आए अंतर के कारण सूर्य का मकर राशि में प्रवेश सांयकाल या उसके बाद होने के कारण प्रातः कालीन पर्व अगले दिन अर्थात १५ जनवरी को मनाए जाने चाहिए.अतः स्नान-दान,हवन आदि प्रक्रियाएं १५ ता.की प्रातः ही होनी चाहिए.परन्तु लकीर क़े फ़कीर लोग १४ जन.की प्रातः ही यह सब पुण्य कार्य सम्पन्न कर लेंगे.हाँ यदि १४ ता. की रात्रि में कहीं कोई कार्य होने हों तो करना ठीक है.जो लोग १४ ता. की प्रातः मकर संक्रांति मनायें वे ध्यान रखें कि,वे ऐसा धनु क़े सूर्य रहते ही कर रहे हैं,क्या यह वैज्ञानिक दृष्टि से उचित रहेगा?.मकर संक्रांति क़े  दिन से सूर्य उत्तरायण होना प्रारम्भ होता है.सूर्य लगभग ३० दिन एक राशि में रहता है.१६ जूलाई को कर्क राशि में आकर सिंह ,कन्या,तुला,वृश्चिक और धनु राशि में छै माह रहता है.इस अवस्था को दक्षिणायन कहते हैं.इस काल में सूर्य कुछ निस्तेज तथा चंद्रमा प्रभावशाली रहता है और औषधियों एवं अन्न की उत्पत्ति में सहायक रहता है.१४ जनवरी को मकर राशि में आकर कुम्भ,मीन ,मेष ,वृष और मिथुन में छै माह रहता है.यह अवस्था उत्तरायण कहलाती है.इस काल में सूर्य की रश्मियाँ तेज हो जाती हैं और रबी की फसल को पकाने का कार्य करती हैं.उत्तरायण -काल में सूर्य क़े तेज से जलाशयों ,नदियों और समुन्द्रों का जल वाष्प रूप में अंतरिक्ष में चला जाता है और दक्षिणायन काल में यही वाष्प-कण पुनः धरती पर वर्षा क़े रूप में बरसते हैं.यह क्रम अनवरत चलता रहता है.दक्षिण भारत में पोंगल तथा पंजाब में लोहिणी,उ.प्र.,बिहारऔर बंगाल में खिचडी क़े रूप में मकर संक्रांति का पर्व धूम-धाम से सम्पन्न होता है.इस अवसर पर छिलकों वाली उर्द की दाल तथा चावल की खिचडी पका कर खाने तथा दान देने का विशेष महत्त्व है.इस दिन तिल और गुड क़े बने पदार्थ भी दान किये जाते हैं.क्योंकि,अब सूर्य की रश्मियाँ तीव्र होने लगतीं हैं;अतः शरीर में पाचक अग्नि उदीप्त करती हैं तथा उर्द की दाल क़े रूप में प्रोटीन व चावल क़े रूप में कार्बोहाईड्रेट जैसे पोषक तत्वों को शीघ्र घुलनशील कर देती हैं,इसी लिये इस पर्व पर खिचडी  खाने व दान करने का महत्त्व निर्धारित किया गया है.गुड रक्तशोधन का कार्य करता है तथा तिल शरीर में वसा की आपूर्ति करता है,इस कारण गुड व तिल क़े बने पदार्थों को भी खाने तथा दान देने का महत्त्व रखा गया है.

जैसा कि अक्सर हमारे ऋषियों ने वैज्ञानिक आधार पर निर्धारित पर्वों को धार्मिकता का जामा पहना दिया है,मकर-संक्रांति को भी धर्म-ग्रंथों में विशेष महत्त्व दिया गया है.शिव रहस्य ग्रन्थ,ब्रह्म पुराण,पद्म पुराण आदि में मकर संक्रांति पर तिल दान करने पर जोर दिया गया है.हमारा देश कृषि-प्रधान रहा है और फसलों क़े पकने पर क्वार में दीपावली तथा चैत्र में होली पर्व मनाये जाते हैं.मकर संक्रांति क़े अवसर पर गेहूं ,गन्ना,सरसों आदि की फसलों को लहलहाता देख कर तिल,चावल,गुड,मूंगफली आदि का उपयोग व दान करने का विधान रखा गया है,जिनके सेवन से प्रोटीन,वसा,ऊर्जा तथा उष्णता प्राप्त होती है."सर्वे भवन्तु सुखिनः"क़े अनुगामी हम इन्हीं वस्तुओं का दान करके पुण्य प्राप्त करते हैं.

दान देने का विधान बनाने का मूल उद्देश्य यह था कि,जो साधन-विहीन हैं और आवश्यक पदार्थों का उपभोग करने में अक्षम हैं उन्हें भी स्वास्थ्यवर्धक  पदार्थ मिल सकें.यह एक दिन का दान नहीं बल्कि इस ऋतु-भर का दान था.लेकिन आज लोग साधन-सम्पन्न कर्मकांडियों को एक दिन दान देकर अपनी पीठ थपथपाने लगते हैं.जबकि,वास्तविक गरीब लोग वंचित और उपेक्षित  ही रह जाते हैं.इसलिए आज का दान ढोंग-पाखण्ड से अधिक कुछ नहीं है जो कि, ऋषियों द्वारा स्थापित विधान क़े उद्देश्यों को पूरा ही नहीं करता.क्या फिर से प्राचीन अवधारणा को स्थापित नहीं किया जा सकता ?
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मूल रूप से यह लेख १३ जनवरी २०११ को पहली बार ब्लाग में प्रकाशित हुआ था।


(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

सरस्वती की पूजा क्यों ---ध्रुव गुप्त /ज्ञान-विज्ञान की आराधना का पर्व ---विजय राजबली माथुर

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 देवी सरस्वती की पूजा क्यों करते हैं हम ?:

प्राचीन काल में आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत था। आज की विलुप्त सरस्वती तब वर्तमान जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पाकिस्तान के पूर्वी भाग, राजस्थान और गुजरात की मुख्य नदी हुआ करती थी। तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर और व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के किनारे बसे थे। तमाम ऋषियों और आचार्यों के आश्रम सरस्वती के तट पर स्थित थे। ये आश्रम अध्यात्म, धर्म, संगीत और विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और ज्यादातर स्मृति-ग्रंथों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी का दर्ज़ा प्राप्त था। ऋग्वेद में इसी रूप में इस नदी के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। कई हजार साल पहले सरस्वती में आई प्रलयंकर बाढ़ के बाद अधिकांश नगर और आश्रम गंगा और जमुना के किनारों पर स्थानांतरित तो हो गए, लेकिन जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं। इतिहास के गुप्त-काल में रचे गए पुराणों में उसे देवी का दर्जा दिया गया। उसके बाद अन्य देवी देवताओं के साथ सरस्वती की पूजा और आराधना भी आरम्भ हो गई। सरस्वती की पूजा वस्तुतः आर्य सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत और धर्म-अध्यात्म के कई क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।

सभी मित्रों को सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=799460450130555&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=1&theater
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ध्रुव गुप्त जी के आर्ष विचार पढ़ कर एक बार फिर से इस पुराने लेख को सार्वजनिक कर रहा हूँ :

Tuesday, February 8, 2011

वीर -भोग्या वसुंधरा


http://krantiswar.blogspot.in/2011/02/blog-post_08.html
 आज वसंत पंचमी है-सरस्वती पूजा.सुनिये एक छोटी स्तुति-



सरस्वती परमात्मा क़े उस स्वरूप को कहते हैं जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान  ,बुद्धि,विवेक  को अर्जित करते हैं.जिस प्रकार किसी संस्था या संगठन की स्थापना से पूर्व उसके लिये नियम-विधान बनाये जाते हैं.उसी प्रकार परमात्मा ने सृष्टि क़े सृजन से पूर्व मनुष्यों द्वारा पालन करने हेतु नियमों की संरचना वेदों क़े रूप में की.मनुष्य है ही मनुष्य इसलिए कि,उसमें मनन करने की क्षमता है,अन्य किसी भी प्राणी को परमात्मा ने यह योग्यता नहीं दी है.पूर्व-सृष्टि की मोक्ष -प्राप्त आत्माओं को परमात्मा ने अंगिरा आदि ऋषियों क़े रूप में वेद-ज्ञान प्रदान करने हेतु प्रथ्वी पर अवतरित किया.परमात्मा स्वंय अवतार नहीं लेता है न ही नस और नाडी क़े बंधन में बंधता है जैसा कि,पोंगा-पंथियों ने प्रचारित कर रखा है.,ढोंगियों-पाखंडियों ने वेद-विपरीत अपने निहित स्वार्थ में गलत पूजा पद्धतियाँ विकसित कर ली हैं.आज आम जनता उन्हीं दुश्चक्रों में फंस कर अपना अहित करती जाती और दुखी होती रहती है.आज ज्ञान-विज्ञान क़े देवता सरस्वती की पूजा क़े अवसर पर एक बार फिर सबको पाखण्ड से बचने हेतु प्रेरित करने का छोटा सा प्रयास इस लेख क़े माध्यम से कर रहा हूँ.

देवता वह है जो देता है और बदले में लेता नहीं है,जैसे-वृक्ष  ,नदी,वायु,बादल(मेघ),अग्नि,भूमि,अंतरिछ आदि.अतः जो लोग इनसे अलग देवता की कल्पना कर पूजते हैं ,निश्चय ही वेद-विपरीत आचरण करते हैं जो परमात्मा क़े निर्देशों का खुला उल्लंघन नहीं तो और क्या है?.फिर कष्ट भोगने पर परमात्मा को कोसते है और अपनी गलती को सुधारते नहीं.क्योंकि ढोंगी-पाखंडी सुधार होने नहीं देना चाहते.दोषी कौन?

आज कल एक रिवाज़ चल रहा है वैज्ञानिक धर्म को अवैज्ञानिक बताने का.आज क़े तथा-कथित वैज्ञानिक सुनियोजित तरीके से प्रचार करते हैं कि,धर्म-ज्योतिष आदि अवैज्ञानिक ,ढोंग एवं टोटका हैं.अज्ञान की इंतिहा इस से ज्यादा क्या होगी?जो वास्तव में अविज्ञान है,टोटका और टोना,ढोंग तथा पाखण्ड है उसे तो पूजा जाता है और ऐसा वे तथा-कथित साईंस्दा ही ज्यादा करते हैं.बनारस जो धर्म-नगरी समझा जाता है वहीं से सम्बंधित लोग ऐसा करने में अग्रणी हैं.यह कोई आज नयी बात नहीं है.बनारस क़े ही तथा कथित विद्वानों ने जो उस समय क़े शासकों क़े अनुगामी थे पहले तो गोस्वामी तुलसी दास जी क़े लिखित ग्रन्थ को जलाना  शुरू किया और जब उन्होंने बनारस शहर छोड़ कर अवधी में 'राम चरित मानस'की रचना करके जनता का आव्हान शासन व्यवस्था को उलट देने का किया तो कुचक्र चला कर मानस को पूज्य बना दिया गयाऔर राम को अवतार ,भगवान् आदि घोषित कर दिया गयाजिससे आम जनता उनके चरित्र  का आचरण न करने की सोचे तथा पंगु ही बनी रहे और शासकों की लूट बरकरार रहे.राम ने साम्राज्यवादी रावण का संहार करके भारतीय राष्ट्रवाद की रक्षा की थी. अब आप उन्हें भगवान् का अवतार मानें तब आप वैसा ही कैसे कर सकते हैं और नहीं कर भी रहे हैं.तब लुटते  रहियेफिर क्यों रोते हैं हमारा धन स्विस बैकों में क्यों पहुंचा ? हम गण-तन्त्र में भी औपनैवेशिक बस्ती  जैसे क्यों हैं ?बनारस क़े करमकांडी वर्ग  ने गंगा क़े घाटों पर बड़े -बड़े आरे लगा रखे थे और स्वर्ग जाने क़े इच्छुक लोगों से मोटी दान -दक्षिणा लेकर उन्हें ढलान क़े रास्ते भेज देते थे.बेवकूफ स्वर्ग लालची उन आरों से कट कर गंगा में बह जाता था उसके परिवार जन जश्न मना कर उन तोदुओं का पेट और भरते थे. यह था गुलाम भारत में बनारस का विज्ञान.वहां क़े तीस मारखा विज्ञानी ब्लॉगर  आज फिर दहाड़ रहे हैं उन क़े मंतव्य को समझने और अपनी रक्षा करने की महती आवश्यकता है.
मारा भारतीय वैदिक-विज्ञान हमें बताता है कि,हम जिस पृथ्वी क़े वासी हैं वह अपनी धुरी पर एक लाख ग्यारह हजार छै सौ कि.मी.प्रति घंटे की गति से घुमते हुए अपने से १३ लाख गुना बड़े और नौ करोड़ ३० लाख मील की दूरी पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रही है.सब ग्रहों का परिवार एक सौर परिवार है और एक अरब सौर परिवारों क़े समूह को एक नीहारिका कहते हैं और ऐसी १५०० निहारिकायें वैज्ञानिक साधनों द्वारा देखी गई हैं.एक आकाश गंगा में २०० अरब तारे हैं और अरबों आकाश गंगाएं विद्यमान हैं.एक आकाश गंगा का प्रकाश प्रथ्वी पर आने में १० अरब वर्ष लग जाते हैं.प्रकाश की गति ३ लाख कि.मी.प्रति सेकिंड है.अर्थात जब से यह पृथ्वी बनी है तब से कुछ नक्षत्रों का प्रकाश प्रथ्वी पर अभी नहीं पहुंचा है.इतने विशाल ब्रहमांड क़े रचियता की व्यवस्था में ग्रह-उपग्रह ,नक्षत्र आदि अपने स्थान (आर्बिट)पर सक्रिय हैं एक दूसरे से दूरी बनाये रख कर गतिशील हैं और आपस में नहीं टकरा रहे हैं.सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ३६० डिग्री में फैला है.सूर्य जिस पर निरन्तर हीलियम और हाईड्रोजन क़े विस्फोट हो रहे हैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परिभ्रमण ३० -३० डिग्री  क़े हिसाब से कर रहा है ,इस प्रकार १२ राशियाँ हैं और २७ नक्षत्र हैं २८ वें अभिजित को गणना लायक न होने क़े कारण नहीं गिनते हैं.प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं .सूर्य छै माह उत्तरायण तथा छै माह द्क्शिनायन रहता है.सूर्य की ६० कलाएं हैं.
३६०*६० =२१६०० /उत्तरायण/दक्षिणायन २१६००/२ =१०८००  और बाद क़े शून्य की गणना नहीं होने क़े कारण १०८ मान बना इसी को माला में मनके क़े रूप मेंरखा और विधान बना दिया कि १०८ बार जाप करने से वह एक माला या माने ब्रह्माण्ड का एक चक्र पूर्ण हुआ. यह है हमारा वैदिक विज्ञान,जिसे पाश्चात्य क़े पिट्ठू गररियों  क़े गीत बताते हैं.मैक्स मूलर सा :जर्मनी क़े विद्वान भारत आ कर ३० वर्ष रह कर संस्कृत सीखते हैं और यहाँ से संस्कृत की मूल पांडू लिपियें ले कर चले जाते हैं और जर्मनी में उसके आधार पर रिसर्च होती है तथा वह पश्चिम का विज्ञान कहलाती है.जर्मन वैज्ञानिकों को रूस तथा अमेरिका ले जा कर (हिटलर की पराजय क़े बाद)अणु(एटम )बम्ब का अविष्कार होता है और  वह पश्चिम की खोज बन जाती है ,है न हम भारतीयों का कमाल?हमारे बनारसी साईंस ब्लागर्स हमारे ज्योतिष विज्ञान को अवैज्ञानिक बताने का दुह्साहस कर डालते हैं क्योंकि वे आज भी दासत्व -भाव में जी रहे हैं.
अथर्व वेद १० /३ /३१ में कहा है 'अष्टचक्रा नवद्वारा देव पूरयोध्या 'अर्थात यह शरीर देवताओं की ऐसी नगरी है कि उसमें दो आँखें,दो कान,दो नासिका द्वार एक मुंह तथा दो द्वार मल-मूत्र विसर्ज्नार्थ हैं.ये कुल नौ द्वार अर्थात दरवाजे हैं जिस अयोध्या नगर में रहता हुआ जीवात्मा अर्थात पुरुष कर्म करता और उनके फल भोगता है.द्वारों क़े सन्दर्भ में ही इस शरीर को द्वारिकापुरी भी कहा जाता है.आप आज क्या कर रहे है ?जिस अयोध्या को राम जन्म भूमी बना कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा गढ़ी कहानी क़े आधार पर बेवजह लड़ रहे हैं उसे तो सम्राट हर्ष वर्धन ने साकेत नाम से बसाया था.राम क़े चरित्र को अपने में ढालेंगे नहीं ,राम की तरह साम्राज्यवाद का विनाश करेंगे नहीं बल्की साम्राज्यवादियों की चाल में फंस कर राम क़े नाम पर अपने ही देश में खून खराबा करेंगें.राम ने तो साम्राज्यवादी रावण का संहार उसके यहाँ जाकर किया था. आज क़े साम्राज्यवादी अमेरिका की चाकरी हमारे देश क़े वैज्ञानिक करने को सदैव आतुर रहते हैं.यह क्या है?
'ब्रह्म्सूत्रेण पवित्रीक्रित्कायाम 'यह लिखा है कादम्बरी में सातवीं शताब्दी में आचार्य बाणभट्ट ने.अर्थात  महाश्वेता ने जनेऊ पहन रखा है, तब तक लड़कियों का भी उपनयन होता था.(अब तो सबका उपहास अवैज्ञानिक कह कर उड़ाया जाता है).श्रावणी पूर्णिमा अर्थात रक्षा बंधन पर उपनयन क़े बाद नया विद्यारम्भ होता था.उपनयन अर्थात जनेऊ क़े तीन धागे तीन महत्वपूर्ण बातों क़े द्योतक हैं-
१ .-माता,पिता,तथा गुरु का ऋण उतारने  की प्रेरणा.
२ .-अविद्या,अन्याय ,आभाव दूर करने की जीवन में प्रेरणा.
३ .-हार्ट,हार्निया,हाईड्रोसिल (ह्रदय,आंत्र और अंडकोष -गर्भाशय )संबंधी नसों का नियंत्रण ;इसी हेतु कान पर शौच एवं मूत्र विसर्जन क़े वक्त धागों को लपेटने का विधान था.आज क़े तथा कथित पश्चिम समर्थक विज्ञानी इसे ढोंग, टोटका कहते हैं क्या वाकई ठीक कहते हैं?
विश्वास-सत्य द्वारा परखा  गया तथ्य
अविश्वास-सत्य को स्वीकार न  करना
 अंध-विश्वास--विश्वास अथवा अविश्वास पर बिना सोचे कायम रहना
विज्ञान-किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं.
इस प्रकार जो लोग साईंस्दा होने क़े भ्रम में भारतीय वैज्ञानिक तथ्यों को झुठला रहे हैं वे खुद ही घोर अन्धविश्वासी हैं.वे तो प्रयोग शाळा में बीकर आदि में केवल भौतिक पदार्थों क़े सत्यापन को ही विज्ञान मानते हैं.यह संसार स्वंय ही एक प्रयोगशाला है और यहाँ निरन्तर परीक्षाएं चल रहीं हैं.परमात्मा एक निरीक्षक (इन्विजीलेटर)क़े रूप में देखते हुए भी नहीं टोकता,परन्तु एक परीक्षक (एक्जामिनर)क़े रूप में जीवन का मूल्यांकन करके परिणाम देता है.इस तथ्य को विज्ञानी होने का दम्भ भरने वाले नहीं मानते.यही समस्या है.
आज वसंत-पंचमी को ही महा कवी पं.सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'का जन्मदिन भी है उन्होंने माँ सरस्वती से हम सब भारतीयों क़े लिये जो वरदान मँगा है ,वही इस लेख का अभीष्ट है-

वर दे वीणावादिनी
वर दे वीणावादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे ।
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष- भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दें !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ।

(--निराला)

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

सत्य,ज्योतिष और तामिलनाडु की राजनीति --- विजय राजबली माथुर

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ज्योतिष विज्ञान का मूल उद्देश्य है- मानव जीवन को सुंदर,सुखद व समृद्ध बनाने हेतु सम्यक दृष्टिकोण प्रस्तुत करना। यदि राग,द्वेष,भय या पक्षपात के साथ कोई ज्योतिषी गलत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है तो उसे तो गलत होना ही है लेकिन किसी व्यक्ति-विशेष की गलती को उस ज्ञान-विज्ञान को 'असत्य'सिद्ध करने का प्रमाण-पत्र देने का अभिप्राय क्या हो सकता है?


मोदी से अधिक प्रभावशाली ग्रह -नक्षत्र 'रेखा'व 'ममता बनर्जी'के थे लेकिन उनको मोदी के मुक़ाबले में प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। चाहे CPM- प्रकाश करात की एलर्जी इसका कारण हो या अन्य कुछ। जो लोग मोदी के मुक़ाबले में आए उनसे उनके ग्रह-नक्षत्र अधिक बलशाली निकले और वह जीत गए। लेकिन उनकी जीत को महिला विरोधियों की जीत समझा जाना चाहिए। निकट भविष्य में तीन महत्वपूर्ण राज्यों- तामिलनाडु, बिहार व फिर उत्तर-प्रदेश में भी मोदी की पार्टी यदि जीत गई तो देश से लोकतन्त्र की विदाई की वेला आ जाएगी। तामिलनाडु में करुणानिधि व जयललिता की की डांवाडोल स्थितियों के मद्देनजर सोनिया कांग्रेस से जयंती नटराजन को तोड़ा गया है और वह भाजपा मोर्चे की मुख्यमंत्री प्रत्याशी हो सकती हैं।


यदि देश में  संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा करनी है तो तामिलनाडु के आसन्न चुनावों में राज्यसभा सांसद रेखा को मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत करके कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी को प्रगतिशील मोर्चा खड़ा करना चाहिए।  इसी प्रकार के प्रयास बिहार व उत्तर-प्रदेश में करने चाहिए तब ही RSS-भाजपा के नापाक इरादों को चकनाचूर किया जा सकेगा। अन्यथा भ्रम के नशे में चूर रहने से जम्हूरियत का जनाज़ा निकलने में देर न लगेगी। जब राज्यसभा सांसद डी राजा साहब के प्रस्ताव पर प्रतिभा पाटील जी को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनवा कर जितवाया जा सकता है तो उनको तामिलनाडु के मुख्यमंत्री पद हेतु रेखा जी को आगे लाने की पहल भी लोकतन्त्र व संविधान की रक्षा की खातिर करनी ही चाहिए। एथीस्टवाद के नाम पर ज्योतिष को नकारना देश व जनता के लिए बहुत मंहगा पड़ जाएगा।

राज योग :
"दशम भाव मे कन्या राशि का सूर्य 'रेखा'को 'राज्य-भंग 'योग भी प्रदान कर रहा है। इसका अर्थ हुआ कि पहले उन्हें 'राज्य-सुख 'और'राज्य से धन'प्राप्ति होगी फिर उसके बाद ही वह भंग हो सकता है। लग्न मे बैठा 'राहू'भी उन्हें राजनीति-निपुण बना रहा है। एकादश भाव मे बैठा उच्च का 'शनि'उन्हें 'कुशल प्रशासक'बनने की क्षमता प्रदान कर रहा है। नवम  भाव मे 'सिंह'राशि का होना जीवन के उत्तरार्द्ध मे सफलता का द्योतक है। अभी वह कुंडली के दशम भाव मे 58 वे वर्ष मे चल रही हैं और आगामी जन्मदिन के बाद एकादश भाव मे 59 वे वर्ष मे प्रवेश करेंगी। समय उनके लिए अनुकूल चल रहा है।

राज्येश'बुध'की महादशा मे 12 अगस्त 2010 से 23 फरवरी 2017 तक की अंतर्दशाये भाग्योदय कारक,अनुकूल सुखदायक और उन्नति प्रदान करने वाली हैं। 24 फरवरी 2017 से 29 जून 2017 तक बुध मे 'सूर्य'की अंतर्दशा रहेगी जो लाभदायक राज्योन्नति प्रदान करने वाली होगी।

अभी तक रेखा के किसी भी राजनीतिक रुझान की कोई जानकारी किसी भी माध्यम से प्रकाश मे नहीं आई है ,किन्तुउनकी कुंडली मे प्रबल राज्य-योग हैं। जब ग्रहों के दूसरे परिणाम चरितार्थ हुये हैं तो निश्चित रूप से इस राज्य-योग का भी लाभ मिलना ही चाहिए। हम 'रेखा'के राजनीतिक रूप से भी सफल होने की मंगलकामना करते हैं।
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हिंदुस्तान,लखनऊ के 27-04-2012 अंक मे प्रकाशित सूचना-


 शुभ समय ने अपना असर दिखाया और 'रेखा'जी को राज्य सभा मे पहुंचाया। हम उनकी सम्पूर्ण सफलता की कामना करते है और उम्मीद करते हैं कि वह 'तामिलनाडू'की मुख्य मंत्री पद को भी ज़रूर सुशोभित करेंगी।"
27 अप्रैल,2012  

http://krantiswar.blogspot.in/2012/04/blog-post_19.html

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

गहरी साज़िश पूंजीवादी व्यवस्था की --- Aquil Ahmed

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https://www.facebook.com/aquil.ahmed.7927/posts/458395827647852


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अकील अहमद साहब की उपरोक्त पोस्ट व उस पर आई टिप्पणियों का संदर्भ हैं मेरे ये ताज़ातरीन पोस्ट्स :
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 ठीक ऐसा ही निष्कर्ष है अभिषेक श्रीवास्तव साहब का :



http://www.hastakshep.com/hindi-news/nation/2015/02/25/

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ऐसा नहीं है कि मैंने अचानक इस प्रकार की राय दी हो जिस पर अकील अहमद साहब को यह पोस्ट लिखनी पड़ी। 2011 में जबसे कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षण में RSS प्रेरित और मनमोहन सिंह जी के आशीर्वादयुक्त हज़ारे/केजरीवाल/रामदेव आंदोलन चला था मैं लगातार अपने ब्लाग के माध्यम से व फेसबुक पर भी उसके विरुद्ध राय देता आ रहा हूँ---http://krantiswar.blogspot.in/
एक लेख का यह फोटो और उसी से एक अनुच्छेद नीचे दिया जा रहा है जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि 1990 में मेरा जो आंकलन था वह आज भी उतना ही सटीक है बल्कि उस पर जिस प्रकार अमल हो रहा है अपनी गफलत के कारण वामपंथ आज भी उसका मुक़ाबला करने में न केवल असमर्थ है वरन हज़ारे/केजरीवाल के RSS प्रेरित उस षड्यंत्र में फँसता नज़र आ रहा है जो कि देश के लिए सुखद स्थिति नहीं है।

http://krantiswar.blogspot.in/2011/09/blog-post_25.html

"संघ की तानाशाही:

डा सुब्रह्मण्यम स्वामी,चंद्रास्वामी और चंद्रशेखर जिस दिशा मे योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रहे हैं वह निकट भविष्य मे भारत मे संघ की तानाशाही स्थापित किए जाने का संकेत देते हैं। 'संघ विरोधी शक्तियाँ'अभी तक कागजी पुलाव ही पका रही हैं। शायद तानाशाही आने के बाद उनमे चेतना जाग्रत हो तब तक तो डा स्वामी अपना गुल खिलाते ही रहेंगे।"
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जिस प्रकार सम्पूर्ण वामपंथ हज़ारे/केजरीवाल से सम्मोहित है उसके मद्दे नज़र वह दिन दूर नहीं जब यह कहा जाएगा-'पाछे पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत '। 
(विजय राजबली माथुर )

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है। 

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वामपंथी बौद्धिकों की फौज जनता से जुड़े,उनकी भावनाओं को समझे ----- भावेश भारद्वाज

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17 Feb.2015
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बेगूसराय भाकपा से सम्बद्ध युवा कामरेड भावेश भारद्वाज साहब द्वारा व्यक्त उपरोक्त विचार वर्तमान परिस्थितियों में नितांत प्रासांगिक हैं। उनका यह कथन कितना सटीक है-"नेक व ईमानदार बने रहने की कोशिश, आज के हालात में ऐसी जीवनशैली कई संकट खड़ा कर देती है। अपने जीवन मूल्यों के साथ ज़िंदा रहने की कोशिश में अक्सर अपने भी बेगाने हो जाते हैं, गलत दोषारोपण, अपमान या असम्मान भी झेलने की नौबत आ जाती है। "

वाकई भावेश जी ने सही आंकलन किया है अभी हाल ही में मैंने कम्युनिस्टों व वामपंथियों द्वारा दिल्ली में केजरीवाल के सत्तासीन होने पर जो खुशी मनाई उसके प्रति आगाह किया था। परंतु बजाए इसे सकारात्मक लिए जाने के नकारात्मक लिया गया और मुझे ही लांछित कर दिया गया जैसा कि प्रस्तुत फोटो टिप्पणी से स्पष्ट है :  

भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध वामपंथ के किसान-आंदोलन को RSS की तिकड़म का शिकार होकर हज़ारे के चरणों में रख दिया गया और अब किसी भी सफलता का श्रेय कम्युनिस्टों व वामपंथियों के बजाए हज़ारे/केजरीवाल को मिलेगा । कालांतर में कम्युनिस्टों की जड़ों में मट्ठा डालने वाला ही कदम यह सिद्ध होगा। 

मार्क्स वाद/लेनिनवाद से लैस और यहाँ तक कि 'मास्को रिटर्न'वरिष्ठ कामरेड तक अपने कनिष्ठ साथियों का उत्पीड़न व शोषण करके खुद ही अपनी पीठ ठोंकते रहते हैं। तीन-तिकड़म के सहारे से अपने चहेते-चापलूस लोगों को आगे बढ़ाते व कर्मठ लोगों को पीछे धकेलते हैं। ऐसे में भावेश जी का यह विचार कि -"वामपंथी बौद्धिकों की यह फौज जनता से जुड़े, उनकी भावनाओं को समझे ..."साम्यवाद व वामपंथ को जन-प्रिय बनाने में सहायक हो सकता है। 
---(विजय राजबली माथुर ) 

   ~विजय राजबली माथुर ©
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'युगावतार' : भारतेंदु हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व-कृतित्व की महानता का प्रतीक नाटक --- डॉ सुधाकर अदीब

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20वीं शताब्दी के एक महान साहित्यकार अमृतलाल नागर जी (सन् 1916-1990) ने 19वीं शाताब्दी के अपने पूर्वज महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र जी (सन् 1850-1885) के जीवन चरित्र पर एक नाटक लिखा। नागर जी की जन्मशताब्दी समारोह में वह आज सफलतापूर्वक मंचित हुआ। यह हमारा परम सौभाग्य है। इस अवसर पर नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर, उनके नाती संदीपन जी, पौत्री दीक्षा नागर आदि अनेक परिजन भी उपस्थित हुए। यह और भीप्रसन्नता का विषय है। नाट्य निर्देशक ललित सिंह पोखरिया जी ने अपने निर्देशकीय में बताया कि ~ ''नागर जी ने 'युगावतार'नाटक में भारतेंदु हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व-कृतित्व की महानता का दर्शन कराया है जो कि एक महासागर के समान है। जिसके किनारों पर चारों और से पारिवारिक-सामाजिक कष्ट, क्लेश और विषमताओं के महानदों को हरिश्चंद्र अपने हृदय सागर में समाहित करते रहते हैं। उन्हें वे राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रगौरव, निजभाषा गौरव रूपी रत्न भण्डारों में बदलते रहते हैं, देश और देशवासियों के कल्याण रूपी मोतियों में बदलते रहते हैं। नागर जी ने यह नाटक सन् 1955 के आसपास लिखा था। एक विशेष आयोजन के अंतर्गत मंचन हेतु उन्हें इस नाटक के स्वरुप को छोटा करना पड़ा था। फिर भी उन्होंने इस आलेख में गागर में सागर भरने का महती कार्य किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मैंने नाटक के स्वरुप को कोरस के प्रयोग से थोड़ा बड़ा करने का दुस्साहस किया है। ''
मित्रो ! निर्देशक पोखरिया जी का यह प्रयोग वास्तव में बहुत प्रभावोत्पादक लगा मुझे।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=943817882328632&set=p.943817882328632&type=1&theater 
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वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी ऊर्मिल कुमार थपलियाल जी ने यह भी बताया कि 1953 में नागर जी ने IPTA के लिए 'ईदगाह'नाटक का मंचन किया था और  1956 में एक रेडियो वार्ता के दौरान नागर जी ने कहा था कि हमारा रंग-मंच सोना है। वह फारसी रंग-मंच से बहुत प्रभावित थे। 03 अप्रैल 1968 को बनारस में रंग मण्डल के माध्यम से नागर जी ने नाटक मंचित कराया था फिर इसके बाद प्रतिवर्ष उनके पुत्र डॉ शरद नागर 03 अप्रैल को नाटक मंचित कराते रहे थे। नागर जी का कथन था कि 'साहित्य'ने रंग-मंच को 'साहित्यिक विधा'नहीं माना। नागरजी 1938 से 1960 तक उत्तर प्रदेश के रंग-मंच से सम्बद्ध रहे। थपलियाल जी द्वारा सरल सहज भाषा में प्रस्तुत जानकारी काफी शोधपरक थी । 
अमृतलाल नागर जी द्वारा लिखित नाटक 'युगावतार'भारतेंदू बाबू हरिश्चंद्र जी की जीवनी पर आधारित था जिसका मनमोहक व शिक्षाप्रद मंचन दर्शकों-श्रोताओं के लिए ज्ञानवर्द्धक रहा। इस नाटक के माध्यम से बताया गया कि भारतेंदू हरिश्चंद्र जी का जन्म 09 सितंबर 1850 को हुआ था। उनके जन्म के पाँच वर्षों बाद उनकी माता का तथा दस वर्षों के बाद उनके पिता का भी निधन हो गया था। 
12 वर्ष की उम्र में उन्होने काशी नरेश की उपस्थिती में एक सवाल के जवाब में दोहे की रचना करके उनका मन मोह लिया था। हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए उनका अमिट योगदान  नाटक के माध्यम से काफी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया था। नारी शिक्षा व स्त्री स्वातंत्र्य के भी वह प्रबल पक्षधर थे इसीलिए बंगाल की अङ्ग्रेज़ी शिक्षा में सफल छात्राओं के लिए उन्होने उपहार स्वरूप बनारसी साड़ियाँ भिजवाईं। जरूरत मन्द लोगों की सहायता करने का दृष्टांत भी प्रस्तुत किया गया जिसमें एक गरीब ब्राह्मण को कन्या की शादी हेतु पाँच सौ रुपयों की मांग किए जाने पर उन्होने मुनीम जी से सात सौ रुपए दिलवा दिये। अमीर सेठों के तानों से तंग आकर  उन्होने गृह त्याग किया और बंगाल के अकाल पीड़ितों के सहायतार्थ  दान की भीख भी मांगने में उन्होने शर्म न की और देश सेवा में लगे रहे। 34 वर्ष की अल्पायु में ही 1885 में उन्होने इस शरीर का परित्याग किया लेकिन फिर भी साहित्य व समाज के लिए उनका जो योगदान है वह युगों युगों तक याद किया जाएगा यही संदेश अमृतलाल नागर जी ने 'युगावतार 'नाटक के माध्यम से दिया है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने नागर जी की जन्म शती के बहाने भारतेंदू बाबू हरिश्चंद्र जी को भी जीवंत कर दिया। 
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=927684930626817&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=1 
(विजय राजबली माथुर )
  ~विजय राजबली माथुर ©
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भारत पाक संघर्ष : १९६५ की लड़ाई ------ विजय राजबली माथुर

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 भारत पाक संघर्ष : पचास वर्ष  पूर्ण होने पर पुनः स्मरण ---

( अपनी आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पाक राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन के इशारों पर भारतीय सीमाओं पर संघर्ष अगस्त 1965 से ही शुरू कर दिया था किन्तु भारतीय वायु सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निर्देश पर एक सितंबर से पाकिस्तान पर आक्रमण शुरू किया जो 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम होने तक चला था। इस संबंध में अपने ब्लाग 'विद्रोही स्व- स्वर में 'पूर्व में जो पोस्ट्स लिखे थे उनके कुछ युद्ध संबंधी अंशों को संयोजित कर पुनः प्रकाशित किया जा रहा है )

भारत पाक संघर्ष--जी हाँ १९६५ की लड़ाई को यही नाम दिया गया था.टैंक के एक गोले की कीमत उस समय ८० हज़ार सुनी थी.पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साः की बहन फातिमा जिन्ना को जनरल अय्यूब खान ने चुनाव में हेरा फेरी करके हरा भी दिया और उनकी हत्या भी करा दी परन्तु जनता का आक्रोश न झेल पाने पर भारत पर हमला कर के अय्यूब साः हमारे नए प्रधान मंत्री शास्त्री जी को कमजोर आंकते थे.यह पहला मौका था जब शास्त्री जी की हुक्म अदायगी में भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान में घुस कर हमला किया था.हमारी लड़ाई रक्षात्मक नहीं आक्रामक थी.पाकिस्तानी फौजें अस्पतालों और मस्जिदों पर भी गोले बरसा रही थीं जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन था.लाहौर की और भारतीय फौजों के क़दमों को रोकने के लिए पाकिस्तानी विदेशमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सिक्योरिटी काउन्सिल में हल्ला मचाने लगे.हवाई हमलों के सायरन पर कक्षाओं से बाहर निकल कर मैदान में सीना धरती से उठा कर उलटे लेटने की हिदायत थी.एक दिन एक period खाली था,तब तक की जानकारी को लेखनीबद्ध कर के (कक्षा ९ में बैठे बैठे ही) रख लिया था जिसे एक साथी छात्र ने बाद में शिक्षक महोदय को भी दिखाया था.यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:--
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड़ - पिचड़ अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो''बस जल्दी करो यू -थांट चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
आज जब भी सोचता हूँ तो यह किसी भी प्रकार से कविता नज़र नहीं आती है पर तब युद्ध के माहोल में किसी भी शिक्षक ने इस में कोई गलती नहीं बताई.
जब जनरल चौधरी बाल बाल बचे-बरसात का मौसम तो था ही आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ छाया हुआ था.गर्जन-तर्जन हो रहा था.हमारे मकान मालिक संतोष घोष साः (जिनकी हमारे स्कूल के पास चौरंगी स्वीट हाउस नामक दुकान थी)की पत्नी माँ को समझाने लगीं कि शिव खुश हो कर गरज रहे हैं.आश्रम पाड़ा में ही यह दूसरा मकान था.उस वक़्त बाबू जी बाग़डोगरा एअरपोर्ट पर A G E कार्यालय में तैनात थे.उन्होंने काफी रात में लौटने पर सारा वृत्तांत बताया कि कैसे ५ घंटे ग्राउंड में सीना उठाये उलटे लेटे लेटे गुज़ारा और हुआ क्या था?
दोपहर में जब हल्ला मचा था तब मैं और अजय राशन की दुकान पर थे,शोभा बाबू जी के एक S D O साः के घर थी,घर पर माँ अकेली थीं.जब हम लोग राशन ले कर लौटे तब शोभा को बुला कर लाये.पानी बरस नहीं रहा था,आसमान काला था,लगातार धमाके हो रहे थे.बाबू जी एयर फ़ोर्स के अड्डे पर थे इसलिए माँ को दहशत थी,मकान मालकिन उन्हें ढांढस बंधा रही थीं.माँ तक उन लोगों ने पाकिस्तानी हमले की सूचना नहीं पहुँचने दी थी.
बाबू जी ने बताया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल जतिंद्र नाथ चौधरी बौर्डर का मुआयना करने दिल्ली से चले थे जिसकी सूचना जनरल अय्यूब तक लीक हो गयी थी.अय्यूब के निर्देश पर पूर्वी पाकिस्तान से I A F लिखे कई ज़हाज़ उन्हें निशाना बनाने के लिए उड़े.इधर बागडोगरा से बम वर्षक पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार खड़े थे. जनरल चौधरी के आने के समय यह घटना हुई.उधर जनरल चौधरी को हांसीमारा एअरपोर्ट पहुंचा दिया गया क्योंकि हमारी फौजों को पता चल गया था कि पाक को खबर लीक हो गयी है.बागडोगरा एअरपोर्ट का इंचार्ज I A F लिखे पाकिस्तानी ज़हाज़ों पर फायर का ऑर्डर नहीं कर रहा था और वे हमारे बम लदे ज़हाज़ों पर गोले दाग रहे थे लिहाज़ा सारे बम जो पाकिस्तान पर गिरने थे बागडोगरा एअरपोर्ट पर ही फट गये और आसमान में काला तथा रंग बिरंगा धुआं उन्हीं का था.डिप्टी इंचार्ज एक सरदार जी ने अवहेलना करके I A F लिखे पाक ज़हाज़ों पर फायर एंटी एयरक्राफ्ट गनों से करने का ऑर्डर दिया तब दो पाक ज़हाज़ बमों समेत नष्ट हो गये दो भागने में सफल रहे.जनरल चौधरी को सीधे दिल्ली लौटा दिया गया और उनकी ज़िन्दगी जो तब पूरे देश के लिए बहुत मूल्यवान हो रही थी बचा ली गयी.
मेले और प्रदर्शनी-युद्ध के बाद दुर्गा पूजा के पंडालों में अब्दुल हमीद आदि शहीदों की मूर्तियाँ भी सजाई गयीं टूटे पाकिस्तानी पैटन टैंकों की भी भी झलकियाँ दिखाई गयीं.काली पूजा के समय भी युद्ध की याद ताज़ा की गयी.


 दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्रादास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार''साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीढ़ीयों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि"जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते"हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html
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साभार गूगल


 ~विजय राजबली माथुर ©
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विकास के माडल का हश्र क्या सबक देता है? --- विजय राजबली माथुर

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दिल्ली के  एक विश्वविद्यालय की अध्यापिका का जब कोई लेख 'द गार्जियन 'में छ्प जाता है तब 'हिंदुस्तान 'में उसे 'द गार्जियन ' से साभार स्थान दिया जाता है। क्यों नहीं मौलिक रूप से यह लेख हिंदुस्तान को ही मिला ? हमारे देश की यही विडम्बना है कि अपने लेखकों, कलाकारों आदि को वैसे तो कोई महत्व नहीं देते हैं लेकिन विदेशियों से उनको सराहना मिलने के बाद मजबूरी में उनके महत्व को स्वीकारते हैं। बहरहाल फिर भी इस लेख की बातों पर गंभीरता से गौर किए जाने की आवश्यकता है तब और भी जबकि 2014 का केंद्रीय चुनाव 'विकास 'के नाम पर लड़ा और जीता गया था तथा अब भी बिहार विधानसभा चुनावों में फिर से 'विकास 'को ही मुद्दा बनाया जा रहा है। जन-साधारण का ख्याल किए बगैर जो विकास योजनाएँ बनती हैं वे वस्तुतः विकास की नहीं 'विनाश 'की ध्वजावाहक होती हैं। यही चीन में हुआ है और उन जगहों पर होगा जहां-जहां ऐसा किया गया है। 

गांधी जी ने एक जगह लिखा है कि यदि कोई अर्थशास्त्री किसी व्यक्ति के शरीर से उसका मांस काट कर फिर उसमें पिन चुभाये और कहे कि इससे उस व्यक्ति को कोई पीड़ा नहीं होगी  तो ऐसी आर्थिक नीतियाँ उस व्यक्ति का कुछ भी भला नहीं कर सकती हैं। 1980 जब इन्दिरा गांधी आर एस एस के समर्थन से सत्ता में वापिस आईं तब से   और विशेष रूप से 1991 में मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री बनने के बाद से तो साधारण आदमी को कुचलने वाली नीतियाँ ही चल रही हैं।'विकास 'के नारों के साथ इस उत्पीड़न में और वृद्धि होती जा रही है।आज चीन की दुर्दशा के लिए ऐसे विकास को ही  प्रस्तुत लेख में जिम्मेदार  माना गया है। 

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संलग्न फोटो स्कैन यह दर्शाता है कि चीन में नैतिकता का भी ध्यान नहीं रखा गया है। वहाँ समृद्ध देशों के लिए अच्छे माल का उत्पादन और निर्यात किया जाता है बेहद सुविधापूर्ण परिस्थितियों के साथ। जबकि भारत जैसे देशों के लिए निकृष्ट माल बना कर और उसके जरिये इन देशों की अर्थ-व्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया जाता है। 


मानव हित को ध्यान में न रख कर अनैतिक रूप से 'विकास 'करने के कारण ही आज चीन की अर्थ व्यवस्था को झटका लगा है। लेकिन उन नीतियों को ही भारत में अंगीकार किया गया है और वैसी ही'विकास धुन'चल रही है। स्वभाविक  रूप से भारतीय जन साधारण के लिए 'विनाश 'की घंटी हैं ये तथाकथित विकास योजनाएँ। जन साधारण को राहत देना है तो 'कुटीर उद्योग 'पर आधारित आर्थिक नीतियों को प्रोत्साहन देना होगा। निजी क्षेत्र को समाप्त कर सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करना होगा अन्यथा समझा जाये कि लक्ष्य  विकास के नाम पर विनाश फिर सर्वनाश को आमंत्रित करना है।   ~विजय राजबली माथुर ©
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क्या हम इतने कमजोर हो चुके हैं कि इन आतंक फैलाने वालों से डरते हैं ? --- अनिल पुष्कर

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(अनिल पुष्कर)

हिंदुत्व की राजनीति करने वाले और हिन्दू होने का दावा करने वाले कुछ सवालों के जवाब दें या बताएं कि -
'हिन्दू'शब्द धर्म कब, किन, सन-शताब्दी, ईसा-पूर्व में बना? रामायण में हिन्दू और मुसलमान नहीं मिलते, गीता में हिन्दू और मुसलमान नहीं मिलते, वेदों में 'हिन्दू'और 'मुसलमान'नहीं मिलते तो हिन्दू शब्द राम के नाम पर राजनीति करने वालों ने कहाँ से लिया?
'हिंदुत्व'केवल मनुष्य के हत्या की राजनीति है. वरना हिंदुत्व धर्म कब, किस महाकाव्य और ग्रन्थ में लिखा गया. रामायण, महाभारत, गीता? किसमें?
'रामराज्य'कब भगवा रंग में रंगा गया? सीता ने कब भगवा रंग के वस्त्र पहने? केसरिया कहने वाले जो राजनीतिक पार्टी हिन्दू राजनीति क्र रही हैं वह इस बात को इतिहास में प्रमाणित करें.
'भगवा'रंग यानी 'केसरिया'रंग 'राम'के साथ क्या बाल्मीकि लेकर आये? तुलसीदास ने कहीं केसरिया रंग में क्या 'राम'का चरित्र दिखाया है? क्या मनुस्मृति में हिन्दू शब्द आया है? क्या मनुस्मृति में राम केसरिया/भगवा दिखाए गये हैं?
दरअसल केसरिया रंग तो सूफी परम्परा से आया है उनके गीतों में. वहां तो हिन्दू जैसा कोई कांसेप्ट नहीं था.
तो क्या हिन्दू होने का दावा करने वाले सूफी परम्परा से आये हैं? क्या श्रीराम कहीं भी सूफी परम्परा में दीखते हैं? अगर ऐसा नहीं है तो हिन्दू और हिंदुत्व को केसरिया में रंगने वाले लोग, सम्प्रदाय, केसरिया राम की राजनीति कब शुरू हुई?
जो खुद को हिन्दू और राम से जोडकर देखते हैं. जो इन शब्दों पर राजनीति करते हैं. वो चाहते क्या हैं? इस बात को समझना होगा. ये हत्या और दंगों की राजनीति करना चाहते हैं. ये दो सम्प्रदायों में हिंसा चाहते हैं, ये दो अलग ईश्वर को मानने वालों में खूनी जंग चाहते हैं. राम ने कब हिन्दू मुसलमान की लड़ाई लड़ी? मनुस्मृति ने कब हिन्दू मुसलमान की लड़ाई लड़ी? रामायण ने कब हिन्दू और महाभारत और गीता और वेदों में कब हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई चली?
हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई में 'राम'और 'अल्लाह'किस युग/शताब्दी/सन में आया?
जब मालूम हो जाय तो ये इतिहास मुझे भी पढ़ा देना. वरना हिन्दू और हिंदुत्व की राजनीति करने वालों का मकसद समझो. राम के नाम पर इनकी चाहत केवल सत्ता हासिल करना है. सियासत करना है. आदमियों की हत्यायों से केवल आतंक का शासन करना है? एक शब्द राम का आतंक. एक शब्द भगवा का आतंक. क्या हम इतने कमजोर हो चुके हैं कि इन आतंक फैलाने वालों से डरते हैं.
हिन्दू और हिंदुत्व के नाम पर जो लोग आतंक की राजनीति करना चाहते हैं उन्हें इन सभी सवालों के जवाब देने पड़ेंगे. वरना हिन्दू, हिंदुत्व और 'राम'का नाम लेना बंद करें. ये हत्या की राजनीति अब नहीं चलेगी. दंगों की राजनीति अब नहीं चलेगी. धार्मिक हिंसा की राजनीति अब नहीं चलेगी.
हमारे यहाँ इतिहास की परम्परा में राम के नाम पर कई तरह के रूप हैं एक कबीर के राम, जो इन हिन् हिन्दू राजनीतिक पार्टियों की तरह कतई दंगाई नहीं थे, एक तुलसीदास के राम जो इन हिन्दू ब्रिगेडियर्स की तरह कतई साम्प्रदायिक नहीं थे, एक बाल्मीकी के 'राम'जो इन हिन्दू राजनीतिक पार्टियों की तरह राम को लाखों मनुष्यों की हत्याओं में लिप्त नहीं होने देते.


(अनिल पुष्कर)
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17 सितंबर 2015 :

एक ओर पोंगापंथी और दूसरी ओर एथीस्ट वादी दोनों अपने -अपने तरीके से जनता को गुमराह करते रहते हैं। जहां पोंगापंथी 'गणेश'को चमत्कारी व पूज्य बनाए हुये हैं वहीं एथीस्ट वादी 'गणेश'को अपमानित करने में गौरान्वित महसूस कर रहे हैं। 
वास्तविकता स्वीकारना व समझाना दोनों में से कोई नहीं चाहता क्योंकि 'सत्य 'प्रचारित होने पर दोनों का गोरख-धंधा चौपट हो जाएगा। 
गणेश = गण + ईश अर्थात जो गण यानि जनता का ईश यानि नायक हो। 
जो स्वरूप गणेश का चित्रित किया गया है वह एक राजनेता के गुणों को स्पष्ट करता है। हाथी सरीखे कान सबकी सुनने वाला हो इसका प्रतीक हैं तो सूँड सूंघने अर्थात अनुमान से समझने की शक्ति का प्रतीक है। खाने के दाँत और दिखाने के दाँत एक राजनेता के उस गुण पर प्रकाश डालते हैं जिसके द्वारा वह प्रशासनिक गतिविधियों को 'गोपनीय'रखे तथा वही बोले जो आवश्यक हो। कुप्पा ऐसा पेट यह जतलाने के लिए है कि एक राजनेता में तमाम विपरीत बातों को भी हजम करने की क्षमता होनी चाहिए। 
चूहे की सवारी यह सिद्ध करने के लिए है कि घर,समाज,देश को कुतरने वाले पंचमारगियों को दबा कर रखना चाहिए उनको कुतरने का मौका नहीं मिलने देना चाहिए। 
लोकतन्त्र में जनता का नायक देश का राष्ट्रपति हुआ। अतः जब कहा जाता है-ॐ गनेशाय नमः तब उसका अर्थ होता है-THE FIRST SALUTATION TO THE "PRSIDENT" OF THE NATION केकिन आज हो क्या रहा है चतुर्दिक 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'का बोलबाला और व्यापारियों की मौज। गरीब का शोषण-उत्पीड़न एवं धन्ना-सेठों का मनोरंजन। 
'सत्य'को कब स्वीकार करके अनुसरण किया जाएगा। या फिर पढे-लिखे मूर्ख व अनपढ़ मूर्ख एक सी हरकतें करके जनता को त्राहिमाम-त्राहिमाम करने को मजबूर करते रहेंगे ?




  ~विजय राजबली माथुर ©
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