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ज्योतिष अंधविश्वास नहीं : ज्योतिष कर्मवान बनाता है ------ विजय राजबली माथुर

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आगरा से लखनऊ आने के बाद 14 दिसंबर 2009 को ज्योतिष कार्यालय भी यहीं खोल लिया था , आज जब उसके सातवें वर्ष में प्रवेश के समय पटना निवासी अवकाश प्राप्त पुलिस उच्चाधिकारी साहब का स्टेटस देखा तो कुछ पुरानी पोस्ट्स को संयुक्त रूप से पुनः दे रहा हूँ। उनके सवाल और मेरे द्वारा उस पर टिप्पणी भी संलग्न कर रहा हूँ। 


***सदियों से ब्राह्मण किस प्रकार जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते आ रहे हैं। और जनता को क्या कहे?समाज मे मेरी इसलिए आलोचना है कि लोगों के अनुसार  मैंने ब्राह्मणों के क्षेत्र मे अतिक्रमण कर डाला है। जबकि मूल रूप से समाज मे शिक्षा-व्यवस्था का दायित्व कायस्थों ही का था । ( है क्या बला यह--'कायस्थ'?)आगरा कालेज ,आगरा  मे जूलाजी विभाग के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष डॉ वी के तिवारी साहब,भारत पेट्रोलियम के उच्चाधिकारी डॉ बी एम उपाध्याय जी  ,सपा नेता और मर्चेन्ट नेवी के रिटायर्ड  उच्चाधिकारी पंडित सुरेश चंद पालीवाल जी आदि अनेकों शिक्षित व समझदार  ब्राह्मणों ने न केवल मुझसे जन्म्पत्रियों के विश्लेषण सहर्ष कराये बल्कि अपने-अपने निवास पर 'वास्तु'हवन भी कराये और लाभान्वित भी हुये।'कायस्थ सभा,'आगरा,'अखिल भारतीय कायस्थ महासभा',आगरा और 'माथुर सभा',आगरा के कई पदाधिकार्यों ने भी मुझसे ज्योतिषीय एवं वास्तु परामर्श प्राप्त कर लाभ भी उठाया। परंतु मांगने की आदत न होने के कारण वांछित अर्थ-लाभ मैं न प्राप्त कर सका और अंततः मकान बेच कर छोटा मकान लखनऊ मे लेकर रहने लगा।
http://krantiswar.blogspot.in/2012/12/blog-post.html


मैं जो कह रहा हूं, उसपर बहुत कम लोगों को यक़ीन होगा। बात सपनों की है जिसे हम मिथ्या मानकर चलते रहे हैं। दो-ढाई साल पहले फेसबुक पर आते ही साहित्य, कला, संगीत और संस्कृति में योगदान देने वाले अपने प्रिय महापुरूषों के बारे में उनके जन्मदिन या पुण्यतिथि पर लिखना शुरू किया था मैंने। पिछले साल ऊबकर कुछ अरसे तक उनपर लिखना स्थगित कर दिया था। उनकी जन्म और मृत्यु तिथि की डायरी जो मेरे पास थी , वह भी कहीं गुम हो गई। फिर अचानक ऐसा हुआ कि मुझे सपने में लगातार वे लोग दिखाई देने लगे जो मेरे पसंदीदा शायर, कवि, संगीतकार या कलाकार रहे थे। सुबह उठकर मैं गूगल सर्च करता तो यह देखकर हैरान होता कि उसी या अगले दिन उनकी जन्मतिथि या पुण्यतिथि है। आज भी दिन में आंख लगी तो मेरे प्रिय शायरों में एक पाकिस्तान के जॉन एलिया मेरे सामने मुस्कुराते हुए हाज़िर थे। अभी गूगल पर गया तो देखा कि परसों मरहूम एलिया का जन्मदिन है। मैं पिछले एक साल से परेशान हूं। क्या हो रहा है यह मेरे साथ ? आत्माओं से संवाद ? टेलीपैथी ? सपने में अस्तित्व के दूसरे आयामों की यात्रा ? वैसे बताता चलूं कि मेरी मानसिक स्थिति बिल्कुल ठीक है और मैं अंधविश्वासी नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न इक्कीसवी सदी का व्यक्ति हूं। बहुत ईमानदारी से अपनी समस्या शेयर कर रहा हूं आपके साथ। 
यह संयोग अकारण तो नहीं हो सकता न ? आपको क्या लगता है ?

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=957288401014425&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=3&theater&notif_t=like
मनुष्य का यह भौतिक शरीर जो अंततः एक समयोपरान्त नष्ट हो जाता है के साथ-साथ दो शरीर और (कारण शरीर व सूक्ष्म शरीर ) चलते रहते हैं जो नष्ट नहीं होते हैं बल्कि 'आत्मा'के साथ-साथ निरंतर चलते रहते हैं। सूक्ष्म शरीर बिना कहीं जाये अपनी सूक्ष्म दृष्टि से ज्ञात करता रहता है और कारण शरीर को संप्रेषित करता रहता है। कारण शरीर भौतिक शरीर पर उसकी अभिव्यक्ति कर देता है। जिन व्यक्तियों के जन्म के समय 'चंद्रमा'की स्थिति अच्छी (उच्च अथवा स्व-ग्रही होकर पंचम भाव में होती है ) जिसकी पहचान हथेली से भी की जा सकती है कि, चंद्र पर्वत उन्नत हो अथवा हथेली में चंद्र पर्वत पर 'अर्द्ध-चंद्राकार'एक रेखा हो उनके 'मस्तिष्क'पर कारण शरीर द्वारा संप्रेषित भाव संकेत पहुंचा देते हैं जिनसे वह भावी घटनाओं का पूर्वानुमान बिना किसी गणितीय जोड़-घटाव के लगा लेता है।
जो लोग इस प्रक्रिया के साथ अंध-विश्वास को समिश्रित करके अन्य कुछ चमत्कार की बात करते हैं , वे सब को धोखा देते हैं। 

जबकि जो लोग इस प्रक्रिया से समाज के कल्याण की बात सामने रखते हैं वे सबका भला चाह रहे होते हैं।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/981935851868391

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Thursday, September 23, 2010

ज्योतिष और हम

अक्सर यह चर्चा सुनने को मिलती है की ज्योतिष का सम्बन्ध मात्र धर्म और आध्यात्म से है.यह विज्ञान सम्मत नहीं है और यह मनुष्य को भाग्य के भरोसे जीने को मजबूर कर के अकर्मण्य बना देता है.परन्तु ऐसा कथन पूर्ण सत्य नहीं है.ज्योतिष पूर्णतः एक विज्ञान है.वस्तुतः विज्ञान किसी भी विषय के नियम बद्ध  एवं क्रम बद्ध  अध्ययन को कहा जाता है.ज्योतिष के नियम खगोलीय गणना पर आधारित हैं और वे पूर्णतः वैज्ञानिक हैं वस्तुतः ज्योतिष में ढोंग पाखण्ड का कोंई स्थान नहीं है.परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की खातिर जनता को दिग्भ्रमित कर के ठगते हैं और उन्हीं के कारण सम्पूर्ण ज्योतिष विज्ञान पर कटाक्ष किया जाता है.यह एक गलत क्रिया की गलत प्रतिक्रिया है.जहाँ तक विज्ञान के अन्य विषयों का सवाल है वे What & How का तो जवाब देते हैं परन्तु उनके पास Why का उत्तर नहीं है.ज्योतिष विज्ञान में इस Why का भी उत्तर मिल जाता है.
जन्म लेने वाला कोई भी बच्चा अपने साथ भाग्य (प्रारब्ध) लेकर आता है.यह प्रारब्ध क्या है इसे इस प्रकार समझें कि हम जितने भी कार्य करते हैं,वे तीन प्रकार के होते हैं-सद्कर्म,दुष्कर्म और अकर्म.
यह तो सभी जानते हैं की सद्कर्म का परिणाम शुभ तथा दुष्कर्म का अशुभ होता है,परन्तु जो कर्म किया जाना चाहिए और नहीं किया गया अथार्त फ़र्ज़ (duity) पूरा नहीं हुआ वह अकर्म है और इसका भी परमात्मा से दण्ड मिलता है.अतएव सद्कर्म,दुष्कर्म,और अकर्म के जो फल इस जन्म में प्राप्त नहीं हो पाते वह आगामी जन्म के लिए संचित हो जाते हैं.अब नए जन्मे बच्चे के ये संचित कर्म जो तीव्रगामी होते हैं वे प्रारब्ध कहलाते हैं और जो मंदगामी होते हैं वे अनारब्ध कहलाते हैं.मनुष्य अपनी बुद्धि व् विवेक के बल पर इस जन्म में सद्कर्म ही अपना कर ज्ञान के द्वारा अनारब्ध कर्मों के दुष्फल को नष्ट करने में सफल हो सकता है और मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है.मोक्ष वह अवस्था है जब आत्मा को कारण और सूक्ष्म शरीर से भी मुक्ति मिल जाती है.और वह कुछ काल ब्रह्मांड में ही स्थित रह जाता है.ऐसी मोक्ष प्राप्त आत्माओं को संकटकाल में परमात्मा पुनः शरीर देकर जन-कल्याण हेतु पृथ्वी पर भेज देता है.भगवान् महावीर,गौतम बुद्ध,महात्मा गांधी,स्वामी दयानंद ,स्वामी विवेकानंद,आदि तथा और भी बहुत पहले मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम एवं योगी राज श्री कृष्ण तब अवतरित हुए जब पृथ्वी पर अत्याचार अपने चरम पर पहुँच गया था.
जब किसी प्राणी की मृत्यु हो जाती है तो वायु,जल,आकाश,अग्नि और पृथ्वी इन पंचतत्वों से निर्मित यह शरीर तो नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा के साथ-साथ कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर मोक्ष प्राप्ति तक चले चलते हैं और अवशिष्ट संचित कर्मफल के आधार पर आत्मा भौतिक शरीर को प्राप्त कर लेती है जो उसे अपने किये कर्मों का फल भोगने हेतु मिला है.यदि जन्म मनुष्य योनी में है तो वह अपनी बुद्धि व विवेक के प्रयोग द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास कर सकता है.
बारह राशियों में विचरण करने के कारण आत्मा के साथ चल रहे सूक्ष्म व कारण शरीर पर ग्रहों व नक्षत्रों का प्रभाव स्पष्ट अंकित हो जाता है.जन्मकालीन समय तथा स्थान के आधार पर ज्योतिषीय गणना द्वारा बच्चे की जन्म-पत्री का निर्माण किया जाता है और यह बताया जा सकता है कि कब कब क्या क्या अच्छा  या बुरा प्रभाव पड़ेगा.अच्छे प्रभाव को प्रयास करके प्राप्त क्या जा सकता है और लापरवाही द्वारा छोड़ कर वंचित भी हुआ जा सकता है.इसी प्रकार बुरे प्रभाव को ज्योतिष विज्ञान सम्मत उपायों द्वारा नष्ट अथवा क्षीण किया जा सकता है और उस के प्रकोप से बचा जा सकता है.जन्मकालीन नक्षत्रों की गणना के आधार पर भविष्य फल कथन करने वाला विज्ञान ही ज्योतिष विज्ञान है.
ज्योतिष कर्मवान बनाता है
ज्योतिष विज्ञान से यह ज्ञात करके कि समय अनुकूल है तो सम्बंधित जातक को अपने पुरुषार्थ व प्रयास से लाभ उठाना चाहिए.यदि कर्म न किया जाये और प्रारब्ध के भरोसे हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहे तो यह अवसर निष्फल चला जाता है.इसे एक उदहारण से समझें कि माना आपके पास कर्णाटक एक्सप्रेस से बंगलौर जाने का reservation है और आप नियत तिथि व निर्धारित समय पर स्टेशन पहुँच कर उचित plateform पर भी पहुँच गए पर गाड़ी आने पर सम्बंधित कोच में चढ़े नहीं और plateform पर ही खड़े रह गए.इसमें आपके भाग्य का दोष नहीं है.यह सरासर आपकी अकर्मण्यता है जिसके कारण आप गंतव्य तक नहीं पहुँच सके.इसी प्रकार ज्योतिष द्वारा बताये गए अनुकूल समय पर तदनुरूप कार्य न करने वाले उसके लाभ से वंचित रह जाते हैं.लेकिन यदि किसी की महादशा/अन्तर्दशा अथवा गोचर ग्रहों के प्रभाव से खराब समय चल रहा है तो ज्योतिष द्वारा उन ग्रहों को ज्ञात कर के उनकी शान्ति की जा सकती है और हानि से बचा भी जा सकता है,अन्यथा कम किया जा सकता है.
ज्योतिष अकर्मण्य नहीं बनाता वरन यह कर्म करना सिखाता है.परमात्मा द्वारा जीवात्मा का नाम क्रतुरखा गया है.क्रतु का अर्थ है कर्म करने वाला.जीवात्मा को अपने बुद्धि -विवेक से कर्मशील रहते हुए इस संसार में रहना होता है.जो लोग अपनी अयोग्यता और अकर्मण्यता को छिपाने हेतु सब दोष भगवान् और परमात्मा पर मढ़ते हैं वे अपने आगामी जन्मों का प्रारब्ध ही प्रतिकूल बनाते हैं.
ज्योतिष अंधविश्वास नहीं
कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने ज्योतिष विज्ञान का दुरूपयोग करते हुए इसे जनता को उलटे उस्तरे से मूढने का साधन बना डाला है.वे लोग भोले भाले एवं धर्मभीरु लोगों को गुमराह करके उनका मनोवैज्ञानिक ढंग से दोहन करते हैं और उन्हें भटका देते हैं.इस प्रकार से पीड़ित व्यक्ति ज्योतिष को अंधविश्वास मानने लगता है और इससे घृणा करनी शुरू कर देता है.ज्योतिषीय ज्ञान के आधार पर होने वाले लाभों से वंचित रहकर ऐसा प्राणी घोर भाग्यवादी बन जाता है और कर्महीन रह कर भगवान को कोसता रहता है.कभी कभी कुछ लोग ऐसे गलत लोगों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं,जिन के लिए ज्योतिष गंभीर विषय न हो कर लोगों को मूढने का साधन मात्र होता है.इसी प्रकार कुछ कर्म कांडी भी कभी -कभी ज्योतिष में दखल देते हुए लोगों को ठग लेते हैं. साधारण जनता एक ज्योतिषी और ढोंगी कर्मकांडी में विभेद नहीं करती और दोनों को एक ही पलड़े पर रख देती है.इससे ज्योतिष विद्या के प्रति अनास्था और अश्रद्धा उत्पन्न होती है और गलतफहमी में लोग ज्योतिष को अंधविश्वास फैलाने का हथियार मान बैठते हैं.जबकि सच्चाई इसके विपरीत है.मानव जीवन को सुन्दर,सुखद और समृद्ध बनाना ही वस्तुतः ज्योतिष का अभीष्ट है.
क्या ग्रहों की शांति हो सकती है?
यह संसार एक परीक्षालय(Examination Hall) है और यहाँ सतत परीक्षा चलती रहती है.परमात्मा ही पर्यवेक्षक(Invegilator) और परीक्षक (Examiner) है. जीवात्मा कार्य क्षेत्र में स्वतंत्र है और जैसा कर्म करेगा परमात्मा उसे उसी प्रकार का फल देगा.आप अवश्य ही जानना चाहेंगे कि तब ग्रहों की शांति से क्या तात्पर्य और लाभ हैं?मनुष्य पूर्व जन्म के संचित प्रारब्ध के आधार पर विशेष ग्रह-नक्षत्रों की परिस्थिति में जन्मा है और अपने बुद्धि -विवेक से ग्रहों के अनिष्ट से बच सकता है.यदि वह सम्यक उपाय करे अन्यथा कष्ट भोगना ही होगा.जिस प्रकार जिस नंबर पर आप फोन मिलायेंगे बात भी उसी के धारक से ही होगी,अन्य से नहीं.इसी प्रकार जिस ग्रह की शांति हेतु आप मंत्रोच्चारण करेंगे वह प्रार्थना भी उसी ग्रह तक हवन में दी गयी आपकी आहुति के माध्यम से अवश्य ही पहुंचेगी.अग्नि का गुण है उसमे डाले गए पदार्थों को परमाणुओं (Atoms) में विभक्त करना और वायु उन परमाणुओं को मन्त्र के आधार पर ग्रहों की शांति द्वारा उनके प्रकोप से बच सकता है.प्रचलन में लोग अन्य उपाय भी बताते हैं परन्तु उन से ग्रहों की शांति होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिलता,हाँ मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है.





 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

बांग्लादेश की आज़ादी किन्तु इतिहास से सबक नहीं ------ विजय राजबली माथुर

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यह लेख 16 दिसंबर 2011 को लिखा व प्रकाशित हुआ था उसमें  23 फरवरी 2011 को लिखे एक और लेख के अंशों को जोड़ कर आज बांग्लादेश की 45 वीं वर्षगांठ के अवसर पर पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है। 

 हम समस्त बांग्ला देशवासियों को उनके स्वतन्त्रता दिवस पर हार्दिक बधाई देते एवं मंगलकामनाएं करते है। एक समृद्ध,सुदृढ़ और सुरक्षित बांग्लादेश की अभिलाषा करते हैं। 

जब बांग्लादेश की आजादी का आंदोलन चल रहा था तो मेरठ कालेज,मेरठ मे 'समाज शास्त्र परिषद'की एक गोष्ठी मे  एकमात्र मैंने ही बांग्लादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने का प्रबल विरोध किया था।  




http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/02/blog-post.html


मुझे आज भी लगता है कि जिस उद्देश्य से 'बांग्लादेश'की स्थापना पाकिस्तान से प्रथक्क करके की गई थी वह अब तक पूरा नहीं हुआ है। 'बग-बंधु'शेख मुजीब का सपना 'सोनार बांग्ला'का था,क्या वैसा हो सका?कदापि नहीं। शेख मुजीब की सपरिवार (वर्तमान प्रधान मंत्री शेख हसीना ही एकमात्र वह सदस्य थीं जो रूस मे पढ़ाई करने के कारण जीवित बच सकीं) हत्या करके उनके बानिज्य मंत्री खोंडाकर मुश्ताक अहमद को उनके उत्तराधिकारी के रूप मे राष्ट्रपति बनाया गया था फिर उनकी भी हत्या कर दी गई और इस क्रम मे फौजी शासन ही वहाँ कायम हुआ जैसा पाकिस्तान मे होता आया था। फौजी शासन मे वैसे ही जुल्म ढाये गए जैसे पाकिस्तानी हुकूमत मे ढाये जाते थे। बांग्लादेश के 'मुक्ति आंदोलन'मे पाक फौजों से उत्पीड़ित होकर वहाँ के नागरिक भारत मे शरणार्थी बन कर आ गए थे तो आजाद बांग्ला देश की फौजी हुकूमत के अत्याचारों से त्रस्त होकर काफी नागरिक अपना वतन छोड़ कर भारत -भू पर आ बसे हैं और अधिकांश आज भी रिक्शा चला कर,मोहल्लों मे सफाई करके या मजदूरी करके अथवा भीख मांग कर गुजारा कर रहे हैं। 

बांग्लादेश 'आत्म-निर्भर'देश नहीं है ।प्रारम्भ मे अमेरिका ने फिर चीन ने भी वहाँ की राजनीति को प्रभावित किया है और अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान ने भी। मुजीब की बेटी को भी आज भारत -हितैषी नहीं कहा जा सकता है। बांग्लादेश को आजाद कराने मे हिन्दुस्तानी फौज का बहुत बड़ा योगदान रहा है जिस कारण लगभग90 हजार पाकिस्तानी फ़ौजियों को गिरफ्तार करके -POW के रूप मे भारत मे फौज की निगरानी मे रखा गया था। एक लंबे समय तक बंगला देश के नागरिकों का उत्पीड़न करने वाले फौजी भारत सरकार की आव-भगत मे मौज से रहे। इससे पूर्व जब अंधा-धुन्ध बांग्ला शरणार्थी भारत आ गए थे तो इंदिरा जी की सरकार ने एक अध्यादेश के जरिये RRF की स्थापना की थी। 10 पैसे के रेवेन्यू स्टैम्प के साथ 10 पैसे का ही 'शरणार्थी सहायता'का एक और रेवेन्यू स्टैम्प लागू करके इस कोश की स्थापना की गई थी ताकि शरणार्थियों  का खर्च वहन  किया जा सके। बांग्ला नागरिकों को रखना,खाना खिलाना,उनके लिए युद्ध लड़ना और जितवाना,फिर पाक बंदी फ़ौजयों को रखना और खाना खिलाना यह सब कुछ हम भारतीयों ने झेला। 

फिर भी 'बांग्ला देश'भारत का बफर स्टेटकभी न बन सका और इसी वजह से तब मैंने उसे मान्यता दिये जाने की खिलाफत की थी जबकि सभी साथी छत्रों ने और सभी अध्यापकों ने चाहे वे जनसंघ ,चाहे सोशलिस्ट, चाहे कांग्रेस समर्थक थे एक-स्वर से बांग्लादेश को मान्यता दिये जाने का समर्थन किया था। मै आज उन सभी लोगों से यह जानना चाहता हूँ कि 'बंगला देश'को पाक से प्रथक्क करके और मान्यता देकर कौन सा लाभ अर्जित किया गया इसका खुलासा करें। मानवीय और आर्थिक कुर्बानी जो दी गई वह मेरे निगाह मे निरर्थक गई। यही नहीं इस्स कारण हमे जो क्षति हुई सो अलग। 

1971 मे पाकिस्तान के राष्ट्रपति जेनरल याहिया खान की पुकार पर अमेरिकी प्रेसिडेंट रिचर्ड निकसन ने अपना 7 th Fleet हिन्द महासागर मे रवाना कर दिया था जिसका मुक़ाबला करने हेतु इंदिरा जी ने आनन-फानन मे 20 वर्षीय 'भारत-सोवियत शांति-सहयोग की मैत्री " नामक संधि कर ली और ठीक 20 वर्ष बाद 1991 मे सोवियत रूस से 'साम्यवाद'का सफाया हो गया। CIA ने रूसी कम्यूनिस्ट पार्टी मे घुसपैठ करके उसे अंदर से खोखला कर दिया था और इसके लिए आर्थिक भ्रष्टाचार का सहारा लिया था। वही अमेरिकी प्रशासन आज भारत मे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने 'पिछलगुवे'को मोहरा बना कर चलवा रहा है जो भ्रष्टाचार का जनक है। 

1971 की भारतीय सेना की जीत को इन्दिरा जी की जीत बताया गया था और तत्काल विपक्षी 'जनसंघ'के नेता (अब पूर्व प्रधानमंत्री) अटल बिहारी बाजपाई साहब ने इंदिरा जी को 'दुर्गा'कह कर माल्यार्पण किया था। एक कवि ने लिखा था-"लोग इतिहास बदलते रहे,तुमने भूगोल बदल डाला"इसके बाद मध्यावधि चुनाव मे इंदिरा जी को प्रचंड बहुमत मिला था जिसके बल पर संविधान मे संशोधन करके 'लोकसभा'का कार्यकाल छै वर्ष कर दिया गया था ,यह अलग बात है कि गुप्तचर बलों से गुमराह होकर फिर पाँच वर्ष बाद लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव करा दिये जिसमे इन्दिरा सरकार अपनी 'एमेर्जेंसी'की ज़्यादतियों के कारण सत्ताच्युत्त हो गई। यह एमेर्जेंसी भी 1971 मे मिली पाक पर जीत के बदले लोकसभा  मे मिले प्रचंड बहुमत के घमंड मे  थोपी गई थी। जनता सरकार ने पुनः संविधान संशोधन द्वारा 5 वर्ष का लोकसभा का कार्यकाल निश्चित करा दिया था। 

1977 की चुनावी हार को इंदिरा जी ने आर एस एस के सहयोग से 'जनता सरकार'को तोड़ कर बदला लेकर चुकता किया। 1980 के मध्यावधि चुनाव मे आर एस एस का गुप्त समर्थन प्राप्त कर इंदिरा जी पुनः सत्तारूढ़ हुई। बांग्लादेश के निर्माण का बदला पाकिस्तान ने अमेरिकी शह से पंजाब मे 'खालिस्तान'और 'काश्मीर'मे आतंकवादी आंदोलन खड़ा करके लिया और इसी का शिकार खुद इंदिरा जी भी हुई और उनकी हत्या कर दी गई। राजीव गांधी उनके उत्तराधिकारी बने और अपनी माँ द्वारा शह दिये गए श्रीलंका के 'लिट्टे'संघर्ष मे कूद पड़े तथा श्रीलंका मे बंदूक की बट से घायल होकर लौटे और अंततः 1991 के चुनाव के दौरान  'लिट्टे'उग्रवादियों द्वारा मार दिये गए। 


इस चुनाव के बाद भूतपूर्व आर एस एस कार्यकर्ता पी वी नरसिंघा राव साहब प्रधानमंत्री बने जिनहोने वर्तमान पी एम को वित्तमंत्री बनाया था जिनकी नीतियों को अमेरिका जाकर एल के आडवाणी साहब ने उनकी नीतियों का चुराया जाना घोषित किया था। आज आर एस एस,मनमोहन गुट ,अमेरिकी और भारतीय कारपोरेट घराने तथा अमेरिकी प्रशासन के सहयोग से 'अन्ना आंदोलन'चल रहा है जिसका लक्ष्य कारपोरेट घरानों की लूट,शोषण और भ्रष्टाचार को संरक्षण प्रदान करना है। नरसिंघा राव जी ने पद छोडने के बाद अपने उपन्यास THE-INSIDER मे कुबूल किया है कि-"हम स्वतन्त्रता के भ्रमजाल मे जी रहे हैं"।

बांग्लादेश और पाकिस्तान मे तो फौज के माध्यम से अमेरिका अपने पसंद के लोगों का नेतृत्व थोपने मे कामयाब हो जाता है परंतु भारत मे उसे काफी कसरत करनी पड़ती है-कभी इंदिराजी की हत्या करवाई जाती है तो कभी राजीव जी की । सन 2014 के चुनावों के लिए अमेरिकी संस्थाओं ने नरेंद्र मोदी /राहुल गांधी के मध्य संघर्ष का लक्ष्य रखा है। उसी पृष्ठ-भूमि मे 'अन्ना-आंदोलन'चल रहा है। 

हिंदुस्तान ,लखनऊ,12 दिसंबर 2011 
 पाकिस्तान की 'सार्व-भौमिकता'का उल्लंघन करके ओसामा बिन लादेन को मारना ,पाकिस्तानी फौजी टुकड़ियों पर हमला करना अमेरिका के बाएँ हाथ का खेल है। साम्राज्यवादियों का पृष्ठपोषक आर एस एस और उसके सहयोगी इन कृत्यों पर खुशी मनाते हैं। अफगान युद्ध मे भूमिका खत्म होने पर पाक प्रेसीडेंट जिया-उलल-हक के विमान को रिमोट  विस्फोटक से उड़वा दिया गया। कभी बेनजीर कभी नवाज शरीफ को समर्थन देकर नेतृत्व हासिल करा दिया। कभी परवेज़ मुशर्रफ का समर्थन किया तो उन्हे हटवा कर बेनजीर के पति आसिफ जरदारी का,अब उन्हें हटवा कर पूर्व क्रिकेटर इमरान खान को बैठाने की तैयारी है

मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक आम जनता को सच्चाई से वाकिफ नहीं करा रहा है वह केवल कारपोरेट इशारे पर 'अन्ना'का महिमा-मंडन करता आ रहा है। आम जनता अपनी भूख से व्याकुल है उसे 'आजादी'का मतलब मालूम नहीं चल पता है। हमारे इंटरनेटी विद्वान खाते-पीते समृद्ध लोग हैं उन्हें आम जनता से क्या लेना-देना?देश आजाद रहे या गुलाम उनकी समृद्धि तो बढ़नी ही है तो वे क्यों जाग्रत करें जनता को ?'क्रांतिस्वर'का लेखन तो नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह खो जाता है। लेकिन फर्ज अदायगी तो हम अपनी तरफ से करते ही रहेंगे,चाहे जिसे जो बुरा लगता रहे। 


'हिंदुस्तान मे आज प्रकाशित इस लेख से भी उपरोक्त लेख की पुष्टि होती है-


(हिंदुस्तान-लखनऊ-16/12/2011 )

यही वे लोग हैं जो साम्यवाद को जनता से काट कर साम्राज्यवाद को मजबूत कर रहे हैं ------ विजय राजबली माथुर

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*आज से 10 लाख वर्ष पूर्व जब मानव अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो प्रकृति के अनुरूप समाज मे पालन करने हेतु जो नियम बनाए गए वे ही 'वेद'हैं। वेद सभी समय के सभी मनुष्यों के लिए देश-काल के भेदभाव के बिना समान व्यवहार का मार्ग बताते हैं। शासकों और व्यापारियों ने अपने निजी स्वार्थ वश 'कर्मगत'वर्ण व्यवस्था को 'जन्मगत'जाति-व्यवस्था मे परिवर्तित करके शासितों का उत्पीड़न-शोषण किया। वेदोक्त परम्पराएँ विलुप्त हो गईं और समाज मे विषमता की खाई उत्पन्न हो गई। भारत मे विदेशी शासकों के आगमन पर उनके द्वारा यहाँ की जनता को 'हिन्दू'कह कर पुकारा गया जो फारसी भाषा मे एक गंदी और भद्दी गाली है। कुछ लोग अरबी भाषा के 'स 'को 'ह 'उच्चारण से जोड़ कर हिन्दू शब्द की हिमायत करते हैं तब भी यह विदेशियों की ही देंन साबित होता है। कुछ 'कुतर्क करने वाले  लोग 'हिन्दू शब्द की प्राचीनता टटोलते फिरते हैं,किन्तु ईरानियों के आने से पूर्व बौद्ध मठों,विहारों को उजाड़ने वाले उनके ग्रन्थों को जलाने वाले हिंसक लोगों को बौद्धों ने 'हिन्दू'की संज्ञा दी थी। 'हिन्दू'शब्द विदेशी और पूरी तरह से अभारतीय है। 'कुरान'की तर्ज पर विदेशी शासकों ने यहाँ के विद्वानों को 'सत्ता'व 'धन'सुख देकर 'पुराण'लिखवाये जो वेद-विपरीत हैं। किन्तु तथाकथित गर्व से हिन्दू लोग वेद और पुराण को गड्म गड करके गुमराह करते हैं और दुखद है कि प्रगतिशील बामपंथी भी उसी झूठ को मान्यता देते हैं। 

*'आर्य'सार्वभौम शब्द है और यह किसी देश-काल की सीमा मे बंधा हुआ नहीं है। आर्यत्व का मूल 'समष्टिवाद'अर्थात 'साम्यवाद'है। प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यज्ञ -हवन किये जाते थे। अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे.'भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था.Generator,Operator ,Destroyer भी ये तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही 'खुदा'भी है।  अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.
*शीशे की तरह चमकता हुआ साफ़ है कि वैदिक संस्कृति हमें जन  पर आधारित अर्थात  समष्टिवादी बना रही है जबकि आज हमारे यहाँ व्यष्टिवाद हावी है जो पश्चिम के साम्राज्यवाद की  देन है।
*'धर्म'तो वह है जो 'धारण'करता है ,उसे कैसे छोड़ कर जीवित रहा जा सकता है.कोई भी वैज्ञानिक या दूसरा विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि वह-भूमि,गगन,वायु,अनल और नीर (भगवान्,GODया खुदा जो ये पाँच-तत्व ही हैं )के बिना जीवित रह सकता है.हाँ ढोंग और पाखण्ड तथा पोंगा-पंथ का प्रबल विरोध करने की आवश्यकता मानव-मात्र के अस्तित्व की रक्षा हेतु जबरदस्त रूप से है।
***

Monday, August 20, 2012

वैज्ञानिक परम्पराएँ-वेद और हवन

हमारे देश मे एक फैशन चलता है कि हमारा देश एक पिछड़ा हुआ देश है और यहाँ ज्ञान,विज्ञान जो आया वह पश्चिम की देंन है। आज़ादी के एक लंबे अरसे बाद भी गुलामी की बू लोगों के दिलों से अभी निकली नहीं है। ऊपर जो स्कैन आप देख रहे हैं उसमे आधुनिक अनुसंधान के आधार पर देश मे प्रचलित कुछ प्राचीन  परम्पराओं को विज्ञान -सम्मत बताया गया है।

मैक्स मूलर साहब जर्मनी से भारत आकर यहाँ 30 वर्ष रहे और संस्कृत सीख कर  मूल पांडुलिपियाँ लेकर जर्मनी रवाना हो गए। जर्मनी भाषा मे उनके अनुवादों को पढ़ कर वहाँ अनुसंधान हुये *-होमियोपैथी,बायोकेमिक चिकित्सा पद्धतियों को वहाँ ईजाद किया गया जो एलोपेथी  से श्रेष्ठ हैं। परमाणु तथा दूसरे आयुधों का आविष्कार भी वेदोक्त ज्ञान से वहाँ हुआ।जर्मनी की द्वितीय विश्व युद्ध मे पराजय के बाद अमेरिका और रूस ने इन परमाणु वैज्ञानिकों को अपने-अपने देश मे लगा लिया। अमेरिका ने सबसे पहले जापान की आत्म समपर्ण की घोषणा के बाद रूस को डराने के लिए 06 और 09 अगस्त को परमाणु बमो का प्रहार किया।

जर्मनी आदि पाश्चात्य देशों ने षड्यंत्र पूर्वक भारत मे यह प्रचार किया कि,'वेद गड़रियों के गीत 'के सिवा कुछ भी नहीं हैं (जबकि ये ही देश खुद वेद-ज्ञान का लाभ उठा कर खुद को विज्ञान का आविष्कारक बताते रहे)।हमारे देश के पाश्चात्य समर्थक विद्वान चाहे वे दक्षिण पंथी हों या प्रगतिशील बामपंथी दोनों ही साम्राज्यवादी इतिहासकारों के 'भटकाव'को ज्ञान-सूत्र मानते हैं जिसके अनुसार 'आर्य'मध्य यूरोप से घोड़ों पर सवार होकर भारत आए और यहाँ के 'मूल निवासियों'को दास बना लिया। इसी मान्यता के कारण देश मे आजकल एक साम्राज्यवाद पोषक आंदोलन 'मूल निवासियों देश को मुक्त करो'भी ज़ोर-शोर से चल रहा है। 

साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों ने( जब सेफ़्टी वाल्व के रूप मे स्थापित कांग्रेस  आर्यसमाजियों के प्रभाव से 'राष्ट्र वादी आंदोलन चलाने लगी तब )अपने हितों की रक्षा हेतु RSS का गठन एक पूर्व क्रांतिकारी के माध्यम से कराया। RSS और मुस्लिम लीग ने देश को विभाजित करा दिया। आज भी नफरत की सांप्रदायिकता फैला कर साम्राज्यवादी अमेरिका को दोनों संप्रदायों के कुछ संगठन लाभ पहुंचा रहे हैं। RSS और इसके दूसरे सहायक संगठन 'गर्व से हिन्दू'की मुहिम चलाते हैं। प्रगतिशील-बामपंथी कहलाने वाले विद्वान भी हिन्दू,इस्लाम,ईसाइयत को ही धर्म मानते हैं और प्रकट मे धर्म की आलोचना तथा छिपे तौर पर उन सांप्रदायिक गतिविधियों का पालन करते हैं। 

धर्म =सत्य,अहिंसा (मनसा,वाचा,कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के समुच्य को धर्म कहते हैं जो शरीर को धारण करने हेतु आवश्यक हैं। जो लोग 'धर्म'की आलोचना करते हैं वे इन सदगुणो का पालन न करने को प्रेरित करते हैं। इसी कारण 1917 मे सम्पन्न साम्यवादी क्रांति रूस मे विफल हो गई क्योंकि शासक पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता का शोषण कर रहे थे। आज वहाँ समाज-सरकार द्वारा स्थापित उद्योग पूर्व शासकों ने अपने भ्रष्टाचार की कमाई से खरीद लिए हैं और पूंजीपति बन गए हैं। 

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। प्रकृति के ये पाँच तत्व ही संयुक्त रूप से 'भगवान'हैं चूंकि इनको किसी ने बनाया नहीं है और ये खुद ही बने हैं इसलिए ये ही 'खुदा'हैं।  इंनका कार्य G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय) करना है इसलिए ये ही 'गाड 'हैं। जो भगवान=खुदा=गाड को दिमागी फितूर कहते हैं वे सच से आँखें मूँद लेने को ही कहते हैं। 

भगवान या खुदा या गाड =प्रकृति के पाँच तत्व । अतः इनकी पूजा का माध्यम केवल और केवल 'हवन'है। 'पदार्थ विज्ञान' =मेटेरियल साईन्स के मुताबिक अग्नि मे यह गुण है कि उसमे डाले गए पदार्थों को 'परमाणुओ' -'एटम्स'मे विभक्त कर देती है और वायु उन परमाणुओं को पर्यावरण मे प्रसारित कर देती है। अर्थात भगवान या खुदा या गाड को वे परमाणु प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि ये तत्व सर्वत्र व्यापक हैं-घट-घट वासी हैं। इनके अतिरिक्त नदी,समुद्र,वृक्ष,पर्वत,आकाश,नक्षत्र,ग्रह आदि देवताओं को भी हवन द्वारा प्रसारित परमाणु प्राप्त हो जाते हैं। 'देवता' =जो देता है ,लेता नहीं है। अतः इन प्राकृतिक संसाधनो के अतिरिक्त और कोई देवता नहीं होता है। 

विवाद तभी शुरू होता है जब हिन्दू,इस्लाम,ईसाइयत  आदि के नाम पर 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'को धर्म की संज्ञा देकर पूजा जाता है। वस्तुतः व्यापारियों-उद्योगपतियों और शासकों ने मिल कर ये विभाजन अपने-अपने व्यापार को चमकाने हेतु समाज मे कर रखे हैं। प्रगतिशील-बामपंथी जनता को इन लुटेरे व्यापारियों के चंगुल से छुड़ाने हेतु 'धर्म'की वास्तविक व्याख्या प्रस्तुत करने के बजाए धर्म का विरोध करते हैं किन्तु पाखंड से उनको गुरेज नहीं है उसे वे भी धर्म ही पुकारते हैं। दमन जनता का होता है।

आज से 10 लाख वर्ष पूर्व जब मानव अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो प्रकृति के अनुरूप समाज मे पालन करने हेतु जो नियम बनाए गए वे ही 'वेद'हैं। वेद सभी समय के सभी मनुष्यों के लिए देश-काल के भेदभाव के बिना समान व्यवहार का मार्ग बताते हैं। शासकों और व्यापारियों ने अपने निजी स्वार्थ वश 'कर्मगत'वर्ण व्यवस्था को 'जन्मगत'जाति-व्यवस्था मे परिवर्तित करके शासितों का उत्पीड़न-शोषण किया। वेदोक्त परम्पराएँ विलुप्त हो गईं और समाज मे विषमता की खाई उत्पन्न हो गई।भारत मे विदेशी शासकों के आगमन पर उनके द्वारा यहाँ की जनता को 'हिन्दू'कह कर पुकारा गया जो फारसी भाषा मे एक गंदी और भद्दी गाली है। कुछ लोग अरबी भाषा के 'स 'को 'ह 'उच्चारण से जोड़ कर हिन्दू शब्द की हिमायत करते हैं तब भी यह विदेशियों की ही देंन साबित होता है। कुछ 'कुतर्क करने वाले  लोग 'हिन्दू शब्द की प्राचीनता टटोलते फिरते हैं,किन्तु ईरानियों के आने से पूर्व बौद्ध मठों,विहारों को उजाड़ने वाले उनके ग्रन्थों को जलाने वाले हिंसक लोगों को बौद्धों ने 'हिन्दू'की संज्ञा दी थी। 'हिन्दू'शब्द विदेशी और पूरी तरह से अभारतीय है। 'कुरान'की तर्ज पर विदेशी शासकों ने यहाँ के विद्वानों को 'सत्ता'व 'धन'सुख देकर 'पुराण'लिखवाये जो वेद-विपरीत हैं। किन्तु तथा कथित गर्व से हिन्दू लोग वेद और पुराण को गड्म गड करके गुमराह करते हैं और दुखद है कि प्रगतिशील बामपंथी भी उसी झूठ को मान्यता देते हैं। 

यू एस ए की राजधानी वाशिंगटन (DC) मे अग्निहोत्र यूनिवर्सिटी मे अनवरत 24 घंटे हवन चलता रहता है जिसके परिणामस्वरूप USA के क्ष्तिज पर बना ओज़ोन का छिद्र परिपूर्ण हो गया और वह सरक कर दक्षिण-पूर्व एशिया की तरफ आ गया है। इस क्षेत्र मे प्राकृतिक प्रकोपों का कारण यह ओज़ोन छिद्र ही है जो यू एस ए आदि पाश्चात्य देशों के कुकृत्य का कुफ़ल है। किन्तु हमारे बामपंथी भाई और प्रगतिशील पत्रकार जिनमे दैनिक जागरण के चेनल IBN 7वाले प्रमुख हैं 'हवन'का घोर विरोध करते हैं-व्यंग्य उड़ाते हैं। 

यदि हमे अपने देश 'भारत'को प्रकृतिक प्रकोपों से बचाना है,अपने नागरिकों को शुद्ध पर्यावरण उपलब्ध कराना है और परस्पर भाई-चारा उत्पन्न करना है तो 'वेदोक्त हवन'का सहारा लेना ही चाहिए। अन्यथा तो जो चल रहा है चलता रहेगा फिर रोना-झींकना क्यों?

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*वेदों के 'समष्टिवाद'का ही आधुनिक रूप है 'साम्यवाद'जिसका निरूपण किया जर्मनी के महर्षि कार्ल मार्क्स ने उन जर्मन ग्रन्थों के अवलोकन के पश्चात जो वेदों की मूल पांडु लिपियों से अनूदित थे। लेकिन भारतीय साम्यवादी विद्वान 'साम्यवाद'को पाश्चात्य विज्ञान मानते हैं और इसी मुगालते मे जनता से कटे रहते हैं। वस्तुतः 'साम्यवाद'='समष्टिवाद'मूल रूप से भारतीय अवधारणा है और इसे लागू भी तभी किया जा सकेगा जब हकीकत को समझ लिया जाएगा।
http://krantiswar.blogspot.in/2012/08/blog-post_3188.html

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योगीराज श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन शोषण-उत्पीड़न और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते हुये ही बीता किन्तु ढ़ोंगी-पोंगापंथी-पुरोहितवाद ने आज श्री कृष्ण के संघर्ष को 'विस्मृत'करने हेतु उनको अवतार घोषित करके उनकी पूजा शुरू करा दी। कितनी बड़ी विडम्बना है कि 'कर्म'पर ज़ोर देने वाले श्री कृष्ण के 'कर्मवाद'को भोथरा करने के लिए उनको अलौकिक बता कर उनकी शिक्षाओं को भुला दिया गया और यह सब किया गया है शासकों के शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु। अनपढ़ तो अनपढ़ ,पढे-लिखे मूर्ख ज़्यादा ढोंग-पाखंड मे उलझे हुये हैं।

तथा कथित प्रगतिशील साम्यवादी बुद्धिजीवी जिंनका नेतृत्व विदेश मे बैठे पंडित अरुण प्रकाश मिश्रा और देश मे उनके बड़े भाई पंडित ईश मिश्रा जी  करते हैं सांप्रदायिक तत्वों द्वारा निरूपित सिद्धांतों को धर्म मान कर धर्म को त्याज्य बताते हैं। जबकि धर्म=जो शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक है वही 'धर्म'है;जैसे-सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । अब यदि ढ़ोंगी प्रगतिशीलों की बात को सही मान कर धर्म का विरोध किया जाये तो हम लोगों से इन सद्गुणों को न अपनाने की बात करते हैं और यही कारण है कि सोवियत रूस मे साम्यवाद का पतन हो गया(सोवियत भ्रष्ट नेता ही आज वहाँ पूंजीपति-उद्योगपति हैं जो धन जनता और कार्यकर्ता का शोषण करके जमा किया गया था उसी के बल पर) एवं चीन मे जो है वह वस्तुतः पूंजीवाद ही है।दूसरी ओर थोड़े से  पोंगापंथी केवल 'गीता'को ही महत्व देते हैं उनके लिए भी 'वेदों'का कोई महत्व नहीं है। 'पदम्श्री 'डॉ कपिलदेव द्विवेदी जी कहते हैं कि,'भगवद  गीता'का मूल आधार है-'निष्काम कर्म योग'
"कर्मण्ये वाधिकारस्ते ....................... कर्मणि। । " (गीता-2-47)

इस श्लोक का आधार है यजुर्वेद का यह मंत्र-
"कुर्वन्नवेह कर्मा................... न कर्म लिपयाते नरो" (यजु.40-2 )

इसी प्रकार सम्पूर्ण बाईबिल का मूल मंत्र है 'प्रेम भाव और मैत्री'जो यजुर्वेद के इस मंत्र पर आधारित है-
"मित्रस्य मा....................... भूतानि समीक्षे।  ....... समीक्षा महे । । " (यजु .36-18)

एवं कुरान का मूल मंत्र है-एकेश्वरवाद-अल्लाह की एकता ,उसके गुण धर्मा सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान,कर्त्ता-धर्त्तासंहर्त्ता,दयालु आदि(कुरान7-165,12-39,13-33,57-1-6,112-1-4,2-29,2-96,87-1-5,44-6-8,48-14,1-2,2-143 आदि )। 

इन सबके आधार मंत्र हैं-

1-"इंद्रम मित्रम....... मातरिश्चा नामाहू : । । " (ऋग-1-164-46)
2-"स एष एक एकवृद एक एव "। । (अथर्व 13-4-12)
3-"न द्वितीयों न तृतीयच्श्तुर्थी नाप्युच्येत। । " (अथर्व 13-5-16)
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 'आर्य'=श्रेष्ठ अर्थात वे स्त्री पुरुष जिनके आचरण और कार्य श्रेष्ठ हैं 'आर्य'है इसके विपरीत लोग अनार्य हैं। न यह कोई जाति थी न है।


'आर्य'सार्वभौम शब्द है और यह किसी देश-काल की सीमा मे बंधा हुआ नहीं है। आर्यत्व का मूल 'समष्टिवाद'अर्थात 'साम्यवाद'है। प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यज्ञ -हवन किये जाते थे। अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे.'भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था.Generator,Operator ,Destroyer भी ये तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही 'खुदा'भी है।  अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.
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शीशे की तरह चमकता हुआ साफ़ है कि वैदिक संस्कृति हमें जन  पर आधारित अर्थात  समष्टिवादी बना रही है जबकि आज हमारे यहाँ व्यष्टिवाद हावी है जो पश्चिम के साम्राज्यवाद की  देन है। दलालों के माध्यम से मूर्ती पूजा करना कहीं से भी समष्टिवाद को सार्थक नहीं करता है,जबकि वैदिक हवन सामूहिक जन-कल्याण की भावना पर आधारित है। IBN 7 के पत्रकार हवन का विरोध पोंगापंथ को सबल बनाने हेतु करते है और दूसरे चेनल वाले भी। साम्राज्यवादी -विदेशी तो खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए वेदों का विरोध करते ही हैं एवं उनके निष्कर्षों का लाभ लेकर उसे अपना आविष्कार बताते हैं।

ऋग्वेद के मंडल ५/सूक्त ५१ /मन्त्र १३ को देखें-

विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये.
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्व्हंससः ..

(जनता की कल्याण -कामना से यह यज्ञ  रचाया.
विश्वदेव के चरणों में अपना सर्वस्व चढ़ाया..)

जो लोग (अरुण प्रकाश मिश्रा -ईश मिश्रा जी और उनके चेले सरीखे )धर्म की वास्तविक व्याख्या को न समझ कर गलत  उपासना-पद्धतियों को ही धर्म मान कर चलते हैं वे अपनी इसी नासमझ के कारण ही  धर्म की आलोचना करते और खुद को प्रगतिशील समझते हैं जबकि वस्तुतः वे खुद भी उतने ही अन्धविश्वासी हुए जितने कि पोंगा-पंथी अधार्मिक होते हैं। 

ऋग्वेद के मंडल ७/सूक्त ३५/मन्त्र १ में कहा गया है-

शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या डे
शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयो :शन्न इन्द्रा पूष्णा वाजसात..

(सूर्य,चन्द्र,विद्युत्,जल सारे सुख सौभाग्य बढावें.
रोग-शोक-भय-त्रास हमारे पास कदापि न आवें..)

वेदों में किसी व्यक्ति,जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,देश-विशेष की बात नहीं कही गयी है.वेद सम्पूर्ण मानव -सृष्टि की रक्षा की बात करते हैं.इन्हीं तत्वों को जब मैक्समूलर साहब जर्मन ले गए तो वहां के विचारकों ने अपनी -अपनी पसंद के क्षेत्रों में उनसे ग्रहण सामग्री के आधार पर नई -नई खोजें प्रस्तुत कीं हैं.जैसे डा.हेनीमेन ने 'होम्योपैथी',डा.एस.एच.शुस्लर ने 'बायोकेमिक' भौतिकी के वैज्ञानिकों ने 'परमाणु बम'एवं महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'वैज्ञानिक समाजवाद'या 'साम्यवाद'की खोज की। 


दुर्भाग्य से महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी अन्य विचारकों की भाँती ही गलत उपासना-पद्धतियों (ईसाइयत,इस्लाम और हिन्दू ) को ही धर्म मानते हुए धर्म की कड़ी आलोचना की है ,उन्होंने कहा है-"मैंन  हैज क्रियेटेड द गाड फार हिज मेंटल सिक्योरिटी ओनली".आज भी उनके अनुयाई एक अन्धविश्वासी की भांति इसे ब्रह्म-वाक्य मान कर यथावत चल रहे हैं.जबकि आवश्यकता है उनके कथन को गलत अधर्म के लिए कहा गया मानने की.'धर्म'तो वह है जो 'धारण'करता है ,उसे कैसे छोड़ कर जीवित रहा जा सकता है.कोई भी वैज्ञानिक या दूसरा विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि वह-भूमि,गगन,वायु,अनल और नीर (भगवान्,GODया खुदा जो ये पाँच-तत्व ही हैं )के बिना जीवित रह सकता है.हाँ ढोंग और पाखण्ड तथा पोंगा-पंथ का प्रबल विरोध करने की आवश्यकता मानव-मात्र के अस्तित्व की रक्षा हेतु जबरदस्त रूप से है।  
http://krantiswar.blogspot.in/2012/08/blog-post_9.html

~विजय राजबली माथुर ©
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बर्धन होना एक बहुत मुश्किल काम है ------ कामरेड बादल सरोज

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वे जीवन भर पार्टी के होलटाइमर रहे । उनकी पत्नी कालेज पढ़ाकर घर चलाती रहीं। इस उम्मीद के साथ कि फंड और ग्रेच्युटी के पैसों से रिटायरमेंट के बाद का वक़्त गुजर जाएगा। रिटायरमेंट के बाद मिली पूरी रकम को यूटीआई की एक योजना में जमा कर दिया गया - और विडम्बना यह रही कि वह डूब गयी। इस हादसे की जानकारी बर्धन साब ने एक पत्रकारवार्ता में ठहाका लगाते हुए दी थी। स्थितप्रज्ञता इसी स्थिति को कहते हैं।
ऐसी विरली शख्सियत - फिर भले वह कितनी भी पकी उम्र में क्यों न जाए- एक बड़ी रिक्ति , महाकाय शून्य पैदा करके जाती है।

 Badal Saroj
कामरेड ए बी बर्धन नहीं रहे। फ़िराक गोरखपुरी से रियायत लेते हुए यह कहने का मन है कि ; 
 "आने वाली नस्लें तुम से रश्क़ करेंगी हमअसरो जब उनको मालूम पडेगा तुमने बर्धन को देखा था "
भारतीय राजनीति की उस पीढ़ी की ऐसी धारा के - संभवतः आख़िरी - बुजुर्ग थे बर्धन जिसने शब्दशः खुद को मोमबत्ती की तरह जलाकर अँधेरे के गरूर को तोड़ा है, उजाले की आमद के प्रति उम्मीद बनाये रखी है। ऐसी विरली शख्सियत - फिर भले वह कितनी भी पकी उम्र में क्यों न जाए- एक बड़ी रिक्ति , महाकाय शून्य पैदा करके जाती है। 25 सितम्बर 1925 को जन्मे अर्धेन्दु भूषण बर्धन जब 15 साल के थे तब ही देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे । 1940 में वे आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्य बने, 1941 में नागपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए । विद्यार्थियों के बड़े जत्थे के साथ उन्होंने 1942 के भारत छोडो आंदोलन में भाग लेते हुए जेल काटी । 17 वर्ष की नाबालिग उम्र से आंदोलनों और जेल के साथ उनका जो रिश्ता कायम हुआ वह तकरीबन आख़िरी सांस तक बना रहा । 1957 में वे महाराष्ट्र विधानसभा के लिए चुने गए । स्थानीय श्रमिक आन्दोलनों से ऊपर उठते उठते वे आल इंडिया ट्रेड यूनियन के महासचिव और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारियों तक पहुंचे ।
यह तथ्यात्मक विवरण जीवनीकार के लिए उपयोगी हो सकता है । मगर यह बर्धन जैसे व्यक्तित्व को जानने के लिए बहुत नाकाफी है । वे बहुत बड़े कद के व्यक्तित्व थे और यह कद उन्होंने किसी सोने या चांदी की आरामदेह सीढ़ी पर चढ़कर नहीं गाँव शहर में छोटे बड़े संघर्षों में लड़ते भिड़ते हासिल किया था । बिना किसी तरह का समझौता किये, बिना कोई पतली गली या शार्ट कट ढूंढें।
बर्धन जिस दिशा के प्रति ताउम्र समर्पित रहे, उस दिशा में कुछ और मजबूत कदम आगे बढ़के ही उन्हें सच्ची श्रद्दांजलि दी जा सकती है।
बर्धन साब के व्यक्तित्व में चमत्कारिक सरलता और चुम्बकीय आकर्षण दोनों थे । वे अथक प्रेरक थे । अमोघ वक्ता होना एक गुण है, मगर बोलते समय परिस्थितियों की कठिनता का हवाला देते हुए उनसे बाहर निकल आने का यकीन पैदा करना एक असाधारण योग्यता है । यह एकदम साफ़ समझ और अटूट समर्पण से पैदा होती है । बर्धन साब के तमाम भाषण आन्दोलनकर्ता (agitator) और प्रचारकर्ता (propagandist) का मेल हुआ करते थे । वे बाँध लेने वाली शैली में बोलते थे किन्तु रिझाने या सहलाने वाली अदा से काम नहीं लेते थे । उनकी स्टाइल कुरेदने और झकझोरने वाली हुआ करती थी । मगर उसमे भी एक निराली निर्मलता होती थी ।
बर्धन वाम आंदोलन में उस वक़्त शामिल हुए थे जब दुनिया में समाजवाद की विजय यात्रा चल रही थी। वे जिस दौर में जवान हुए वह दौर फासिज्म की ऐतिहासिक शिकस्त का दौर था। इंक़लाब की आहटों से विश्व - खासतौर से तीसरी दुनिया - गूँज रही थी। बर्धन जिस दौर में प्रौढ़ और बुजुर्ग हुए वह एक तरह से दुःस्वप्न की वापसी का दौर था। दुनिया को एक गाँव में बदल देने वाला फलसफा सिर्फ आर्थिक वर्चस्व तक ही महदूद नहीं रहा था। वह जीवन शैली, (कु) विचार, मानवता विरोधी मूल्यों के विस्तार में भी हावी हो रहा था। बर्धन साब की महानता इस बात में निहित थी कि वे पूर्णिमा के अमावस में तब्दील होजाने की स्थिति से घबराये नहीं। सामाजिक विकास की वैज्ञानिक समझ ने उन्हें कभी लड़खड़ाने नहीं दिया। समाज इस तरह की वैचारिक प्रतिबद्दताओं से - जब भी बदलता है - ही बदलता है। इस तरह की परीक्षा से गैलीलियो, कोपरनिकस, सुकरात, बृहस्पति, चार्वाक, कबीर यहां तक कि बुद्द तक को गुजरना पड़ा। अग्निपरीक्षा बर्धन साब पर भी गुज़री - मगर उसके ताप से डरकर उन्होंने छाँव नहीं ढूंढी। इतिहास घनी छाया में बैठने वाले नहीं, तपती धूप में नंगे पाँव विचरने वाले लिखते हैं। बर्धन उन्ही में से एक थे।
वे उन कुछ नेताओं में से एक थे जो कम्युनिस्ट पार्टियों के विभाजन के बाद के दौर के तीखे क्लेशपूर्ण वातावरण के बावजूद दोनों ही पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच मकबूल थे । (राजेन्द्र शर्मा प्रलेस वालों से मिली कुछ आत्मकथाओं में से एक चिटनीस साब की आत्मकथा में बर्धन साब के बारे में लिखी बातों को पढ़कर महसूस हुआ कि उनकी इस स्वीकार्यता ने उन्हें डांगे साब के कुछ अति करीबियों की गुस्सा और आक्रोश तक का शिकार बना दिया था । सही रुख पर कायम रहने की जहमत जोखिम तो होती ही हैं ।)
इस अवसर पर कामरेड बर्धन के साथ के तीन अनुभव साझे करने के साथ उनके कुछ यादगार शिक्षाप्रद पहलू रखना उचित होगा।
एक :
2 अप्रैल 1995 । चंडीगढ़ में हुयी पार्टी की 15 वीं कांग्रेस (महाधिवेशन) की शुरुआत की सुबह ।
झंडारोहण की जगह पर विशिष्ट अतिथियों और वेटरन्स (वरिष्ठो) के लिए कोई एक डेढ़ दर्जन कुर्सियां रखी गयी थी । हम लोग, अनधिकृत ही, इनकी सबसे पहली कतार में अपने दोनों बड़े वरिष्ठों -यमुना प्रसाद शास्त्री और सुधीर मुखर्जी को बिठा आये । सुधीर दादा सीपीआई के देश के प्रमुख और मप्र के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे, कुछ ही समय पहले वे सीपीआई (एम) में शामिल हुए थे । (यूं इन दोनों स्थापित नेताओं का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना, वह भी मध्यप्रदेश में, एक बड़ी और विरल राजनीतिक घटना थी । सुधीर दा के निर्णय के दोनों वाम पार्टियों के बीच अन्योन्यान्य असर भी हुए थे । बहरहाल यहां प्रसंग चंडीगढ़ है ।) जहां हम सुधीर दा को बिठा कर आये थे, थोड़ी ही देर में एकदम उनकी बगल की सीट पर सीपीआई के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव आकर बैठ गये । कुछ ही समय पहले अपनी पार्टी छोड़कर जाने वाले कामरेड के एकदम पास बैठना, दोनों ही के लिए, एक असुविधाजनक स्थिति हो सकती थी । मगर, बजाय चिड़चिड़ाने या मुंह मोड़कर बैठने के उन्होंने सुधीर दा का हाथ थामा । बोले, तबियत कैसी है ? सुधीर दा ने कहा ठीक है । वे बोले, "बहुत अच्छे और फ्रेश लग रहे हैं ।"इसी के साथ जोड़ा कि "जहां मन अच्छा रहे, वहीँ रहना चाहिए ।"इस वाक्य के बाद दोनों ने इतनी जोर का ठहाका लगाया कि ज्योति बसु, सुरजीत सहित नजदीक बैठे सभी नेता उन दोनों की ओर देखने लगे । ऐसे थे कामरेड ए बी बर्धन । बर्फ पिघली तो सुधीर दा ने कामरेड शैली को बुलाया और बर्धन साब से परिचय कराते हुए बताया कि ये हैं हमारे यंग सेक्रेटरी । बर्धन साब शैली से बोले : टेक केअर ऑफ़ दिस ओल्ड यंग मैन !!
दो :
10-15 साल पहले कभी गांधी भवन भोपाल । ट्रेड यूनियनो का संयुक्त सम्मेलन । हर संयुक्त सम्मेलनों की तरह साझा भी, विभाजित भी । अपने अपने वक्ता का नाम आने पर सभागार के अलग अलग कोनो से उठती ज़िंदाबाद की पुकारें । बर्धन साब का नाम आते ही जिस हिस्से में एटक का समूह बैठा था वहां से नारे शुरू हुए । जाहिर तौर पर झुंझलाए दिख रहे बर्धन साब ने अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को फटकारने के बहाने सभी की जोरदार खिंचाई करते हुए कहा कि इस हॉल में गला फाड़ प्रतियोगिता में जीतने में ताकत खर्च करने की बजाय उसे बाहर मध्यप्रदेश के शहरों गाँवों मे जो करोड़ों मजदूर हैं, उन्हें संगठित करने में खर्च करो । जीत हार का फैसला उसी रणक्षेत्र में होना है । उनके कहे पर फिर नारे उठे, तालियां बजी । मगर इस बार किसी एक समूह से नहीं, समूचे हॉल से, जिसकी गूँज बाहर तक सुनाई दी।
तीन :
वे जीवन भर पार्टी के होलटाइमर रहे । उनकी पत्नी कालेज पढ़ाकर घर चलाती रहीं। इस उम्मीद के साथ कि फंड और ग्रेच्युटी के पैसों से रिटायरमेंट के बाद का वक़्त गुजर जाएगा। रिटायरमेंट के बाद मिली पूरी रकम को यूटीआई की एक योजना में जमा कर दिया गया - और विडम्बना यह रही कि वह डूब गयी। इस हादसे की जानकारी बर्धन साब ने एक पत्रकारवार्ता में ठहाका लगाते हुए दी थी। स्थितप्रज्ञता इसी स्थिति को कहते हैं।
बर्धन होना एक बहुत मुश्किल काम है। सलाम कामरेड बर्धन। आपके बाद की पीढ़ी आपके श्रम और कुर्बानी को व्यर्थ नहीं जाने देगी।




(लेखक कामरेड बादल सरोज जी मध्य -प्रदेश माकपा के प्रदेश सचिव )

 ~विजय राजबली माथुर 
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विपक्ष में लाल बहादुर शास्त्री जैसे अदम्य साहसी नेता की परमावश्यकता ------ विजय राजबली माथुर

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51 वीं पुण्यतिथि पर शास्त्री जी की आवश्यकता आज क्यों? : 


इतिहासकार रामचन्द्र गुहा साहब ने 1965 में हुये भारत-पाक संघर्ष के विजेता के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के साहस व निर्णय की सराहना करने के साथ-साथ उन परिस्थितियों की ओर भी संकेत किया है जो दोनों देशों के मध्य विवाद का हेतु हैं।

वस्तुतः 1857 की प्रथम क्रान्ति केबाद से ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी फूट डालो और शासन करो की जिस नीति पर चलते आ रहे थे उसके बावजूद जब 1942 के भारत-छोड़ो आंदोलन, एयर-फोर्स व नेवी में विद्रोह तथा आज़ाद हिन्द फौज की गतिविधियों के कारण जब उनका टिके रहना मुश्किल हो गया तब नए साम्राज्यवादी सरगना यू एस ए ने भारत-विभाजन का सुझाव दिया जिस पर मेजर लार्ड ऐटली ने अपने प्रधान मंत्रित्व काल में अमल करते हुये पाकिस्तान व भारत दो स्वतंत्र देशों को सत्ता सौंप दी थी। पाकिस्तान तो तत्काल अमेरिकी प्रभुत्व में चला गया था किन्तु नेहरू जी ने गुट-निरपेक्ष आंदोलन के बैनर तले अमेरिका से दूरी बनाए रखी थी जिस कारण वह पाकिस्तान के माध्यम से भारत को परेशान करता रहा था। 1947 के बाद 1965 का संघर्ष भी उसी कड़ी में था और 1971 का बांग्लादेश व 1999 का कारगिल संघर्ष भी ।

जब जिया-उल-हक साहब कीउपयोगिता अफगान समस्या के बाद समाप्त हो गई तब यू एस ए ने उनको अपने राजदूत की कीमत पर भी हवाई जहाज समेत उड़ा दिया था। ओसामा-बिन-लादेन के सफाये के साथ ही यू एस ए ने पाकिस्तान की सार्वभौमिकता को अमान्य कर दिया है। उसके लिए अब पाकिस्तान उपयोगी नहीं रह गया है विशेषकर तब जब मोदी के नेतृत्व में आर एस एस समर्थक सरकार भारत में गठित हो चुकी है। जब सरकार के माध्यम से भारत को अपने समर्थन में यू एस ए खड़ा देख रहा है तब पाकिस्तान के अस्तित्व का मतलब ही क्या रह जाता है? 
अनुच्छेद 370 को समाप्त कराने की मांग उठाते रहे लोग जब सत्ता में मजबूती से आ गए हैं तब बिना पाकिस्तान के अस्तित्व के ही'जोजीला'दर्रे में स्थित 'प्लेटिनम'जो 'यूरेनियम'के उत्पादन में सहायक है यू एस ए को देर सबेर हासिल होता दीख रहा है । अड़ंगा चीन व रूस की तरफ से हो सकता है और उस स्थिति में भारत-भू 'तृतीय विश्वयुद्ध'का अखाड़ा भी बन सकती है। देश और देश कि जनता का कितना नुकसान तब होगा उसका आंकलन वर्तमान सरकार नहीं कर सकती है तो क्या विपक्ष भी नहीं करेगा ? और जनता से तादात्म्य स्थापित करने का कोई प्रयास साम्राज्यवाद विरोधी खेमे की ओर से भी अभी तो नहीं हो रहा है अभी तो वही पुरानी लीक ही पीटी जा रही है जिसका इस देश कि जनता पर कभी भी कोई भी असर हो ही नहीं सकता है। 

प्रस्तुत समाचार व अमेरिकी प्रवक्ता के बयान के लिंक  यू एस ए अभियान की पुष्टि करते हैं।


http://navbharattimes.indiatimes.com/world/america/is-us-hinting-at-covert-operation-after-pathankot-terror-attack/articleshow/50516993.cms?

 इस वक्त पाकिस्तान कोझुका कर यू एस ए भारत में मोदी की हैसियत को मजबूत करना चाहता है जिनकी सरकार का लोकप्रिय होना दीर्घकालीन अमेरिकी हितों के अनुरूप होगा। निकट भविष्य में पाकिस्तान के स्थान पर कई छोटे-छोटे देश सृजित करवा कर अमेरिका भारत की बहुसंख्यक जनता के दिलों में अपना राज जमा कर अपने देश के व्यापारिक हितों को ही साधेगा जबकि यहाँ की जनता को लगेगा कि वह यहाँ कि बहुसंख्यक जनता का हितैषी है और यह सब मोदी व उनकी सरकार के चलते संभव हुआ है। 

अतः इस बात की कोई सम्भावना नहीं है कि ( जैसा कि इतिहासकार महोदय कल्पना कर रहे हैं ) मोदी साहब शास्त्री जी जैसी (1965 ) या इंदिरा जी जैसी (1971 ) दृढ़ता दिखाएंगे। तब तक भारत से नेहरू जी की  व्यावहारिक नीतियों का सफाया नहीं हुआ था और देश का स्वाभिमान कायम था। लेकिन 1975  में हुये देवरस-इन्दिरा 'गुप्त-समझौते'के तहत 1980 में इंदिराजी की पुनर्वापसी से देश में आर एस एस का जो प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ था वह 1991 में मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री बनने के साथ ही मजबूत होता गया तथा 13 दिन, 13 माह और 60 माह की ए बी वाजपेयी सरकारों के दौरान उसने शासन-प्रशासन और इंटेलीजेंस में तगड़ी पकड़ बना ली थी। मनमोहन सिंह जी का 120 माह का कार्यकाल आर एस एस की दोहरी खुशियों का था जिसमें सत्ता व विपक्ष उसके ही इशारे पर चल रहा था। मोदी के सत्तारोहण ( जिसमें मनमोहन सिंह जी का सक्रिय योगदान है ) से सत्ता तो सीधे-सीधे आर एस एस से ही प्रभावित है किन्तु अब विपक्ष को पुनः अपनी पकड़ में लाने हेतु आर एस एस तमाम तिकड़में एक साथ चल रहा है। आ आ पा के रूप में उसे एक नया राजनीतिक दल तो मिल ही चुका है पुराने क्षेत्रीय दलों जैसे सपा, बसपा आदि-आदि को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित करके आर एस एस राजनीति में व्यापक रूप से अपने पैर पसार रहा है। भारत में सर्वहारा (दलित ) वर्ग को व्हाईट हाउस की नीतियों के तहत मोदी के पीछे गुप-चुप ढंग से लामबंद किया जा रहा है। 

अफसोसनाक बात यह है कि साम्राज्यवाद विरोधी साम्यवाद/वामपंथ के हिमायती यू एस ए व आर एस एस के इस अभियान का कोई विकल्प न प्रस्तुत करके उनकी चालों का शिकार होते जा रहे हैं और अपने ही हाथों अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चलाते जा रहे हैं। पोंगापंथ, ढोंगवाद/ब्रहमनवाद तेजी से अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है और प्रगतिशीलता/वैज्ञानिकता के नाम पर जिस तरीके से उसका विरोध किया जाता है उससे उसे अत्यधिक मजबूती ही मिलती जाती है। आज जब जनता को वास्तविक धर्म का मर्म समझाये जाने कि ज़रूरत थी तब माकपा महासचिव उसी पोंगापंथ के पथ का अनुसरण करके अंततः अपने विरोधियों को ही शक्तिशाली बनाने का कार्य शुरू कर चुके हैं। आज शासन में  तो अब संभव ही नहीं  है  अतः विपक्ष में लाल बहादुर शास्त्री जैसे अदम्य साहसी नेता की परमावश्यकता है जो जनता का दिल जीत कर किसान,जवान और मजदूर के हितों का संघर्ष चला कर नेतृत्व कर सके। 



~विजय राजबली माथुर ©
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नेताजी सुभाष के ग्रह-योग और विमान हादसा ------ विजय राजबली माथुर

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 नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 120 वीं वर्षगांठ पर एक स्मरण :





डॉ नारारायन दत्त श्रीमाली साहबद्वारा किए  उपरोक्त विश्लेषण को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर चरितार्थ देखा जा सकता है। उनके संबंध में खास तौर पर विमान हादसे में उनके निधन होने की खबर के संबंध में नेहरू जी की विरोधी शक्तियों- आर एस एस आदि ने विभ्रम फैला रखा है जिस कारण सरकार ने अनेकों जांच बैठाईं जिनमें विमान हादसे में उनकी मृत्यु की पुष्टि की गई है। 
हिंदुस्तान टाईम्स की ओर से प्रसून सोनवाकर साहब नेनेताजी की पुत्री अनीता बोस जीका एक साक्षात्कार ( नीचे प्रस्तुत है )कल 22 जनवरी 2016 को प्रकाशित किया है जिसमें उन्होने भी विमान हादसे में नेताजी सुभाष की मृत्यु होने की बात स्वीकारी है। उन्होने तो विभ्रम फैलाने वालों के प्रति नाराजगी भी प्रकट की है। लेकिन हम यहाँ नेताजी की प्रस्तुत जन्म-कुंडली के आधार पर कुछ बातों पर प्रकाश डालने का प्रयास कर रहे हैं :

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जन्म-कुंडली में 'शनि'अपने विरोधी ग्रह 'मंगल'की 'वृश्चिक'राशि में स्थित है। ऐसा शनि अल्प-आयु योग देता है। यही शनि गलत-फहमियेँ उत्पन्न करता है व मुक़दमेबाज़ी का शिकार बनाता है। अष्टम भाव की वृश्चिक राशि यह सूचित करती है कि, अंतिम दिनों में जातक या तो रुधिर विकार का सामना करता है या फिर त्वचा विकार का सामना करता है , ऐसे व्यक्ति को विष भी दिया जा सकता है। 

विमान हादसे : 18 अगस्त 1945 के समय नेताजी 48 वर्ष 07 माह की आयु (जो अल्प-आयु ही है ) पूर्ण कर चुके थे और जन्म-तिथि 23 जनवरी 1897 से गणना के आधार पर 'ब्रहस्पति'की महादशा के अंतर्गत 'राहू'की अंतर्दशा में थे जो 26 सितंबर 1945 तक चलनी थी। 'राहू'पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव है जिसे छाया ग्रह के रूप में गणना में शामिल किया जाता है और इसका प्रभाव 'शनि'के समान ही होता है। शनि एक वायु प्रधान ( गैसों का भंडार ) ग्रह है। आयु के अनुसार नेताजी अपने जन्म-लग्न की 'मेष'राशि में संचार कर रहे थे जो स्वम्य भी 'अग्नि'राशि है और जिसका स्वामी ग्रह 'मंगल'भी एक अग्नि ग्रह है जिस कारण ही मंगल को 'अंगरकाय'भी कहा जाता है। इस राशि पर  नेताजी के कर्म भाव में स्थित राहू की चतुर्थ दृष्टि भी पड़ रही है। इस प्रकार 'वायु'और 'अग्नि'के संयोग ने नेताजी के विमान को दुर्घटना का शिकार बनाया और उसमें जलने से उनका प्राणान्त हो गया। यह अलग बात हो सकती है कि यह दुर्घटना मात्र दुर्घटना न हो शत्रु का निशाना हो, परंतु नेताजी के जन्म-कालीन ग्रहों के अनुसार उनका निधन उस विमान हादसे में ही हुआ प्रतीत होता है। 
(विजय राजबली माथुर )


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My father would’ve been prominent alternative to Nehru: Bose’s daughter

  • Prasun Sonwalkar, Hindustan Times, Ausburg, Germany
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  • Updated: Jan 22, 2016 09:25 IST







Netaji Subhas Chandra Bose’s daughter is annoyed that instead of accepting evidence, many continue to be excited with “asinine” theories that he survived the plane crash in Taipei in 1945 and lived in the mountains as “Gumnami Baba”.
Anita Bose Pfaff, 73, was about a month old when Bose saw her for the last time in Vienna. She is convinced Bose died in the crash on August 18, 1945, and has proposed a DNA test on his remains kept at Renkoji Temple in Japan. Speaking to Hindustan Times shortly before the Narendra Modi government begins releasing declassified files related to Bose, Pfaff said she supported the move but doubted if it would end the “fruitless” controversy.
A former academic and economist, she spoke on a range of issues, including the relationship between her mother, Emily Schenkl, and her iconic father.
Excerpts:
Q: Are you convinced that your father died in the air crash?
A: I think that is the most likely thing to have happened. If we get evidence that supports something else, I am open to that but so far I have not seen any evidence which is more convincing. In the beginning we all doubted that he died in the plane crash but as time passed some things came out and I was also present in the interview of some people who were survivors of that plane crash. It sounded very convincing.
Q: Since there is so much evidence about the crash and witness statements, do you think it is time to put this controversy to rest?
A: I wish so, it is rather fruitless with all these rather asinine theories being advanced, including that he is still alive, god knows where, or that he lived in the mountains as ‘Gumnami Baba’, which is an insult to him, because how can anyone believe that a person who was so dedicated to his country would then go and live in the mountains and not involve himself at all and not get in touch with any member of his family?
Ultimately, it is a very uninteresting controversy. Sometimes I am really annoyed. My father gave so much of his life to his country and then he is remembered by some people as , ‘Oh, he is that chap about whose death there is a controversy’. Is that the only claim to fame that he has? It’s really not a very fair reflection on his life and his contribution to the independence struggle.
Q: Do you think the files being declassified from Saturday will help put the controversy to rest?
A: I doubt it very much because these files will cover any number of interesting details, maybe interesting to historians, corroborate something, contradict other things, some of them new, some of them not really new, but I doubt very much that the convincing story about the plane crash not having happened, which some expect, is going to come out of that.
Q: You mentioned the idea of a DNA test on the remains in the Renkoji temple in Japan.
A: Yes. The two governments – India and Japan – need to be involved, they need to agree, because without that the priest of the temple will not agree to hand over the material. There are bones but if the bones are charred very badly you cannot extract the DNA. Some specialists in the field have looked at the pictures of the bones and they say it’s quite conceivable that one could (extract DNA) because there are larger parts of the jaw and so on and that the DNA could be extracted from the centre of the bones. I think one should try. Originally, I was a bit hesitant because I felt the Japanese would feel very insulted but this whole rather undignified discussion which has been going on over decades can possibly be, well not put to rest, because there will be some people who will not take DNA proof as proof either. But I think rational people would at least accept the outcome of that, whichever way it were to go. The danger is that maybe the Japanese government feels that, well, what if they are not his remains - then they will sort of feel embarrassed. That is an issue where they may dilly-dally around it.
Q: Would you like the ashes to go to India?
A: If the proof of the DNA test shows that and the Japanese would be amenable to that, I think it would be better (if they are taken to India). If we cannot have a DNA test I personally would not mind if they came to India but if we were to face a very ugly controversy – from including members of my family – I think we could save ourselves that trouble (laughs).
Q: Do you think India would be different if your father were alive?
A: First, I am convinced that if he were alive he would have involved himself in the politics of the time. That might have had a number of consequences. There would have been a prominent alternative to Nehru. Of course we must consider that on some issues they had very similar views. They were both in essence in favour of a political system which was not dominated by communal controversies. They were both modern in the sense that they wanted industrialisation. But on the other hand, there would have been differences; for example, I imagine his position vis-à-vis Pakistan would have been different. Nobody really wanted or expected what happened after Partition. The amount of genocide left wounds on both sides which were difficult to overcome but I imagine he would have a different view towards Pakistan. If he could not prevent Partition – both he and Gandhi wanted to prevent it – I think he probably would have tried and succeeded in having better relations with Pakistan…India has been suffering less from the controversies (since independence) because with all the problems India faces, it is a functioning state, and from that point of view Pakistan is in a much worse position.
Q: What is your memory of your father, your assessment of him as a person; what did your mother say to you about him?
A: I have no recollection of him at all. He was a person very dedicated to the cause of fighting for India’s independence. Of course, my mother told me a number of things about him. Well, she was certainly a biased person in that matter, of course. Given the circumstances, one has to be surprised that she was willing to share her life with a person who was so dedicated to a cause which took him away. Looking at this as an adult it is really more surprising that she always spoke well of him and did not criticise him because he really must have been a disaster of a husband…She was better at maintaining correspondence with members of my family than I am.
Q: Prime Minister Narendra Modi was in Berlin last year, but you did not meet him.
A: I was invited to the reception in Berlin but I decided not to go because I felt he is so busy with any number of topical issues on the Indo-German relations, so certainly talking to him about anything pertaining to my father would have just added a totally different issue which in essence would have been a burden on him I felt. And just to go and say Namashkar (laughs)…I am sure he would have met me for a few minutes but I felt this would have been more symbolic than anything else. His office has been in touch; they asked several times if I would be coming for the 23 January event (declassification of files) but few days ago I told them I won’t be able to make it; they even told me that he would meet me privately, but maybe I will go later in the year. The embassy told me that they would make an appointment for me to see him.
साभार :http://www.hindustantimes.com/india/theories-that-he-survived-the-plane-crash-are-asinine-bose-s-daughter/story-9EP1GPyVptPsJBobAO30sM.html 


~विजय राजबली माथुर ©
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कायस्थों को सावधान रहना चाहिए ब्राह्मणवादी चालों से ------ विजय राजबली माथुर

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 नेताजी सुभाष बोस की जयंती पर कायस्थ समाज की महिला शाखा द्वारा डॉ राजेन्द्र प्रसाद को संविधान निर्माता का श्रेय दिये जाने का मांग-पत्र  ए डी एम प्रशासन राजेश कुमार पाण्डेय को सौंप कर आर एस एस की ब्राह्मणवादी चाल में फँसने का प्रमाण दे दिया गया  है। 

वर्णाश्रम व्यवस्था से ऊपरस्थान वाले 'कायस्थ'को पहले तो ब्राह्मणों के आधीन घोषित किया गया फिर अब दलित कहे जाने वाले वर्ग से टकराव में ब्राह्मणों की 'ढाल'बनने को उत्प्रेरित किया गया है। 

वस्तुतः डॉ राजेन्द्र प्रसादसंविधान सभा के अध्यक्ष थे जबकि 'संविधान'का प्रारूप तैयार करने वाली कमेटी के अध्यक्ष डॉ भीम राव अंबेडकर थे। खुद डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा डॉ अंबेडकर को संविधान निर्माता घोषित किया गया था । 

 किन्तु आज उन डॉ राजेन्द्र प्रसाद को डॉ अंबेडकर के खिलाफ खड़ा करने की धूर्तता पूर्ण साजिश की जा रही है। यह साजिश मूल संविधान को नष्ट करने के अभियान की कड़ी है , इस साजिश को समझना व ब्राह्मणवादी चालों को नाकाम करना कायस्थ समाज का ध्येय होना चाहिए । ब्राह्मणों ने बड़ी ही चालाकी से  कायस्थ महिलाओं को दलित विरोधी के रूप में खड़ा किया है , परंतु जो कायस्थ समाज मूलतः बुद्धिजीवी है अपनी बुद्धि को शोषक-उत्पीड़क ब्राह्मणों के हाथों गिरवी रख कर अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने को कैसे तैयार हो रहा है ; यह बेहद खेद व परेशानी की बात है। कायस्थ समाज की आँखें खोलने के लिए मौलिक जानकारी को यहाँ उपलब्ध कराया जा रहा है और यह अपेक्षा की जाती है कि कायस्थ समाज ब्राह्मणों की कुत्सित चालों का शिकार बनने के बजाए शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा हो तथा उनको प्रशिक्षित व जागरूक करने में अपना अमूल्य योगदान दे। डॉ अंबेडकर के अवमूल्यन तथा नेताजी की मृत्यु के ब्राह्मणवादी विवाद से कायस्थ समाज को दूर रहना चाहिए वही देश-हित में है।  

 पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ'शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ'का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। 


आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ'कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया'से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ'कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग'ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन'के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-


1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण'कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण'कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय'की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य  माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदिसे संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य'कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य'की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र'कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र'की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य'और 'क्षुद्र'सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ'चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।


 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण'को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाति -व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र'सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ'पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित'कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य'वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र'वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 


शूद्रक लिखित संस्कृत नाटक 'मृच्छ्कटिक 'में  कायस्थों को निम्न जाति का वर्णन किया गया है और ब्राह्मणों का सहायक घोषित किया गया है। यह सब 'चित्रगुप्त'की संतान बताने की काल्पनिक  ब्राह्मणवादी कहानी ( जिसे कायस्थ शिरोधार्य कर रहे हैं )का दुष्परिणाम है । 

'मृच्छ्कटिक ' की नायिका -गणिका बसंत सेना 


यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ'वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित'मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

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~विजय राजबली माथुर ©
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पूंजी,पूजा,धर्म और विभ्रम ------ विजय राजबली माथुर

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पूजा और धर्म मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए थे लेकिन आज पूंजी -वाद के युग में इनको विकृत करके विभेद व विभ्रम का सृजक बना दिया गया है। क्या पढे-लिखे और क्या अनपढ़ सभी विभ्रम का शिकार हैं ; कुछ अनजाने में तो कुछ जान-बूझ कर भी। 

धर्म शब्द की उत्पत्ति धृति धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना अर्थात मानव जीवन व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक तत्व ही धर्म हैं अन्य कुछ नहीं, यथा----
सत्य, अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ), अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
आज इन तत्वों/लक्षणों का पालन न करने वाले ही खुद को धर्म का ठेकेदार घोषित किए हुये हैं। 

पूजा भगवान की करनी थी जड़ पदार्थों की नहीं, लेकिन आज जड़-पूजक ही खुद को भगवान-भक्त घोषित करके मानवता को कुचलने पर आमादा हैं। 
भगवान/खुदा/गाड को समझते नहीं और इनके नाम पर झगड़ा खड़ा करने को तैयार रहते हैं। 
भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी ) +ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा ) +I (अनल-अग्नि ) + न (नीर-जल )=भगवान । 
खुदा = चूंकि ये पाँच तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी मानव ने बनाया नहीं है अर्थात ये ही खुदा हैं। 
गाड = चूंकि इन तत्वों का कार्य G (जेनरेट )+ O (आपरेट ) + D (डेसट्राय ) है इसलिए ये ही GOD हैं। 

इनकी पूजा का अर्थ है इन तत्वों का संरक्षण व संवर्धन अर्थात प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भगवान/खुदा/गाड तत्वों की रक्षा करे व उन्हें नष्ट होने से बचाए। लेकिन आज हो क्या रहा है? अलग-अलग नाम पर इनको नष्ट करने का मानवीय दुष्चक्र चल रहा है वह भी धर्म के नाम पर। 

ज्योतिष वह विज्ञान है जो मानव जीवन को सुंदर, सुखद व समृद्ध बनाने हेतु चेतावनी व उपाय बताता है। लेकिन आज इस विज्ञान को स्वार्थी व धूर्त लोगों ने पेट-पूजा का औज़ार बना कर इसकी उपादेयता को गौड़ कर दिया व इसे आलोचना का शिकार बना दिया है। एक सप्ताह की ये अखबारी कटिंग्स जो बताती हैं ज्योतिष ने उनका पूर्वानुमान पहले ही कर दिया था किन्तु उस पूर्वानुमान को चेतावनी के रूप में बचाव के उपाय करने की किसी ने भी ज़रूरत नहीं समझी, क्यों ?




नीमच से प्रकाशित 'चंड-मार्तंड 'पंचांग के पृष्ठ 50 पर 26-12-2015 से 23-01-2016 की ग्रह-स्थिति का वर्णन था :
दिवद्वादश मंगल शनि भृगु भौम प्रस्तार। 
हिम प्रपात पर्वत पतन,मार्ग रोग विस्तार। । 
मेघ गाज वर्षा गति, लहर शीत  अभिसार। 
यान खान घटना विविध,शासन पक्ष विकार। । 

इस दौरान आकाश में 'मंगल'तुला राशि में होकर वृश्चिक के 'शनि'के साथ दो-बारह के संबंध में रहा जिससे  पृथ्वी के पश्चिमी व पूर्वी गोलार्द्ध में शीत  व हिम का प्रकोप रहा परंतु न भारत न ही यू एस ए की सरकारों ने कोई सुरक्षात्मक कदम उठाए ।

पृष्ठ 52 पर मंगल-शनि की इसी युति के साथ-साथ 'बुध', 'शुक्र'दोनों के एक साथ धनु राशि में स्थिति का परिणाम इस प्रकार पहले से ही वर्णित है जिस संबंध में मौसम विभाग अब आगाह कर रहा है :

युति योग शनि भौम का, नहीं सुखद प्रस्तार। 
विस्फोटक भय आपदा, भू-क्रंदन प्रतिचार। । 
क्षति विश्व, सुख संपदा जन धन क्षति प्रहार। 
यान खान घटना विविध, हरण करण विस्तार। । 
आतंक द्वंद रचना मही, अस्त्र शस्त्र प्रस्तार। 
व्यय विशेष रचना गति, सांसारिक प्रतिभार। । । 
युति योग बुध शुक्र का, ऋतु विषम प्रतिचार। 
हिम तुषार पर्वत क्षति, फसल कोप प्रतिचार। । 
लहर शीत महिमा गति, ग्रह गोचर संचार। 
तट समुद्र पर आपदा, जन धन क्षति विचार । ।    

यदि अफगानिस्तान में भूकंप आया तो दक्षिण-पूर्व एशिया में भी। भारत के पठानकोट में आतंकवादी हमला हुआ तो पाकिस्तान के स्कूली बच्चों पर भी । पश्चिम एशिया तो युद्ध का अखाडा बना ही हुआ है। 
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और अब देखिये एक बड़े कारपोरेट घराने के बड़े अखबार के बड़े संपादक महोदय के पूजा, धर्म और ज्योतिष पर विचार जिनको पढ़ कर कैसे कहा जा सकता है कि ये एक विद्वान के विचार हैं? :



बताइये भला जड़ पदार्थ (संपादक जी खुद ही लिखते हैं वहाँ एक पत्थर का टुकड़ा है ) को क्या पूजना ? फिर इतनी मूर्खता सिर्फ पुरुषों तक ही नहीं सीमित रहनी चाहिए उसका विस्तार महिलाओं तक भी होना चाहिए और महिलाएं खुद भी ऐसी मूर्खता करने के लिए लालायित हैं। संपादक पंडित जी ने ही लिखा है कि पहले वहाँ वीरान सा था अब भव्य मंदिर व दुकानें हैं। स्पष्ट है यह पूंजी का खेल है जिसमें  अबोध जनता सिर्फ इसलिए पिस रही है क्योंकि बुद्धिमान लोग   व संपादक जी-पंडित जी उसे ऐसा ही करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। धर्म,पूजा व ज्योतिष की इन अनर्थकारी परिभाषाओं-व्याख्याओं ने सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा नजदीक ला दिया है। 


  ~विजय राजबली माथुर ©
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सिनेमा और सामाजिक सरोकार : एम . एस . सथ्यू से एक संवाद

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संदर्भ : फिल्म गर्म हवा 




एम एस सथ्यू साहब से संवाद करते प्रदीप घोष साहब 





प्रथम पंक्ति में राकेश जी, विजय राजबली माथुर, के के वत्स 


लखनऊ, दिनांक 04 फरवरी, 2016 को कैफी आज़मी एकेडमी , निशांतगंज के हाल में सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मैसूर श्रीनिवास सथ्यू साहब के साथ 'सिनेमा और सामाजिक सरोकार'विषय पर एक संवाद परिचर्चा का आयोजन कैफी आज़मी एकेडमी और इप्टा के संयुक्त तत्वावधान में किया गया। प्रारम्भ में कैफी आज़मी एकेडमी के सचिव सैयद सईद मेंहदी साहब ने एकेडमी व इप्टा की ओर से बुके देकर सथ्यू साहब का स्वागत किया व उनका संक्षिप्त परिचय देते हुये उनको महान एवं जागरूक फ़िल्मकार बताया। उन्होने इस बात को ज़ोर देकर कहा कि, पैसे को महत्व न देते हुये सथ्यू साहब ने फिल्म की अपेक्षा थियेटर को ज़्यादा अपना समय दिया और समाज को जागरूक करने का बीड़ा आज 85 वर्ष की आयु में भी बुलंदगी के साथ उठाए हुये हैं। 

मेंहदी साहब के बाद इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश जी ने भी सथ्यू साहब की सादगी व इप्टा के प्रति उनके समर्पण की चर्चा की। इप्टा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष की हैसियत से इप्टा की मजबूती में सथ्यू साहब के योगदान को उन्होने प्रेरक बताया। राकेश जी ने यह भी बताया कि सथ्यू साहब की लोकप्रियता पाकिस्तानी जनता के बीच भी है। उन्होने पाकिस्तान यात्रा के संस्मरण सुनाते हुये बताया कि 'मोहन जो देड़ो 'की ओर अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए जो बोर्ड लगाया गया है उस पर अंकित है- YOU ARE VIEWING ANCIENT INDIA- तात्पर्य यह है कि भारत और पाकिस्तान सांस्कृतिक रूप से एक ही हैं और इसी बात को सथ्यू साहब ने फिल्म 'गर्म हवा'में बड़े अच्छे ढंग से रखा है। 


सथ्यू साहब ने शुरुआत में कहा कि वह मूल रूप से कन्नड़ भाषी होने के कारण हिन्दी-उर्दू पर अच्छी पकड़  तो नहीं रखते हैं लेकिन लखनऊ की तहज़ीब से पूरे वाकिफ हैं। काफी अर्सा पहले कन्नड़ लेखक बी सुरेशा लिखित नाटक-'गिरिजा कल्याणम'के हिन्दी रूपातंरण 'गिरिजा के सपने'के मंचन के सिलसिले में लखनऊ आने की उन्होने संक्षिप्त चर्चा की। उन्होने बताया कि इस नाटक की नायिका इंगलिश व गणित में कमजोर होने के कारण 'मेट्रिक फेल'हो गई और इसी 'मेट्रिक फेल'नाम से वह लोकप्रिय भी हुई। नाटक में बैंकों द्वारा आम जनता के शोषण का ज़िक्र करते हुये वह नायिका ICICI का उच्चारण कुछ इस प्रकार करती है - आई सी - आई सी - आई कि बरबस ही दर्शक उसकी बात की  ओर आकर्षित हो जाते हैं। 


एक युवती रेखा द्वारा युवाओं के लिए संदेश देने का सथ्यू साहब से आग्रह करने पर उन्होने कहा कि सफलता कोई बड़ी बात नहीं होती है। असफल होने पर सीखने का अवसर मिलता है और उसके बाद जो सफलता मिलती है वह पूर्ण परिपक्व होती है। उन्होने खुद अपना दृष्टांत प्रस्तुत करते हुये कहा कि इंजीनियर पिता, चाचा और भाइयों के परिवार से होने व साईन्स विद्यार्थी होने के बावजूद उनका रुझान कला की ओर था। उन्होने एक गुरु से सरोद वादन सीखा और खुद महसूस किया कि वह सफल नहीं हैं तब तीन वर्षों तक 'कत्थक कली'नृत्य सीखा और उसके लिए भी अपने को अनुकूल नहीं पाया तब पिताजी से कह दिया कि बी एस सी की परीक्षा नहीं देंगे उनको बंबई भिजवा दें और छह माह तक रु 50/- की मदद कर दें । उनको रु 13/- का टिकट दिला कर मैसूर से बंबई भेज दिया गया जहां उनका संपर्क इप्टा से हुआ , वह पहले से ही नाटकों में भाग लेते रहे थे अतः हबीब तनवीर व के ए अब्बास के सहयोग से थियेटर में भाग लेने लगे । लेकिन तब तक सिर्फ कन्नड़ और अङ्ग्रेज़ी ही जानते थे इसलिए बंबई में उन्होने पर्दे के पीछे के  मंच- सज्जा, ध्वनि, रोशनी आदि के ही कार्य लिए।  


के आसिफ ने एक नाटक के सेट की ज़िम्मेदारी उनको दी थी , उस नाटक को देखने चेतन आनंद भी आए थे उन्होने सेट से प्रभावित होकर सज्जा करने वाले से मिलने की इच्छा व्यक्त की और इस प्रकार सथ्यू साहब उनके संपर्क में आए। चेतन आनंद ने सथ्यू साहब को मिलने को बुलाया और उनको अपने साथ असिस्टेंट डाइरेक्टर के रूप में काम करने को कहा। सथ्यू साहब ने कहा कि उनको हिन्दी नहीं आती है वह कैसे करेंगे ?आनंद साहब ने उनको रोमन का सहारा लेने को कहा , उनके द्वारा प्रस्तावित रु 250/- प्रतिमाह वेतन को अपर्याप्त बताने पर सथ्यू साहब की इच्छानुसार रु 275/- प्रतिमाह पर नियुक्त कर लिया। 


सथ्यू साहब ने 1956 में अपने पहले निर्देशन की चर्चा करते हुये कहा कि, पहली बार में ही उनको अपने निर्देशक चेतन आनंद साहब को भी निर्देशित करना पड़ा क्योंकि वह अभिनय भी कर रहे थे। फिल्म टैगोर के नाटक 'चंडालिका'पर आधारित थी जिसमें सितारा देवी और आगरा की निम्मी भी थीं। सथ्यू साहब ने एक दृश्य पर जैसे ही 'कट'कहा चेतन आनंद साहब चौंक पड़े कि जो साहायक बनने से इंकार कर रहा था उसकी दृश्यों पर इतनी बारीक पकड़ है कि वह उनको भी कमियाँ बता कर रीटेक के लिए कह रहा है। वह सथ्यू साहब से प्रसन्न हुये और यह जान कर और भी कि वह मूलतः थियेटर से ही संबन्धित हैं। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होने कहा कि वह बंबई पैसा या नाम कमाने नहीं, बल्कि 'काम सीखने'के लिए आए थे। 

अपनी सुप्रसिद्ध फिल्म 'गर्म हवा'का ज़िक्र करते हुये सथ्यू साहब ने बताया कि यह इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित है किन्तु इसके अंतिम दृश्य में जिसको प्रारम्भ में पर्दे पर दिखाया गया था - राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानी के कुछ अंशों को जोड़ लिया गया था। इस दृश्य में यह दिखाया गया था कि किस प्रकार मिर्ज़ा साहब (बलराज साहनी ) जब पाकिस्तान जाने के ख्याल से तांगे पर बैठ कर परिवार के साथ निकलते हैं तब मार्ग में रोज़ी-रोटी, बेरोजगारी, भुखमरी के प्रश्नों पर एक प्रदर्शन मिलता है जिसमें भाग लेने के लिए उनका बेटा (फारूख शेख जिनकी यह पहली फिल्म थी  ) तांगे से उतर जाता है बाद में अंततः मिर्ज़ा साहब तांगे पर अपनी बेगम को वापिस हवेली भेज देते हैं और खुद भी आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। 


एक प्रश्न के उत्तर में सथ्यू साहब ने बताया कि 1973 में 42 दिनों में 'गर्म हवा'बन कर तैयार हो गई थी। इसमें इप्टा आगरा के राजेन्द्र रघुवंशी और उनके पुत्र जितेंद्र रघुवंशी (जितेंद्र जी के साथ आगरा भाकपा में कार्य करने व आदरणीय राजेन्द्र रघुवंशी जी को सुनने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त  हुआ है ) आदि तथा दिल्ली इप्टा के कलाकारों ने भाग लिया था। ताजमहल व फ़तहपुर सीकरी पर भी शूटिंग की गई थी। इप्टा कलाकारों का योगदान कला के प्रति समर्पित था। बलराज साहनी साहब का निधन हो जाने के कारण उनको कुछ भी न दिया जा सका बाद में उनकी पत्नी को मात्र रु 5000/- ही दिये तथा फारूख शेख को भी सिर्फ रु 750/- ही दिये जा सके थे। किन्तु कलाकारों ने लगन से कार्य किया था। सथ्यू  साहब ने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में बताया कि, 'निशा नगर', 'धरती के लाल'व 'दो बीघा ज़मीन'फिल्में भी इप्टा कलाकारों के सहयोग से बनीं थीं उनका उद्देश्य सामाजिक-राजनीतिक चेतना को जाग्रत करना था। 


चर्चा में भाग लेने वाले लोगों में वीरेंद्र यादव, भगवान स्वरूप कटियार, मेंहदी अब्बास रिजवी, प्रदीप घोष आदि के नाम प्रमुख हैं। 

कुछ प्रश्नों के उत्तर में सथ्यू साहब ने रहस्योद्घाटन किया कि,यद्यपि 'गर्म हवा' 1973 में ही पूर्ण बन गई थी किन्तु 'सेंसर बोर्ड'ने पास नहीं किया था तब उनको प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से संपर्क करना पड़ा था जिनके पुत्रों राजीव व संजय को वह पूर्व में 'क्राफ्ट'पढ़ा चुके थे। उन्होने बताया कि इंदिराजी अक्सर इन्स्टीच्यूट घूमने आ जाती थीं उनके साथ वी के कृष्णा मेनन भी आ जाते थे। वे लोग वहाँ चाय पीते थे, कभी-कभी वे कनाट प्लेस से खाना खा कर तीन मूर्ती भवन तक पैदल जाते थे तब तक सिक्योरिटी के ताम -झाम नहीं होते थे और राजनेता जन-संपर्क में रहते थे। काफी हाउस में उन्होने भी इंदर गुजराल व इंदिरा गांधी के साथ चर्चा में भाग लिया था। अतः सथ्यू साहब की सूचना पर इंदिराजी ने फिल्म देखने की इच्छा व्यक्त की जिसे तमाम झंझटों के बावजूद उन्होने दिल्ली ले जाकर दिखाया। इंदिराजी के अनुरोध पर सत्ता व विपक्ष के सांसदों को भी दिखाया और इस प्रकार सूचना-प्रसारण मंत्री गुजराल के कहने पर सेंसर सर्टिफिकेट तो मिल गया किन्तु बाल ठाकरे ने अड़ंगा खड़ा कर दिया अतः प्रीमियर स्थल 'रीगल थियेटर'के सामने स्थित 'पृथ्वी थियेटर'में शिव सेना वालों को भी मुफ्त फिल्म शो दिखाया जिससे वे सहमत हो सके। 1974 में यह फ्रांस के 'कान'में दिखाई गई और 'आस्कर'के लिए भी नामित हुई। इसी फिल्म के लिए 1975 में सथ्यू साहब को 'पद्मश्री'से भी सम्मानित किया गया और यह सम्मान स्वीकार करने के लिए गुजराल साहब ने फोन करके विशेष अनुरोध किया था अतः उनको इसे लेना पड़ा। 

सथ्यू साहब ने बताया किमई माह में तीन नाटकों का एक फेस्टिवल कराने वह फिर लखनऊ आएंगे जिसमें नादिरा बब्बर के नाटक को भी शामिल किया जाएगा। अंत में इप्टा के प्रदीप घोष साहब ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में उपस्थित लोगों में रिशी श्रीवास्तव, दीपक कबीर, के के वत्स, ओ पी अवस्थी, प्रोफेसर ए के सेठ व विजय राजबली माथुर भी शामिल थे। 

~विजय राजबली माथुर ©
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लोकतन्त्र, राजनीति,आस्था,अध्यात्म,धर्म : सत्यार्थ का आभाव ------ विजय राजबली माथुर

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*****'डार्विन वाद 'ने मतस्य से मनुष्य तक की विकास -गाथा को रचा व माना है। इस सिद्धान्त में 'पहले अंडा 'या 'पहले मुर्गी'वाला विवाद चलता रहता है और उसका व्यावहारिक समाधान नहीं हो पाने के बावजूद उसी के अनुसार सारी व्याख्याएँ की जाती हैं।  'युवा - पुरुष 'और 'युवा - स्त्री 'वाला सिद्धान्त 'तर्कसंगत'व 'व्यावहारिक'है किन्तु इसका मखौल इसलिए उड़ाया जाता है कि, इससे सफ़ेद जाति के मध्य - यूरोपीय मनुष्यों की श्रेष्ठता का सिद्धान्त और उनका 'डार्विन वाद 'थोथा सिद्ध हो जाता है। 

'डार्विन वाद 'के अनुसार जब मानव विकास माना जाता है तब यह जवाब नहीं दिया जाता है कि शिशु मानव का पालन और विकास कैसे संभव हुआ था ? जबकि 'युवा - पुरुष 'और 'युवा - स्त्री 'वाला सिद्धान्त इसलिए  'तर्कसंगत'व 'व्यावहारिक'है क्योंकि युवा नर- व नारी न केवल अपना खुद का अस्तित्व बचाने में बल्कि  'प्रजनन'में भी सक्षम हैं और नई संतान का पालन -पोषण करने में भी। 

मध्य -यूरोपीय सफ़ेद मनुष्यों की जाति शोषण पर चल कर ही सफल हुई है और उस शोषण को निरंतर मजबूत बनाने के लिए नित्य नए-नए अनुसंधान करके नई-नई कहानियाँ गढ़ती रहती है। उसी में एक कहानी है भारत पर 'आर्यों के आक्रमण 'की जबकि आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है।  श्रेष्ठता का प्रतीक है 'आर्ष 'जिसका अपभ्रंश है -'आर्य'अर्थात कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह आर्ष अर्थात आर्य है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो या किसी भी नस्ल का चाहे किसी भी आस्था को अपनाने वाला।*****  मानव जीवन को सुंदर- सुखद- समृद्ध  बनाने  की धारणा वालों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष अर्थात सद्गुणों  से रहित घोषित कर रखा है और नास्तिक भी ; साथ ही डॉ अंबेडकर के अनुयाई कहलाने वालों ने खुद को  सफ़ेद जाति के षड्यंत्र में फंस कर मूल निवासी घोषित कर रखा है। स्पष्ट है इन परिस्थितियों का पूरा-पूरा लाभ शोषणकारी  - साम्राज्यवादी /सांप्रदायिक  - ब्राह्मण वादी शक्तियाँ  उठा कर खुद को मजबूत व शोषितों को विभक्त करने में उठाती हैं। यदि हम शब्दों के खेल में न फंस कर उनके सत्य अर्थ  को समझें व समझाएँ  तो सफल हो सकते हैं अन्यथा भारत का संविधान व लोकतन्त्र नष्ट हुये बगैर नहीं रह सकता। *****




डॉ अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में दिये गए समापन भाषण का जो अंश  इस वर्ष गणतंत्र  दिवस पर प्रकाशित हुआ है उससे साफ झलकता है कि, आज जो कुछ संविधान को नष्ट किया जा रहा है उसका उनको पूर्वानुमान था और उन्होने तभी सचेत भी कर दिया था। किन्तु निहित स्वार्थी तत्वों ने जान-बूझ कर उस चेतावनी को नज़रअंदाज़ किया जिससे मुट्ठी भर लोगों के लाभ के लिए असंख्य लोगों का अबाध शोषण व उत्पीड़न किया जा सके।इसके लिए  लोकतन्त्र, राजनीति,आस्था,अध्यात्म,धर्म सबकी मनमानी झूठी व्याख्याएँ गढ़ी गईं । विरोध व प्रतिक्रिया स्वरूप जो तथ्य सामने लाये गए स्व्भाविक तौर पर वे भी गलत ही हुये क्योंकि वे गलत व्याख्याओं पर ही तो आधारित थे। महर्षि कार्ल मार्क्स, शहीद भगत सिंह व डॉ अंबेडकर ने इसी कारण धर्म का गलत आधार पर विरोध किया है जिसके परिणाम स्वरूप पोंगापंथी, शोषण वादी पुरोहितों की गलत व्याख्याएँ और भी ज़्यादा मजबूत हो गईं हैं। हम मनुष्य तभी हैं जब 'मनन'करें किन्तु आज मनन के बजाए 'आस्था'पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है और अदालतों तक से आस्था के आधार पर निर्णय दिये जा रहे हैं। आज 08 फरवरी, 2016 के हिंदुस्तान का जो सम्पादकीय प्रस्तुत किया गया है उसमें भी आस्था को अक्ल (मनन ) से ज़्यादा तरजीह दी गई है। 


अबसे दस लाख वर्ष पूर्व  पृथ्वी पर जब 'मनुष्य की उत्पति 'हुई  तो वह 'युवा - पुरुष 'और 'युवा - स्त्री 'के रूप तीन क्षेत्रों - अफ्रीका, मध्य - यूरोप व 'त्रि वृष्टि' (तिब्बत ) में एक साथ हुई थी। भौगोलिक प्रभाव से तीनों क्षेत्रों के मनुष्यों के रंग क्रमशः काला, सफ़ेद व गेंहुआ हुये। प्रारम्भ में तीनों क्षेत्रों की मानव - जाति का विकास प्रकृति द्वारा उपलब्ध सुविधाओं पर निर्भर था। किन्तु कालांतर में सफ़ेद रंग के मध्य यूरोपीय मनुष्यों ने खुद को सर्व- श्रेष्ठ घोषित करते हुये तरह- तरह की कहानियाँ गढ़ डालीं और उनकी पुष्टि के लिए मानव-विकास के क्रम को अपने अनुसार लिख डाला। 

'डार्विन वाद 'ने मतस्य से मनुष्य तक की विकास -गाथा को रचा व माना है। इस सिद्धान्त में 'पहले अंडा 'या 'पहले मुर्गी'वाला विवाद चलता रहता है और उसका व्यावहारिक समाधान नहीं हो पाने के बावजूद उसी के अनुसार सारी व्याख्याएँ की जाती हैं।  'युवा - पुरुष 'और 'युवा - स्त्री 'वाला सिद्धान्त 'तर्कसंगत'व 'व्यावहारिक'है किन्तु इसका मखौल इसलिए उड़ाया जाता है कि, इससे सफ़ेद जाति के मध्य - यूरोपीय मनुष्यों की श्रेष्ठता का सिद्धान्त और उनका 'डार्विन वाद 'थोथा सिद्ध हो जाता है। 

'डार्विन वाद 'के अनुसार जब मानव विकास माना जाता है तब यह जवाब नहीं दिया जाता है कि शिशु मानव का पालन और विकास कैसे संभव हुआ था ? जबकि 'युवा - पुरुष 'और 'युवा - स्त्री 'वाला सिद्धान्त इसलिए  'तर्कसंगत'व 'व्यावहारिक'है क्योंकि युवा नर- व नारी न केवल अपना खुद का अस्तित्व बचाने में बल्कि  'प्रजनन'में भी सक्षम हैं और नई संतान का पालन -पोषण करने में भी। 

मध्य -यूरोपीय सफ़ेद मनुष्यों की जाति शोषण पर चल कर ही सफल हुई है और उस शोषण को निरंतर मजबूत बनाने के लिए नित्य नए-नए अनुसंधान करके नई-नई कहानियाँ गढ़ती रहती है। उसी में एक कहानी है भारत पर 'आर्यों के आक्रमण 'की जबकि आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है।  श्रेष्ठता का प्रतीक है 'आर्ष 'जिसका अपभ्रंश है -'आर्य'अर्थात कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह आर्ष अर्थात आर्य है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो या किसी भी नस्ल का चाहे किसी भी आस्था को अपनाने वाला।  

किन्तु आर्य को एक जाति और भारत में आक्रांता घोषित करने वाले सिद्धान्त ने यहाँ के निवासियों को अंत हींन  विवादों व संघर्षों में उलझा कर रख दिया है  'मूल निवासी आंदोलन 'भी उसी की एक कड़ी है। 'नास्तिक वाद'भी उसी  थोथे सिद्धान्त का खड़ा हुआ विभ्रम है। वस्तुतः शब्दों के खेल को समझ कर  'मनन'करने व सच्चा  मनुष्य बनने की ज़रूरत है और मानव-मानव में  विभेद करने वालों को बेनकाब करने की । 

मनुष्य   = जो मनन कर सके। अन्यथा 'नर-तन'धारी पशु। 
आस्तिक = जिसका स्वम्य  अपने ऊपर विश्वास हो। 
नास्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास न हो। 
अध्यात्म = अध्यन  अपनी  आत्मा का । न कि  अपनी आत्मा से परे। 
धर्म = जो मनुष्य तन व समाज को धारण  करने हेतु आवश्यक है , यथा --- सत्य, अहिंसा (मनसा - वाचा - कर्मणा ), अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य। 
भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी )+ ग (गगन -आकाश )+ व (वायु - हवा )+I ( अनल - अग्नि ) + न  (नीर - जल )। 
खुदा = चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी मनुष्य ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा'हैं। 
GOD = G (जेनरेट )+ O (आपरेट ) + D (डेसट्राय )। इन तत्वों का कार्य  उत्पति - पालन - संहार = GOD है। 

मानव जीवन को सुंदर- सुखद- समृद्ध  बनाने  की धारणा वालों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष अर्थात सद्गुणों  से रहित घोषित कर रखा है और नास्तिक भी ; साथ ही डॉ अंबेडकर के अनुयाई कहलाने वालों ने खुद को  सफ़ेद जाति के षड्यंत्र में फंस कर मूल निवासी घोषित कर रखा है। स्पष्ट है इन परिस्थितियों का पूरा-पूरा लाभ शोषणकारी  - साम्राज्यवादी /सांप्रदायिक  - ब्राह्मण वादी शक्तियाँ  उठा कर खुद को मजबूत व शोषितों को विभक्त करने में उठाती हैं। यदि हम शब्दों के खेल में न फंस कर उनके सत्य अर्थ  को समझें व समझाएँ  तो सफल हो सकते हैं अन्यथा भारत का संविधान व लोकतन्त्र नष्ट हुये बगैर नहीं रह सकता। 


  ~विजय राजबली माथुर ©
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ज्योतिष को विकृत व बदनाम किया है ब्राह्मण पुजारियों ने ------ विजय राजबली माथुर

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ज्योतिष वह विज्ञान है जो मानव जीवन को सुंदर, सुखद व समृद्ध बनाने 

हेतु चेतावनी व उपाय बताता है। लेकिन आज इस विज्ञान को स्वार्थी व 

धूर्त लोगों ने पेट-पूजा का औज़ार बना कर इसकी उपादेयता को गौड़ कर 

दिया व इसे आलोचना का शिकार बना दिया है।
http://krantiswar.blogspot.in/2016/01/blog-post_31.html


हिंदुस्तान, लखनऊ , दिनांक 11 फरवरी, 2016 में विभिन्न कर्मकांडी पुजारियों ने ज्योतिषी होने का दावा करते हुये 'बसंत पंचमी'पर्व 12 व 13 फरवरी दो दिन होने की घोषणा की है। कुछ ने तो 13 फरवरी 2016 की प्रातः 10 : 20 तक पंचमी घोषित कर दी है। 

प्रस्तुत स्कैन से स्पष्ट हो जाएगा कि, 12 फरवरी 2016 की प्रातः 09 : 16 तक ही चतुर्थी तिथि है और उसी दिन रात्रि 30 :29 अर्थात घड़ी के हिसाब से 13 तारीख की सुबह 06 : 29 पर  पंचमी तिथि समाप्त होकर षष्ठी तिथि प्रारम्भ हो जाएगी अर्थात सूर्योदय समय 07 : 20 पर षष्ठी तिथि लग चुकी होगी। अतः बसंत पंचमी केवल 12 फरवरी 2016 को ही है लेकिन धंधेबाजों ने जनता को गुमराह करके अपनी पेट पूजा के लिए गलत घोषणाएँ की हैं जिनको प्रतिष्ठित अखबार ने अपने विज्ञापनीय कारोबार के लिहाज से प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया है। इन सबका उद्देश्य अधिकाधिक धनोपार्जन है 'जन -कल्याण 'नहीं। इसी कारण जनता व सरकारें गुमराह होती हैं और मानवता को अनर्थ का सामना करना पड़ता है, ज्योतिष विज्ञान नाहक बदनाम होता है जिसके लिए ये ब्राह्मण पुजारी शत-प्रतिशत उत्तरदाई हैं।  


चंड - मार्तण्ड पंचांग, नीमच , पृष्ठ-53 

गुमराह करती अखबारी सूचना : 


सरकार ने कुतर्क को सही माना 


चंड - मार्तण्ड पंचांग, नीमच  की  ये पूर्व घोषणाएँ  घटित हो चुकी हैं  : 




पृष्ठ 52 पर वर्णित स्थिति 23-01-2016 से 22-02-2016 तक के लिए है और इसी दौरान ही सियाचिन का ग्लेशियर कांड घटित हुआ जिसमें दस सैनिकों का जीवन बलिदान हो गया। यह सब कुछ ग्रहों की स्थिति के कारण ही घटित हुआ परंतु सावधानी न बरती गई क्योंकि जनता व सरकार इन ब्राह्मण पुजारियों की गलत व्याख्याओं में ही उलझे रहते हैं। यदि चेतावनी पर ध्यान देते हुये अग्रिम सावधानी बरती जाती तो जन-क्षति को बचाया जा सकता था। 

लखनऊ में ही कल 10 फरवरी का वकील-तांडव और उसके जरिये हुये नुकसान से भी बचा जा सकता था यदि सावधानी बरतते तो। 





इसी प्रकार सरस्वती को ब्रह्मा की पुत्री बताना और पौराणिक गलत आख्यानों के आधार पर पूजा करवाना एक ऐसा घिनौना खेल है जिसने भारत में चारित्रिक पतन  ला दिया है। 'वेदों'में  'सरस्वती', 'गोमती'आदि  शब्दों के व्यापक अर्थ हैं न कि संकुचित जैसा कि इन ब्राह्मणों ने पुरानों में लिख डाला है और पुरानों को वेद आधारित बताने का कुचक्र रच रखा है। वस्तुतः पुराण वेदों में निहित उद्देश्यों से जनता को भटकाने हेतु ब्राह्मणों ने बड़ी चालाकी से गढ़े हैं। 'नास्तिक'संप्रदाय अपने गलत कदमों से इन ढ़ोंगी ब्राह्मणों की चालों को और मजबूत करता रहता है। जनता के सामने बचाव के बजाए भुगतने का ही विकल्प इस प्रकार बचा रह जाता है। इसी वजह से अब भी कोई एहतियात नहीं बरती जाएगी और आपको आगे भी दुखद घटनाओं के समाचार सुनने-पढ़ने को मिलते रहेंगे। 



 ~विजय राजबली माथुर ©
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वसंत पंचमी और देवी सरस्वती ------ ध्रुव गुप्त /डॉ सुधाकर अदीब

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Dhruv Gupt


वसंत पंचमी और देवी सरस्वती

प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत हुआ करता था। आज की विलुप्त सरस्वती नदी तब इस क्षेत्र की मुख्य नदी हुआ करती थी। तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर और व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के किनारे बसे थे। तमाम ऋषियों और आचार्यों के आश्रम सरस्वती के तट पर स्थित थे। ये आश्रम अध्यात्म, धर्म, संगीत और विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और ज्यादातर स्मृति-ग्रंथों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी माना जाता था। ऋग्वेद में इसी रूप में इस नदी के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। कई हजार साल पहले सरस्वती में आई प्रलयंकर बाढ़ और विनाश-लीलाके बाद अधिकांश नगर और आश्रम जब नष्ट हुए तो आर्य सभ्यता क्रमशः गंगा और जमुना के किनारों पर स्थानांतरित हो गई। इस विराट पलायन के बाद भी जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं। इतिहास के गुप्त-काल के आसपास रचे गए पुराणों में उसे देवी का दर्जा दिया गया। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो हर तरफ मौन छाया हुआ था। ब्रह्मा की तपस्या से वृक्षों के बीच से एक अद्भुत चतुर्भुजी स्त्री प्रकट हुई जिसके हाथों में वीणा, पुस्तक, माला और वर-मुद्रा थी। जैसे ही उस स्त्री ने वीणा का नाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी, जलधारा को कोलाहल और हवा को सरसराहट मिल गई। ब्रह्मा ने उसे वाणी की देवी सरस्वती कहा। वसंत पंचमी का दिन हम देवी सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। सरस्वती की पूजा वस्तुतः आर्य सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत और धर्म-अध्यात्म के कई क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।
मित्रों को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !
साभार :

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यह वह आनंदमय समय होता है, जब खेतों में पीली-पीली सरसों खिल उठती है, गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं, आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती हैं, पुष्पों पर रंग-बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं, भ्रमर गुंजार करने लगते हैं, ऐसे में आता है 'वसंत पंचमी'का पावन पर्व. इसे ऋषि पर्व भी कहते हैं.........................................................................
आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में महाप्राण निराला द्वारा रचित 'सरस्वती वंदना'सर्वाधिक लोकप्रिय है और अक्सर सारस्वत समारोहों के प्रारंभ में गाई जाती है-
"वर दे, वीणा वादिनि वर दे। 
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे।
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव,
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे।"



काट अंध-उर के बंधन-स्तर
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
वस्तुतः सरस्वती का ध्यान जड़ता को समाप्त कर मानव मन में चेतना का संचार करता है. सरस्वती का यह ज्ञानदायिनी मां का स्वरुप भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में विभिन्न नामों से प्रचिलित है और वे श्रद्धापूर्वक वहां भी पूजी जाती हैं. उदाहरण के लिए हमारी 'सरस्वती'बर्मा में 'थुयथदी', थाईलैंड में 'सुरसवदी', जापान में 'बेंजाइतेन'और चीन में 'बियानचाइत्यान'कहा जाता है.
साभार :
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प्रायः सभी विद्वान वसंत पंचमी को सरस्वती आराधना का पर्व मानते हैं अर्थात ज्ञान-विज्ञान, मनन -चिंतन का पर्व है यह। वेदों में मानव- मात्र के कल्याण की बात कही गई है। वेद  देश - काल से परे सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात आर्ष = श्रेष्ठ बनाने की बात  करते हैं बिना किसी भी भेदभाव के । किन्तु दुर्भाग्य से मनुष्य ने अपने मूल चरित्र 'मनन'को भुला दिया है उसके स्थान पर कुतर्क, आस्था, अंध- विश्वास का बोलबाला हो गया है। ढोंग-पाखंड-आडंबर को ही उपासना या पूजा माना जाने लगा है। असमानता और भेदभाव आज सर्वत्र दिखाई दे रहा है। इसी कारण संघर्ष और विग्रह बढ़ रहा है। आज मुट्ठी भर  साधन-सम्पन्न वर्ग अपनी पकड़ व जकड़ को मजबूत बनाने हेतु बहुमत को विभिन्न खांचों व साँचों में बाँट कर परस्पर लड़ा कर कमजोर बनाता व उनका शोषण करता जा रहा है। आज समष्टिवादी  वेदों का स्थान शोषण- आधारित पुराणों को दे दिया गया है। वेदों को गड़रियों का गीत व आर्य को एक आक्रांता जाति घोषित करके जनता को गुमराह किया जा रहा है। 

आइये ज्ञान-विज्ञान की अधिष्ठात्री 'सरस्वती'पूजा के अवसर पर जानें कि कैसे  वेदों के अंतिम सूक्त द्वारा ऋषियों ने मानव - कल्याण की जो अपेक्षा की थी  उसे पुनर्स्थापित करके विश्व में शांति - स्थापना हो सकती है :
'सं समि ................................................... वसून्या भर। । '

हे प्रभो तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को । 
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिये धन वृष्टि को । । 1 । । 

 'संगच्छध्वं ...............................................................उपासते। । '

प्रेम से मिलकर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें। 
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें । । 2 । । 

 'समानी मंत्र : ................................................... हविषा जुहोमि । । '

हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों। 
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों । । 3 । । 

 'समानी व .............................. सुसहासति  । ।  '

हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा । 
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख संपदा । । 4 । । 

'सर्वे भवन्तु सुखिन : सर्वे संतु निरामया :  । 
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु :ख भाग भवेत । ।  '

सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान । 
सब पर कृपा करो भगवान, सबका सब विधि हो कल्याण । । 
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखारी । 
सब हों निरोग भगवन धन -धान्य के भण्डारी । । 
सब भद्र भाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों । 
दुखिया न कोई होवे सृष्टि में प्राण धारी । । 5 । ।   

बसंत पंचमी, होली, नवरात्र, श्रावणी,दीपावली आदि पर्वों पर सामूहिक रूप से हवन - यज्ञ किए जाते थे । यज्ञ 'संगति 'पर आधारित होते हैं और पति - पत्नी संयुक्त रूप से करते हैं। परिवार या समाज में कहीं भेदभाव न था। किन्तु पौराणिक ब्राह्मणों ने वेदों को पृष्ठ भूमि में धकेल दिया और मन गढ़ंत कहानिया रच डालीं जिनके द्वारा समाज व परिवारों में फूट डाल कर  विग्रह उत्पन्न कर दिया जिससे आज तक मानवता पीड़ित होकर कराह रही है। यज्ञ की सम्पूर्ण होने के बाद की जाने वाली प्रार्थना में भी सम्पूर्ण मानवता ही नहीं समस्त जीवधारियों के कल्याण की कामना की जाती है , देखिये : 

पूजनीय प्रभों हमारे भाव उज्जवल कीजिये ।
छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिये । 1 । । 

वेद की बोलें ऋचाएँ सत्य को धारण करें । 
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें । । 2 । । 

अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को । 
धर्म मर्यादा चला कर लाभ दें संसार को  । । 3 । । 

नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें । 
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें। । 4 । । 

भावना मिट जाये मन से पाप अत्याचार की। 
कामनाएँ पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नार की । । 5 । । 

लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए। 
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गंध को धारण किए। । 6 । । 

स्वार्थभाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो। 
"इदं न मम "का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो। । 7 । । 

प्रेम रस में तृप्त होकर वंदना हम कर रहे ।  
नाथ करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे । । 8 । ।   

ऐसी समष्टिवादी - समाजवादी वैदिक व्यवस्था को ठुकराये जाने से शोषण वादी - पूंजीवादी व्यवस्था ही मजबूत हुई है और पूंजी की पूजा का आज सर्वत्र विस्तार हो गया है। हवन करने को अन्न व घी- मिष्ठान्न सबकी बरबादी का हेतु बताया जाने लगा है और लंच व डिनर पार्टियों में अथाह भोजन बर्बाद किया जाने लगा है। हवन में दी गई आहुतियों से पर्यावरण भी शुद्ध रहता था व  जन-कल्याण  भी होता रहता  था । अब ब्राह्मण वादी व्यवस्था में जड़ - पत्थर पूजे जाते हैं जिस प्रक्रिया में अक्सर हादसे होते रहते हैं जिनमें असंख्य निर्दोषों के जीवन की इह - लीला तक समाप्त हो जाती है। 'नास्तिक संप्रदाय 'और 'मूल निवासी संप्रदाय ' भी वैदिक व्यवस्था का विरोध करके शोषक ब्राह्मण वादी व्यवस्था को अप्रत्यक्ष सहयोग देते रहते हैं  और जनता लुटती व पिटती रहती है। क्या आज वसंत पंचमी के पावन अवसर पर मननशील प्रबुद्ध जन साम्राज्यवादी/संप्रदायवादी/ फासिस्ट शक्तियों के निर्मूलन हेतु  समष्टिवादी - समाजवादी वैदिक व्यवस्था का अवलंबन लेने का संकल्प ले सकेंगे? 
( विजय राजबली माथुर )

~विजय राजबली माथुर ©
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जनता बाजारवाद में मस्त और पुरोहितवाद देश को खंड-खंड करने पर आमादा

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 जन-संस्कृति मंच के तत्वावधान में 23 जूलाई 2015 को सम्पन्न गोष्ठी :प्रो .डॉ मेनेजर पांडे ------


 विभिन्न अखबारों तथा विद्वानों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों में डॉ पांडे द्वारा व्यक्त कुछ महत्वपूर्ण विचार प्रकाशित होने से रह गए हैं जबकि उनके वक्तव्य में वे शामिल थे । ऐसे ही प्रमुख विचारों को यहाँ लेने का प्रयास किया जा रहा है। 

डॉ पांडे ने यह भी कहा था कि  हमारे देश में वर्तमान लोकतन्त्र सिर्फ चुनाव कराने तक ही सीमित है उसके बाद इसमें जन की भागीदारी नहीं है जबकि 1789 ई . की फ्रांसीसी राज्य -क्रान्ति द्वारा जिस जनतंत्र की स्थापना की गई थी वह 'स्वतन्त्रता', 'समता'और 'बंधुत्व'पर आधारित था। अब्राहम लिंकन ने भी जनतंत्र को 'जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए'शासन कहा था। लेकिन चुनावों के बाद हमारे यहाँ 'जन'उपेक्षित हो जाता है । संसद और विधायिकाओं में जो लोग चुन कर पहुँचते हैं वे करोड़पति व्यापारी व उद्योगपति होते हैं वे ही नीतियाँ बनाते हैं जो उनके व्यापारिक हितों की पूर्ती करती हैं उनका जन सरोकारों से कोई वास्ता नहीं होता है। उनके कथन की पुष्टि 25 जूलाई 2015 को 'हिंदुस्तान'में प्रकाशित रामचन्द्र गुहा के इस लेख से भी होती है। 


 1857 के स्वातंत्र्य समर में भाग लेने वाली वन-जातियों को कुचलने हेतु 1871 में क्रिमिनल  ट्राईबल एक्ट   बनाया गया था जिसे बाद में  नेहरू जी ने  डिनोटिफाईड करवाया  था तब से अब ये  जातियाँ डिनोटिफाईड ट्राईब्स कहलाती हैं इनको नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं वे मतदाता नहीं हैं।
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'सरस्वती'का संपादक बनने हेतु आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी ने  अपनी जमी जमाई सुविधा सम्पन्न  रेलवे की रु 50/-मासिक वेतन की नौकरी छोड़ कर रु 20/- मासिक की नौकरी कर ली थी। उनका कहना था कि, "साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। "साहित्य साधना के लिए उन्होने 'पत्रकारिता'को अपनाया था।
आज के माहौल में साहित्यकारों पर जो साम्राज्यवादी/ब्राह्मण वादी हमले हो रहे हैं और नरेंद्र डोभाल, गोविंद पानसरे व एम एम काल्बुर्गी सरीखे विद्वानों को मौत के घाट उतारा गया है शोद्ध छात्र रोहित वेमुला को मौत के मुंह में धकेला गया है  तथा कुछ पत्रकार फासिस्टों के दलाल बन कर जन-विरोधी कार्यों में संलग्न हैं जैसा कि नामचीन TV चेनल्स ने फर्जी वीडियो चला कर JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार को षड्यंत्र पूर्वक जेल भिजवाया है उनको आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के व्यक्तिव व कृतित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए कि, ब्राह्मण कुल में जन्मने के बावजूद वह लिंग-भेद व दक़ियानूसी विचारों के विरोधी रहे।
केवल ब्राह्मण वाद का उन्मूलन ही आज देश को एकजुट रखने में सहायक हो सकता है अन्यथा ये पुरोहितवाद देश को खंड-खंड करने पर आमादा है ही।
आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी सरीखे विद्वानों के विचारों का सहारा लेकर ब्राह्मण वाद/साम्राज्यवाद पर प्रहार किया जाए तो जन-समर्थन हासिल करने में सहायता मिल सकती है।


~विजय राजबली माथुर ©
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वर्तमान बहस को विकल्पों पर विचार की तरफ ले जाया जाए ------ सत्येंद्र रंजन

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कन्हैया के भाषण को आधुनिक भारत के सपने का समर्थन
March 6, 2016, 3:22 PM IST सत्येंद्र रंजन in प्रतिपक्ष | सोसाइटी, राजनीति, देश-दुनिया


कन्हैया कुमार ने अपनी रिहाई के बाद जेएनयू में जो भाषण दिया, वह बहुचर्चित हो चुका है। उसके बाद अलग-अलग टीवी चैनलों को उन्होंने कई इंटरव्यू दिए। मीडिया की चर्चाओं में स्वाभाविक रूप से उनके वक्तव्यों के उन हिस्सों की ज्यादा चर्चा हुई, जिनमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक पर निशाना साधा। यह हमला इतना तीखा था कि उससे भारतीय जनता पार्टी विचलित हुई। इसकी मिसाल उसके नेताओं के बयान हैँ। संघ खेमे की की प्रतिक्रिया तो उसके अपेक्षा के अनुरूप ही हिंसक बयानबाजी रही।
लेकिन इनसे अलग कन्हैया कुमार ने कुछ ऐसा भी कहा, जिसका संदर्भ दूरगामी है। उन्होंने कहा कि इस वक्त संघर्ष की रेखाएं साफ खिंची हुई हैँ।kanhaiya इसमें एक तरफ आरएसएस और उसकी सोच से सहमत ताकतें हैं और दूसरी तरफ प्रगतिशील शक्तियां। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में भारत के मुख्य सामाजिक अंतर्विरोध के बारे में किसी और नेता ने ऐसी साफ समझ बेहिचक सार्वजनिक रूप से सामने नहीं रखी है। इसीलिए कन्हैया ने एक स्वर में सीताराम येचुरी से लेकर राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और उन तमाम लोगों का आभार जताया जो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तथा राजद्रोह के मामले में उनके समर्थन में सामने आए। इस सिलसिले में कन्हैया कुमार ने यह महत्त्वपूर्ण बात बार-बार कही कि इस लड़ाई में कई दायरे टूटे हैँ। इस पर उन्होंने संतोष जताया। इसे भविष्य की उम्मीद बताया।
यह दायरा टूटने की ही झलक थी कि जेएनयू के मुद्दे पर दिल्ली में निकले बहुचर्चित जुलूस में एनएसयूआई, एसएफआई, एआईएसएफ, आइसा तथा दूसरे छात्र संगठन एक साथ शामिल हुए। किसी पार्टी या संगठन से ना जुड़े हजारों नौजवानों एवं बुद्धिजीवियों-कलाकारों की वहां उपस्थिति राष्ट्रवाद की भगवा समझ थोपने की एनडीए सरकार की कोशिशों से फैलती उद्विग्नता और आक्रोश का प्रमाण थी। इस सिलसिले में एक घटना खास उल्लेखनीय है।
30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन राहुल गांधी हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के खिलाफ छात्रों के विरोध कार्यक्रम में शामिल हुए। शाम को उन्होंने वहां मौजूद नौजवानों को संबोधित किया। उपस्थित श्रोताओं में अंबेडकरवादी व्यक्तियों की बहुसंख्या थी। मगर वहां राहुल गांधी ने अपना भाषण गांधीजी को श्रद्धांजलि देते हुए शुरू किया। गुजरे दशकों में गांधी के प्रति अंबेडकरवादी समूहों का कड़ा आलोचनात्मक रुख जग-जाहिर रहा है। लेकिन वहां राहुल गांधी के भाषण के बीच कोई टोका-टाकी नहीं हुई। अबेंडकरवादी श्रोता समूह ने धीरज और सहिष्णुता के साथ गांधी की तारीफ में कहे गए शब्द सुने।
कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद राहुल गांधी जेएनयू पहुंचे तो वहां श्रोता समूह में बहुसंख्या वाम रुझान वाले छात्रों-शिक्षकों की थी। राहुल गांधी सीताराम येचुरी और डी राजा जैसे नेताओं के साथ बैठे। फिर भाषण दिया। एक बार फिर सबका ध्यान मुद्दे पर रहा। आपसी राजनीतिक मतभेद वहां गौण हो गए।
kanhaiyaकन्हैया कुमार ने अपनी रिहाई के बाद जब मीडिया को दिए इंटरव्यू में मार्क्स, अंबेडकर, पेरियार, फुले, गांधी, नेहरू के नाम एक क्रम में लिए, तो जाहिर है उनके ध्यान में देश में होता वही ध्रुवीकरण रहा होगा, जो इस वक्त का तकाजा है। आधुनिक भारत का विचार इन तमाम और अन्य कई (मसलन, बिरसा मुंडा) विरासतों का साझा परिणाम है। भारत के इस विचार के जन्म और आगे बढ़ने का इतिहास 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होता है। इस विचार के सार-तत्व को एक वाक्य में कहना हो तो वो यह होगा कि भारतीय भूमि पर जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है और उसका दर्जा समान है। सबके आर्थिक हित समान हैं, विचारों का खुलापन, एक-दूसरे की जीवन-शैली के प्रति सहिष्णुता, लोकतंत्र, सामाजिक-आर्थिक न्याय और प्रगति का एजेंडा भारतीय राष्ट्रवाद की इस विचारधारा के आधार हैँ।
धर्म आधारित राष्ट्रवाद के विचार से उपरोक्त भारतीय राष्ट्रवाद का संघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से जारी है। 2014 के आम चुनाव में उभरे जनादेश से हिंदू राष्ट्रवाद का विचार देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो गया। इससे न्याय एवं स्वतंत्रता की दिशा में हुई वह तमाम प्रगति खतरे में पड़ गई है, जो भारतीय जनता ने अपने लंबे संघर्ष से हासिल की। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें तो कन्हैया कुमार की बातों का महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है।
यह संकट का समय है, लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि भारतीय जन के एक बड़े हिस्से ने समय रहते इसकी पहचान कर ली है। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के बरक्स न्याय और प्रगति की विचारधाराओं से प्रेरित राष्ट्रवाद की शक्तियां जाग्रत हो रही हैँ। कन्हैया कुमार से जुड़े घटनाक्रम ने इस विश्वास को मजबूती दी है। कन्हैया के भाषणों को मिली लोकप्रियता मिसाल है कि आधुनिक भारत के सपने को नया जन-समर्थन मिल रहा है।
रोहित वेमुला और कन्हैया कुमार के मामलों से सामाजिक विषमता एवं विभाजनों पर परदा डालकर अन्याय और गैर-बराबरी की व्यवस्था को कायम रखने के प्रयोजन बेनकाब हुए हैँ। जेएनयू में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के तीन नेताओं का अपने संगठन से इस्तीफा इसकी ही मिसाल था। वे तीनों मनुस्मृति जलाना चाहते थे, लेकिन उनके संगठन ने उसकी इजाजत नही दी। यह घटना बताती है कि हिंदुत्व के नाम पर जातीय (प्रकारांतर में आर्थिक) शोषण को मजबूत रखने की कोशिशों का सफल होना आज कठिन है। बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों और उद्देश्य को नाकाम करने के लिए उनकी जय बोलने का पाखंड ज्यादा देर तक नहीं चल सकता।   

फिर भी यह एक लंबी राजनीतिक लड़ाई है। बेशक इसका तात्कालिक परिणाम आने वाले सभी चुनाव नतीजों से तय होगा। मगर इसके साथ उस आधार पर प्रहार करना भी जरूरी है जिस वजह से पुराने आधिपत्य को कायम रखने पर आमादा ताकतें आधुनिक समय में भी अपनी चुनाव प्रणाली के अंदर राजनीतिक बहुमत बना लेने में सफल हो जाती हैँ। यह आधार वर्ग-विभाजन, जातिवाद और अज्ञानता के कारण कायम है। इस बुनियाद तो तोड़ना तभी संभव है जब वर्तमान बहस को विकल्पों पर विचार की तरफ ले जाया जाए। कन्हैया कुमार ने इसमें योगदान किया है। रोहित वेमुला और जेएनयू प्रकरणों से इस दिशा में आगे बढ़ने की संभावना बनी है।
साभार  : 
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/satyendraranjan/support-to-kanhaiyas-speech-indicates-to-modern-india/





 ~विजय राजबली माथुर ©
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देशहित में नहीं मानवाधिकारों का बड़ा उल्लंघन है आधार परियोजना ------ गोपाल कृष्ण/ रोहित जोशी

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'आधार बना देगा नागरिकों को कैदियों से बदतर'

राज्यसभा की ओर से दिए गए सुझावों को अस्वीकार करते हुए आधार विधेयक 2016 को संसद में पास कर दिया गया है. विपक्ष के अलावा सिविल सोसाइटी से जुड़े कुछ बुद्धिजीवी भी इसका विरोध करते रहे हैं.
यूआईडी आधार के खिलाफ काम कर रहे कार्यकर्ता गोपाल कृष्ण ​इसे 'संविधान पर हमला'मानते हैं. डॉयचे वेले से बात करते हुए गोपाल कृष्ण इस विधेयक को एक छद्म विधेयक बताते हुए कहते हैं, ''2010 में आधार बिल डायरेक्ट तरीके से पास नहीं हो पाया तो सरकार ने इंडायरेक्ट तरीके से इसे मनी बिल के बतौर पेश किया. इस पूरे विधेयक का हम लोगों ने अध्ययन किया है. उसके अध्ययन से भी ये स्पष्ट होता है कि ये धन विधेयक नहीं है. साथ ही ये नागरिकों के अधिकारों पर हमला है और राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है.''

गोपाल कृष्ण कहते हैं, ''जिस तरह से आधार के तहत ​अंगुलियों के निशान और आंखों की तस्वीरें ली जा रही हैं वे नागरिकों को कैदियों की स्थिति से भी बदतर हालत में खड़ा कर देता है. क्योंकि कैदी पहचान कानून के तहत ये प्रावधान है कि कैदी अगर बाइज्जत बरी होता है या सजा काट लेता है तो उसके अंगुलियों के निशान को नष्ट कर दिया जाता है. आधार के मामले में ये कभी नष्ट नहीं होगा.''

वित्तमंत्री अरूण जेटली ने आधार के जरिए जुटाए जा रहे बायोमेट्रिक आंकड़ों को पूरी तरह सुरक्षित बताया है. राज्यसभा में उन्होंने कहा ''ये केवल खास मकसद से है और सटीक तरीका भी इसके लिए बनाया गया है. ये कहना कि इस जानकारी का वैसे इस्तेमाल किया जाएगा जैसे नाजी लोगों को टार्गेट करने के लिए इस्तेमाल करते थे. मुझे ये लगता है कि ये महज एक राजनैतिक बयान है. ये ठीक नहीं है.''
लेकिन गोपाल कृष्ण वित्तमंत्री अरूण जेटली पर आरोप लगाते हुए कहते हैं कि वे तथ्यों को गलत ढंग से पेश कर रहे हैं, ''हम लोगों ने सूचना के अधिकार के तहत वे कॉन्ट्रेक्ट एग्रीमेंट निकाले हैं.. उसमें स्पष्ट लिखा गया है कि ऐक्सेंचर, साफ्रान ग्रुप, एर्नेस्ट यंग नाम की ये कंपनियां भारतवासियों के इन संवेदनशील बायोमेट्रिक आंकड़ों को सात साल के लिए अपने पास रखेगी.''


गोपाल कृष्ण दूसरे देशों का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ''दूसरे देशों ने इस तरह की परियोजनाओं पर जो कदम उठाए उनके अनुभवों को दरकिनार करके ये विधेयक लाया गया है. यूरोप में जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन के अलावा अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस तरह की परियोजनाओं को रोक दिया गया है.''

गोपाल कृष्ण इस परियोजना को विदेशी बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों के मुनाफे के लिए बनाई गई योजना बताते हुए कहते हैं, ''आधार परियोजना में हर एक पंजीकरण पर 2 रूपया 75 पैसा खर्च हो रहा है. भारत की आबादी लगभग 125 करोड़ के आस पास है. ना सिर्फ पंजीकरण के समय बल्कि ​ज​ब जब इसे इस्तेमाल किया जाएगा, डिडुप्लिकेशन के नाम पर इन कंपनियों को ये मुनाफा पहुंचाया जाएगा. इन बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए ये सब​ किया जा रहा है. गोपाल मानते हैं कि ये देशहित में नहीं है और ये मानवाधिकारों का बड़ा उल्लंघन है.''


http://m.dw.com/hi/%E0%A4%86%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%97%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%A4%E0%A4%B0/a-19123469

~विजय राजबली माथुर ©
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हमारी लड़ाई सीधे तौर पर तानाशाही के खिलाफ है ------ कन्हैया कुमार

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कन्हैया का मोदी सरकार पर वार, आप अंग्रेज है तो हम भगत सिंह के सिपाही
मार्च 19, 2016 भारत
JNUSU president Kanhaiya Kumar

केंद्र की मोदी सरकार पर एक बार फिर हमला बोलते हुए जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने कहा कि वे तानाशाही के खिलाफ सीधी लड़ाई छेड़ेंगे। कन्हैया ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वह देश भर के विश्वविद्यालयों को निशाना बना रही है। उन्होंने सभी लोकतांत्रिक ताकतों का समर्थन मांगते हुए कहा कि यह देश को बचाने की मुहिम है।

कन्हैया ने कहा कि संविधान की बात करने वालों को राजद्रोह के उस मामले में कानून को अपना काम करने देना चाहिए जिसमें उनके साथ-साथ जेएनयू के छात्र उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य को भी आरोपी बनाकर गिरफ्तार किया गया था। कन्हैया ने कहा कि सड़क पर इंसाफ करना स्वीकार्य नहीं है। इंडिया टुडे कॉनक्लेव में कन्हैया ने कहा, ‘हो सकता है कि आप मेरी राजनीति से सहमत न हों। यह सिर्फ जेएनयू की बात नहीं है। देश भर में विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया जा रहा है। अब हमारी लड़ाई सीधे तौर पर तानाशाही के खिलाफ है। सभी लोकतांत्रिक ताकतों को साथ आना होगा। देश में इस एकता की जरूरत है’।

कन्हैया ने कहा कि लोगों के सामने आज सबसे बड़ा सवाल देश को बचाने का है, लेकिन जेएनयू विवाद में मामले को देशभक्त बनाम देशद्रोही का रंग दे दिया गया। उन्होंने कहा कि देशभक्त का काम यह नहीं होता कि अपने ही देश के लोगों, युवाओं और छात्रों के खिलाफ राजद्रोह जैसे काले कानून का इस्तेमाल करे। उन्होंने कहा, ‘आप ऐसे बर्ताव कर रहे हैं जैसे आप अंग्रेज बन गए हैं और हम भगत सिंह के सिपाही हैं। यदि आपको राजद्रोह जैसे काले कानून के इस्तेमाल में कोई हिचक नहीं है तो हमें भी भगत सिंह का सिपाही बनने में कोई दिक्कत नहीं है।

इस मौके पर जेएनयू छात्र संघ की उपाध्यक्ष शहला राशिद शोरा ने कहा कि सबको साथ लेकर चलने वाला भारत का विचार आज खतरे में है। शहला ने कहा, ‘चूंकि राजनीति हमारा भविष्य तय करती है, ऐसे में हम ही अपनी राजनीति तय करेंगे । विश्वविद्यालय लोकतांत्रिक स्थान होते हैं। हमें उन्हें आरएसएस से बचाना होगा’।


जम्मू-कश्मीर की रहने वाली शहला ने कहा कि वे भारत की बेहद हिंसक छवि देखते हुए पली-बढ़ी हैं, लेकिन जेएनयू ने उन्हें लोकतांत्रिक जगह मुहैया कराई। इससे पहले, कन्हैया ने राजद्रोह कानून को निरस्त करने के लिए लड़ाई छेड़ने का संकल्प जताया। इसी कानून के तहत एक विवादास्पद कार्यक्रम के सिलसिले में पिछले महीने कन्हैया और विश्वविद्यालय के दो अन्य पीएचडी छात्रों को गिरफ्तार किया गया था। उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य को जमानत दिए जाने का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि सभी पार्टियों और लोकतंत्र का समर्थन करने वाले लोगों को ब्रिटिश युग के कानून को खत्म करने की मांग को लेकर आगे आना चाहिए।
साभार :

http://www.hindkhabar.in/india/1536-kanhaiya-war-british-and-bhagat-singh-soldiers

सौजन्य से :

Sindhu Khantwal

कामरेड कन्हैया के अभियान को निम्नांकित लेख भी पुष्ट करता है -------



 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

वे अपनी बात बंदूक के बल पर मनवाना चाहते हैं ------ जितेंद्र वर्मा

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कुछ लोगों के लिए देशप्रेम का मतलब कोयल की कूक , नदियों का कलकल - छलछल , झरना का झर- झर , सूर्योदय, सूर्यास्त , पहाड, अतीत का झूठा महिमामंडन आदि है और भूख ,शिक्षा ,स्वस्थ, बराबरी, न्याय ,शोषण -मुक्ति ,अवसर की समानता जैसे मुद्दों का मतलब देशद्रोह है l इन मुद्दों पर से ध्यान हटाने के लिए जोर - जोर से चिल्लाना उनके लिए देशप्रेम है l 


Jitendra Verma

जेएनयू संकट : संकट की आहट
हाल में जेएनयू के घटना – क्रम ने पूरे देश को उद्धेलित किया है l विदेश में भी भारत की छवि बदरंग हुई है l यह विश्वविद्यालय अपने स्थापना काल से बहस , नए विचार , तर्क आदि का केंद्र रहा है l 
जेएनू का ताजा प्रकरण छात्र – संघ के अध्यक्ष कन्हैया की गिरफ्तारी से शुरू हुआ l उनपर आरोप था कि उन्होंने अपने भाषण में काश्मीर की आजादी के और अफजल के पक्ष में नारा लगाया था l भाषण के विडीयो रेकार्डिग के जांच में यह आरोप गलत साबित हुआ l इसी आधार पर कन्हैया को जमानत मिली l 
इस विवाद में एक तरफ भारत सरकार है तो दुसरी तरफ जेएनयू के छात्र हैं l जबसे केंद्र में मोदी सरकार बनी है तबसे भाजपा जेएनयू के खिलाफ बोल रहें हैं l पिछले दिनों भाजपा के मुख – पत्र पाचजन्य और ऑर्गनाइजर में एक रिपोर्ट छपी जिसमें कहा गया कि जेएनयू में देशद्रोही पैदा होते हैं , वह देशद्रोहियों का अड्डा है l आज इस विश्वविद्यालय से निकले लगभग छ हजार आई ए एस , आई पी एस देश में कार्यरत हैं l बिहार के वर्तमान मुख्य सचिव इसी विश्वविद्यालय की उपज हैं l तो यह मान लिया जाय कि अभी देश को देशद्रोही चला रहें हैं ! 
जेएनयू शुरू से नए विचारों का केंद्र रहा है l वहाँ नए विचारों को पूर्वग्रह मुक्त नजरिये से देखा जाता है l ऐसा नहीं है कि वहाँ सिर्फ वामपंथी विचारों के अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है l वहाँ हर कोई अपना विचार रख सकता है l भाजपा के विधार्थी परिषद की शाखा वहां काम कर रही है , छात्र – संघ के चुनाव में कई पदों पर उसके उम्मीदवार जीते भी हैं l कांग्रेस के शासनकाल में( 22 दिसम्बर 1966) स्थापित यह विश्वविद्यालय वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है l यह अन्य विश्वविद्यालयों से थोडा भिन्न है l यहाँ नोकरी के लिए पड़ना अच्छा नहीं माना जाता है l यहाँ का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना माना गया है l इंग्लैंड का कैम्बिज और अमेरिका का हार्वड इसके आदर्श हैं l ऐसे विश्वविद्यालय का नाम जवाहरलाल नेहरु के नाम पर होना स्वाभाविक है l यह मानविकी , समाज विज्ञान , अन्तरराष्ट्रीय अध्धयन में उच्चस्तरीय शिक्षा एवं शोध के लिए बना है l 
चिन्तन की प्रक्रिया आग्रह मुक्त होती है l किसी भी विचार , सिद्धांत , धारणा ,मान्यता आदि पर प्रश्नचिन्ह लगाना नए चिन्तन की पहली शर्त होती है l पहले के विचार , सिद्धांत , धारणा , मान्यता आदि का परीक्षण बुरा नहीं होता है l पर कमजोर विचार  वार्लों को हरदम डर बना रहता है कि कही उनकी पोल खुल नहीं जाए l वे अपनी बात बंदूक के बल पर मनवाना चाहते हैं l जेएनयू में किसी भी मुद्दे पर बहस , विचार – विमर्श की पर्याप्त जगह रहती है पर ठस दिमागवालों को थोड़ी भी मतभिन्नता , असहमति बर्दाश्त नहीं होती है l
कुछ लोगों के लिए देशप्रेम का मतलब कोयल की कूक , नदियों का कलकल - छलछल , झरना का झर- झर , सूर्योदय, सूर्यास्त , पहाड, अतीत का झूठा महिमामंडन आदि है और भूख ,शिक्षा ,स्वस्थ, बराबरी, न्याय ,शोषण -मुक्ति ,अवसर की समानता जैसे मुद्दों का मतलब देशद्रोह है l इन मुद्दों पर से ध्यान हटाने के लिए जोर - जोर से चिल्लाना उनके लिए देशप्रेम है l 
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के बहाने जो घटनाएँ घट रहीं है उससे साफ़ है कि आज देश में भाजपा . आर . एस . एस . से असहमति , मतान्तर के लिए कोई जगह नहीं है l भाजपा और आर . एस . एस . से असहमति का एकमात्र अर्थ देशद्रोह है l यह विडम्बना ही है कि जिन लोगों ने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजो का साथ दिया , गाँधी जी की हत्या की , राष्ट्रध्वज , राष्ट्रगीत को हरदम बदलने की मांग की वे आज देशभक्ति का प्रमाण पत्र बाँट रहें हैं ! 

जेएनयू के खिलाफ एक आरोप यह लगाया जा रहा है कि वहाँ के छात्र करदाताओं के पैसे से ऐयाश्शी करते हैं l ऐसे लोगों को शिक्षा पर होने वाला व्यय बेकार लगता है l यही वजह है कि मोदी सरकार अपने बजट में शिक्षा के व्यय पर कटैती कर रही है l भाजपा के विधायक ने बड़े परिश्रम से गिना कर बताया कि जेएनयू में प्रतिदिन कितने कंडोम , कितने शराब की बोतल , कितने सिगरेट के टुकडे , कितने मुर्गे की हड्डी , कितने मुर्गी की हड्डी मिलते हैं ! इस विश्वविद्यालय की व्यवस्था हरदम रफ एंड टफ रही है l कैंटीन में ग्लास नहीं रहता , सभी जग से ही पानी पीते हैं l जींस और कुर्ता यहाँ का सदाबहार ड्रेस है l यहाँ के छात्र रात – रात भर पढने के लिए जाने जाते हैं l ऐसी जगह पर सेना को तैनात करना शर्मनाक है l भारत इतना कमजोर नहीं है कि किसी के कहने या भाषण से टूट जाएगा l

Jitendra Verma


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 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

प्राकृतिक असंतुलन को एक न्यौता : नारी भ्रूण हत्या (समाजशास्त्रीय विश्लेषण ) ------ विजय राजबली माथुर

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प्रस्तुत लिंक पर चार साल की बच्ची के साथ उसके माता-पिता की उत्पीड़नात्मक कारवाई को देखा जा सकता है। 
http://hindi.eenaduindia.com/News/TopNews/2016/03/29181625/Parents-tied-hand-of-their-daughter-in-Aligarh.vpf



आवश्यकता आविष्कार की जननी है।विज्ञान ने नित्य नए-नए आविष्कारों द्वारा समाज में क्रांतिकारी बदलाव ला दिये हैं। विश्व के एक क्षेत्र में घटित घटना की सूचना न केवल दूसरे क्षेत्रों में तत्काल पहुँच जाती है वरन उस पर प्रतिक्रिया भी त्वरित होती है। ये सब विज्ञान के ही चमत्कार हैं कि, घर बैठे हम सम्पूर्ण विश्व से संपर्क स्थापित कर सकते हैं। चिकित्सा क्षेत्र में विज्ञान के नए अन्वेषणों ने कई असाध्य रोगों को साध्य बना दिया है। अब टी बी और कैंसर जैसे रोग भी लाइलाज नहीं रहे । अल्ट्रा साउंड के आविष्कार ने अल्सर पथरी आदि कितने  ही भयानक रोगों के उपचार में अमूल्य योगदान दिया है। किन्तु खेद की बात है कि, यही मानवोपयोगी अल्ट्रा साउंड मानव जाति के विनाश के दानव के रूप में अब सामने आ रहा है। अल्ट्रा साउंड द्वारा गर्भ के तीन माह बाद लिंग निर्धारण संभव होने से नारी भ्रूणों की हत्या एक आम रिवाज बनता जा रहा है। 

नारी भ्रूण की हत्या क्यों? : 


नारी भ्रूण की हत्या के पीछे जहां समाज में बेटे के प्रति विशिष्ट आकर्षण का भाव है वहीं गरीबी व दहेज की कुप्रथा भी इसके मूल में है। हालांकि अनेक सामाजिक संगठन और सरकारी संचार माध्यम लड़का-लड़की एक समान का थोथा ढ़ोल तो पीटते रहते हैं परंतु व्यवहार मेंआज भी समाज लड़के और लड़की में भेद ही करता आ रहा है। जहां एक ओर बालक को कमाऊ पूत समझा जाता है वहीं कन्या के जन्मते ही उसके विवाह में दिये जाने वाले दहेज की चिंता उसके माता-पिता को सताने लगती है। आर्थिक दृष्टि से गरीब माता-पिता इस कुप्रथा के दुष्प्रभाव में अपनी बेटी के अविवाहित रह जाने की आशंका से गर्भ में ही नारी भ्रूण का समापन करना उचित समझते हैं जिससे उनको भावी कष्टों से निजात मिल जाये। 


दहेज क्यों? :


शुरू-शुरू में जब दहेज प्रथा का समाज में चलन हुआ तो यह समृद्ध व्यक्तियों द्वारा अपनी कुरूप कन्याओं को विवाहित देखने के उद्देश्य से दिया जाने वाला अनुग्रह- दान था । कालांतर में इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया और आज तो यह दहेज एक दानव ही है। दहेज की बलिवेदी पर असंख्य कुआँरी कन्याओं एवं नव - विवाहिताओं ने अपनी आहुति  चढ़ा दी है। परंतु दहेज दानव के संतुष्ट होने का  सवाल कहाँ? यह तो और भी विकराल रूप धारण करता जा रहा है। भौतिकता की चकाचौंध और आधुनिक सुविधाओं को पाने की होड में मनुष्य चरित्र इतना गिर चुका है कि, वह पुत्र के विवाह पर अधिक से अधिक सुविधाएं कन्या पक्ष से झटक लेना चाहता है। आज कन्यादान एक पुण्य दान न होकर वर पक्ष को संतुष्ट करने करने का एक ऐसा यज्ञ बन चुका है जिसमें कन्या के जीवन तक की आहुति दे दी जाती है। 


एक निदान भारी भूल : 

इस प्रकार आज के तेज़ी से दौड़ते समाज में पिछड़ने से बचने और संभावित दहेज -दुष्चक्र से निदान पाने हेतु अधिकांश लोग नारी भ्रूण समापन का सहारा लेने लगे हैं। हमारे समाज सुधारकों का ध्यान अब इस भारी भूल की ओर गया है कि, नारी भ्रूण समापन की प्रक्रिया के चलते आज समाज में पुरुषों की अपेक्षा नारियों की स्थिति 20 प्रतिशत कम हो गई है। यह समाज में स्त्री-पुरुष संतुलन बिगड़ने का संकेत है। जब लड़कों की अपेक्षा 80 लड़कियां ही उपलब्ध होंगी तो 20 लड़कों को कुआँरा ही रहना पड़ेगा। इससे समाज में पहले से ही व्याप्त यौन अपराध और भीषण गति से बढ़ेंगे। विवाहित और अविवाहितों के बीच बढ़ता हुआ अनुपात समाज में नारी जाति की दुर्दशा को और बढ़ाने वाला ही होगा। नारी का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाएगा। असंतृप्त पुरुष यौन -पिपासा शांत करने हेतु नारी चाहे वह कुआँरी  कन्या हो अथवा विवाहित वधू पर उसी प्रकार झपटेगा जिस प्रकार भूखा बाघ अपने शिकार पर झपट्ता है। यौन अपराध एक फैशन बन जाएगा। 

नारी स्वातंत्र्य पर आघात : 

नारी -मुक्ति आंदोलन आज भी सफल नहीं हो सका है। परंतु नारी भ्रूण समापन से होने वाले भावी यौन अपराधों की विभीषिका नारी की स्वतन्त्रता का सम्पूर्ण समापन कर देगी। आज हर क्षेत्र में नारियां जो बढ़-चढ़ कर भाग ले रही हैं आने वाले समय में घर में कैद होकर रह जाएंगी। क्योंकि बाहर निकलते ही भूखे यौन पिपासू भेड़िये उन पर घात  लगाने की टोह में घूम रहे होंगे। कई-कई पुरुषों के मध्य एक ही स्त्री से विवाह करने की कुप्रथा का भी कहीं-कहीं उदय हो सकता है। इससे संतान के पिता की पहचान की व उस पर पुरुष अधिकार की समस्या भी उठ खड़ी होगी। 

भ्रूण परीक्षण / गर्भ समापन पर प्रतिबंध लगे :

समाज में स्त्री-पुरुष अनुपात में होने वाले प्राकृतिक  असंतुलन को रोकने, नारी की दुर्गति की संभावना को टालने व यौन अपराधों पर नियंत्रण हेतु शीघ्र ही सरकार को भ्रूण परीक्षण पर  ही प्रतिबंध लगा कर इसे दंडनीय अपराध घोषित कर देना चाहिए। भ्रूण चाहे वह नर हो या मादा उसका समापन करने वाले डॉ व नर्सिंग होम का लाइसेन्स छीन लिया जाये और उनको कड़ी सज़ा दी जाये । इसके अतिरिक्त इन सभी खतरों का प्रचार कर जनता को भ्रूण परीक्षणों के विरुद्ध जागृत किया जाये तभी नारी भ्रूण हत्या की कुरीति से निदान मिल सकता है और प्रकृति में होने वाली भीषण विभीषिका को टाला जा सकता है। 

(1 ) प्रकृति की अनमोल सृष्टि है यह मानव जात । 
      नर औ 'नारी के बिना अधूरी है कोई बात । । 

(2 ) दहेज ही है मानव-जीवन का अभिशाप। 
      भ्रूण- परीक्षण, गर्भ समापन है महापाप। । 

(3 ) जन-जन को है हमारा यह संदेश   । 
      छोड़ो नारी से विभेद, राग और द्वेष । ।   
~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

नेता की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए ------ अनुराधा बेनीवाल

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ये सवाल सब सरकारों से है। इस से या उससे नहीं। सब कुर्सी वालो से हैं।
सवाल ही सवाल हैं और जवाब में हमे सिर्फ सुनाई देता है, "भारत माता की जय!"किसानों की बात करो तो "फौजियों की जय!"फौजियों की बात करो तो, "किसानों की जय!"

इस कोरी जय से क्या मिलेगा! कैसे बोलदे जय! जब है ही नहीं जय! 

Anuradha Saroj
 03-04-2016  at 1:29pm · 
पूरा स्पीच। 
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अगर सद्भावना सवालों को हवन-कुंड में जलाती है, तो सद्भावना नहीं कवर-अप है, ढोंग है!
हमारे प्रदेश में हिंसा हुई है, दंगे हुए है। let us accept that first. नुकसान हुआ है। कितना कम-ज्यादा इसका आंकलन लोग करते रहेंगे। लेकिन let us accept के नुकसान हुआ है। नुकसान करने बाहर से लोग नहीं आये थे। मराठी आके, बांग्लादेशी आके, मंगल ग्रह से आके किसी ने नहीं हमारी दुकानें फूंकी, हमारे स्कूल नहीं जलाये! हमी थे नुकसान करने वाले, और हमी हैं नुकसान सहने वाले।
Let us also know that के कोई हिंसा यूँही नहीं बस भड़क जाती। इसके लिए बारूद लगता है। जिसपे हम हमेशा बैठे रहते हैं, बस एक चिंगारी की जरुरत होती है। यूँही कोई किसी की दुकान जलाने नहीं निकल पड़ता। यूँही कोई स्कूल नहीं फूँक देता। राह खड़ी गाड़ियां नहीं जला देता। यूँही कोई अमानव नहीं हो जाता। इसके पीछे की पृष्ठभूमि समझने की जरुरत है। हमे खुद से, समाज से, सरकार से सवाल करने की जरुरत है। इस बारूद को खत्म करने की जरुरत है।
कैसे हम इतनी नफरत से भर जाते हैं? के पड़ोसी-पड़ोसी का दुश्मन हो जाता है। एक सेकंड के लिए जात को भूल जाएँ, तो सोचें हमने अपने दोस्तों, पड़ोसियों, भाइयों, यारों के घर जलाए हैं। दुकानें जलाई हैं। हमने अपना ही नुकसान किया है। कहाँ पल रही है ये नफरत? कौन पाल रहा है इस नफरत को? इस नफरत को पाल के किसे फायदा है? ये सवाल आज हमें उस हवन/यज्ञ में पूछने हैं। संस्कृत में ना समझ में आने वाले मन्त्र नहीं रटने, सीधे-साफ़ सवाल हमें करने हैं।
और हमे सही सवाल करने हैं।
सवाल ये नहीं होना चाहिए,के इसे नौकरी क्यों मिली मुझे क्यों नहीं? सवाल अब ये होना चाहिए के हम दोनों को नौकरी क्यों नहीं मिल रही? हमारे घर में सब के पास नौकरियां क्यों ना हों? सबके पास काम क्यों ना हो? सब इज़्ज़त की रोटी क्यों ना खा सकें? सब के पास बेसिक साधन क्यों ना हों? सवाल मिल के करने हैं। एक जाती को नहीं हर जाती को करने हैं! हम सब साथ मिलके सवाल करेंगे तो जवाब देना पड़ेगा! ये जरुरी सवाल हैं, मुश्किल सवाल हैं। लेकिन साथ में पूछेंगे तो जवाब देना पड़ेगा। हमारी आवाज कोई दबा नहीं पाएगा। न्यारे होके पूछेंगे, एक-दूसरे से लड़ झगड़ के पूछेंगे को हमारे सवालों को दबाना आसान होगा। और वो यही चाहते हैं के हमारे जरुरी सवाल दबते रहें, हम आपस में लड़ते-भिड़ते रहें। और वो अपनी रोटियां सकते रहें।
सवाल नंबर एक - दंगे क्यों भड़के? क्या कारन था?प्रशाषन इस बात का जवाब दे। किसी राज्य में जब इस सत्र पे दंगे होते हैं, जान माल का नुकसान होता है, तब सरकारी प्रशाषन जिम्मेदार होता है। हमेशा! वो अपना पल्ला किसी जाती विशेष को ब्लेम कर के नहीं झाड़ सकता। (इस तरह तो रोज दंगे होंगे, और हम देखते रह जाएंगे) प्रशाषन के पास पुलिस फोर्से होती है, बैरिकेड होते हैं, वाटर केनन, टियर गैस, माइक्रो-फ़ोन, सैकड़ों प्रबंध होते हैं। इस स्केल पर दंगा कैसे फैला? क्या फैलवाया गया? दंगे में फायदा किसका था?
पहले सवाल से दूसरा सवाल निकलता है।
सवाल नंबर दो - प्रशाषन ने क्या किया दंगे रोकने के लिए?क्या आर्मी बुलाना आखरी उपाय था? पॉइंट ब्लेंक पे जवान मौतें हुई। क्या इसे रोका नहीं जा सकता था? Where were our leaders? So called leaders of the masses. Those who were voted by the people, for the people. Why were they not among the people?
सब नेता कहाँ थे, जब आग लगने लगी? जब लोग घरों से निकल कर बर्बादी करने निकल पड़े? किसी सांसद, किसी विधायक, किसी सरपंच जी ने उन रोका क्या? आखिर समाज अपने बीच नेता क्यों चुनता है? सही राह दिखाने के लिए, या गलत राह पे मोड़ने के लिए? असल मौके पर समझदारी देने के लिए या अपने घरों में दुबक कर तमाशा देखने के लिए? सिर्फ नफरत की गन्दी आग को भड़काने वाले नेताओं के अलावा सब कहाँ गए थे? और जिन्होंने नेगेटिव रोल प्ले किया, और जिन्होंने कोई रोल ही नहीं प्ले किया, उनके ऊपर आगे कैसी कारवाही होगी?
सवाल नंबर तीन -अब अहम सवाल। बारूद को पैदा करने वाले कारणों पे सवाल।
कॉलेजों में स्कूलों में टीचर्स नहीं हैं, लेकिन वेकन्सी भी नहीं हैं! लोग बाहर NET पास कर के बेरोजगार फिर रहे हैं, और बच्चे बिना टीचर के परेशांन हैं। ये कॉन्ट्रैक्ट-टीचर का क्या स्कैम है? पक्की नौकरियां क्यों नहीं मिल रही?
सवाल नंबर चार - प्राइवेट सेक्टर और सरकारी सेक्टर की नौकरीयों में दिन रात का अंतर क्यों है?एक पीएन की, चपड़ासी की सरकारी नौकरी पाने के लिए लोग लाइन लगा के खड़े हैं, प्राइवेट सेक्टर में कोई स्कूल में टीचर नहीं लगना चाहता! ये क्या माजरा है? 
मैं लंदन में रहती हूँ तो देखती हूँ के सरकारी नौकरी पाने की कोई होड़ नहीं है, बल्कि ऐसे ऐसे लोग बहुत है जो सरकारी नौकरी छोड़ के प्राइवेट सेक्टर में टीचर लगते हैं। क्यूंकि वहां प्राइवेट और सरकारी दोनों में तन्खा सेम है, बेनिफिट सेम हैं।
हमारे गांव में प्राइवेट स्कूल में टीचर की पे तीन हज़ार है! तीन हज़ार रुपए महीना! फॉर एन एम इन इंग्लिश! इस ईट ए जोक!! स्कूल खोल खोल के लोगों ने कोठी बना ली, निरी पूंजी जोड़ ली, लेकिन वहां काम करने वाले अपने गुजारे तक के पैसे नहीं कमा रहा! यही हाल प्राइवेट फैक्ट्रीज, मॉल, कम्पनीयों का है। एम्प्लोयी को तीन से आठ हज़ार रुपए पे और कंपनी ओनर्स बन गए लखपती! इस घोर पूंजीवाद पे हमे सवाल करने हैं!
सवाल में कई सवाल हैं। हमारी प्राइवेट सेक्टर में मिनिमम बेसिक वेज क्या है? क्या उसपे कोई रेगुलेशन है? प्राइवेट और सरकारी का अंतर कम क्यों नहीं होना चाहिए?
सवाल नंबर पांच - हर साल वोट बैंक की राजनीति करके हम किसी जात को कुछ तो किसी जात को कुछ और लालच देते हैं। कभी कुछ गिफ्ट देते हैं, तो कभी कुछ साधन देते हैं। क्या ये गिफ्ट्स उनको सच में ऊपर उठाने के लिए दिए जाते हैं या सिर्फ अंधी राजनीति है? गरीब आदमी हर जात में है। गरीब जिसके पास रिजर्वेशन नहीं है, वो ये देख के कुढ़ता है। नफरत पनपती है। बारूद बनती है। क्या जात-पात को खत्म करने के लिए कुछ किया जा रहा है या सिर्फ इसे बचाए रखना है क्यूंकि इलेक्शन हर पांच साल में होता है और बिना जात-पात के फिक्स्ड वोट कहाँ?
सवाल नंबर छः - हर जात में गरीब हैं।किसान पिछड़ी जाती ना होते हुए भी सुसाइड कर रहे हैं। इनके options क्या हैं? इनके लिए क्या opportunities हैं?
सवाल नंबर सात: हमारी पढाई,कॉलेजेस का इतना धुम्मा क्यों उठ्या हुआ है? इतनी फ़र्ज़ी क्यों पढाई हो गयी के MA/MBA करे जवान चपड़ासी की एप्लीकेशन भरते हांडे सै? घूम फिर के बात आती है फिर सवाल तीन पे। टीचर्स क्यों नहीं हैं?
ये सवाल सब सरकारों से है। इस से या उससे नहीं। सब कुर्सी वालो से हैं।
सवाल ही सवाल हैं और जवाब में हमे सिर्फ सुनाई देता है, "भारत माता की जय!"किसानों की बात करो तो "फौजियों की जय!"फौजियों की बात करो तो, "किसानों की जय!"
इस कोरी जय से क्या मिलेगा! कैसे बोलदे जय! जब है ही नहीं जय! ना वीरू है, ना ही है जय, रह गयी है खाली माँ!
जो नेता जनता को सही दिशा में बढ़ने की बुद्धि ना दे, वह नेता नहीं है। बाकी चाहे जो कुछ हो! नेता की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए। बोलतु संत नहीं, असल का संत चाहिए। लेकिन इनको जब हम वोट देते हैं, इनकी सरपरस्ती कबूल करते हैं, तब हम क्या इस बारे में सोचते हैं? नहीं सोचते हैं! तब हम जात देखते हैं! धर्म देखते हैं! और तब हमारे आदरणीय साधू संत, जो अब हवन कराएँगे, ये लोग तब सही मनुष्य को चुनने का ज्ञान नहीं देते। बल्कि ऐसे भी संत हैं कुछ जो जब वोट दिलवाने निकलते हैं तब कुछ और बोलते हैं, चुनाव जीता कर कुछ और बोलते हैं। संतो को तो कम से कम नेताओं की भाषा नहीं बोलनी चाहिए! उनको तो मानवता की, समाज के हित की बात सिर्फ करनी चाहिए।
जब आग लगायी जा रही थी, तब कौन हमारे साधु संत घर या दुकान के आगे लेट गए, की पहले मुझे जलाओ, अपनी मनुष्यता को जलाओ, तब दुकान या स्कूल जलाना? कौनसे बाबा जी, माता जी, पानी लेकर दौड़े थे आग बुझाने? मैं अभी उन संत लोगो के पाँव छू लूँ, कोई जरा नाम बताओ!
ये बोलते तो कैसे कोई ना रुकता! हम तो बड़े धार्मिक लोग हैं!
अब हवन-यज्ञ से क्या अचीव होगा? लकड़ी जलेगी, जो पहले ही काफी कम है। लेकिन शान्ति आती हो तो पूरा जंगल जला दूँ! लेकिन क्या छत्तीस, छप्पन जातिओं या सभी बिरादरी धर्म के भाई बहनो के मन में जो एक दूसरे के लिए नफरत है, ईर्ष्या है, दुर्विचार हैं, क्रोध है, द्वेष है, ये सब क्या उस हवन में स्वः हो जायेगा? या उसके लिए कुछ और करना होगा? ये सोचने की बात है?
जाते जाते आखरी सवाल खुद से, अपने लोगो से। ये नेता, साधू-संत, तो लेरे हैं सुवाद, इनका नहीं बिगड़ता किम्मे! पर क्या हमे नहीं दिखता के तोड़-फोड़, लूट-पाट, आग लगाने में तो किसे का फायदा नहीं सै! सरकार तै तो मिलके सवाल करेंगे ही, अपने आप से भी करेंगे। इक्कठे चलने में फायदा है, या अकेले में? हम कब मजबूत होंगे? कब हमारे सवालों को जवाब मिलेंगे?
तब जब हम सिर्फ अपनी नहीं अपने पडोसी की नौकरी के लिए भी आवाज़ उठाएंगे। जब वो हमारे लिए आवाज उठाएगा। तो यही है सद्भावना। यही है अपील। यही है हवन और यही है कुंड। जात-पात की आहुति देके, कट्ठे रहन का समय आया है। दुनिया मंगल पे बसन नै होरी है, अर हम रिजर्वेशन की लाइन में लाग रे हाँ! आज हाम लाग रे हाँ, काल कोई और लठ ठावेगा। आज या नफरत, लड़ाई, बैर की बळी देनी है! जब्बे गुजारा है, जब्बे विकास है, जब्बे हरियाणा है, जब्बे दूध दही का खाना है!

जय माता की!

साभार : 

https://www.facebook.com/anuradha.beniwal/posts/10156718251635285





   ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

‘यह फिल्म देखकर आने वाली पीढ़ियां कहेंगी- हमारे राजनेता कितने छिछोरे हैं!’ ------ कमल स्वरूप

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कमल स्वरूप 




‘यह फिल्म देखकर आने वाली पीढ़ियां कहेंगी- हमारे राजनेता कितने छिछोरे हैं!’

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दिनेश श्रीनेत/अमर उजाला, दिल्ली

Updated 13:09 शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

http://www.amarujala.com/entertainment/bollywood/battle-of-banaras-2014

भारतीय सिनेमा में अपने किस्म के अनूठे फिल्मकार कमल स्वरूप ने लोकसभा चुनाव के दौरान बनारस जाकर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई- ‘बैटल ऑफ बनारस’। उनके शब्दों में वे ‘भारतीय जीवन में चुनाव की उत्सवधर्मिता’ और ‘भीड़ के मनोविज्ञान’ का फिल्मांकन करना चाहते थे। मगर उनकी फिल्म सेंसर बोर्ड को आपत्तिजनक लगी और इसे मंजूरी देने इनकार कर दिया गया। वे ट्रिब्यूनल के पास गए उन्होंने भी मंजूरी नहीं दी।

अब फिल्म के निर्माता इसे लेकर हाईकोर्ट जा रहे हैं। ट्रिब्यूनल का तर्क था कि यह डॉक्यूमेंट्री नेताओं के भड़काऊ संवादों से भरी हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह फिल्म पीएम मोदी के खिलाफ जाती है इसलिए इसे प्रतिबंधित किया जा रहा है। हमने कमल स्वरूप से इस पर एक लंबी बात की और जानना चाहा कि आखिर फिल्म में ऐसा क्या है जिससे इतने विवाद खड़े हो गए। प्रस्तुत है कमल स्वरूप से दिनेश श्रीनेत की बातचीत।

सेंसर बोर्ड- ने किस आधार पर इस फिल्म को सर्टिफिकेट देने से मना किया?
बस सीधे-सीधे यह कहकर रिजेक्ट हो गई कि यह फिल्म सेंसर बोर्ड के लायक नहीं है। जब दिल्ली में ट्रिब्यूनल के पास पहुंचे तो उन्होंने भी यही बोला कि सेंसर बोर्ड का फैसला सही है। इसमें जाति और संप्रदाय के खिलाफ भड़काऊ स्पीच है। जबकि फिल्म में कोई कमेंट्री नहीं है। हमने सिर्फ स्पीच को रिकार्ड किया है। ये वही भाषण हैं जो मोदी, केदरीवाल, सपा नेता और इंडिपेंडेंट कैंडीडेट बोल रहे थे। भाषण भी आम थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा क्या बोलेंगे? कभी किसी को अंबानी का प्यादा कहा जाएगा तो कभी कांग्रेस के भ्रष्टाचार की चर्चा होगी।


तो आपके मुताबिक ऐसी क्या वजह है कि फिल्म पर रोक लगाने की कोशिश हो रही है?
मैं बताता हूं कि यह फिल्म लोगों को क्यों इतनी भड़काऊ लग रही है! दरअसल इसमें दिखने वाले सारे लोग अब बड़े लोग हो गए हैं। टीवी पर चीजें आती हैं और चली जाती हैं मगर यहां यह एक भारी डाक्यूमेंट बन जाता है। हमारी आने वाली पीढ़ी जब इन्हें देखेगी तो बोलेगी- ये छिछोरे लोग हैं।


आपको यह डाक्यूमेंट्री बनाने का ख्याल कैसे आया? 
मैंने तो इसलिए शुरु किया था कि मुझे भीड़ के व्यवहार और उसे डाक्यूमेंट करने में काफी दिलचस्पी है। बनारस एक बहुत अच्छा बैकड्राप था। एक ड्रामा था कि कैसे इलेक्शन के दौरान राजनीतिक पार्टियां एक शहर को जीतने की कोशिश करती हैं। नोबेल विजेता एलियस कैनेटी की किताब ‘क्राउड्स एंड पाउडर’ मुझे बहुत पसंद है- इसमें भीड़ के प्रकार, संगठन की बनावट, प्राचीन समाज आदान-प्रदान और त्योहार की चर्चा है। कुल मिलाकर यह एक एंथ्रोपॉलोजिकल किताब है। मुझे लगा कि अपनी डाक्यूमेट्री के लिए मुझे उस किताब को ही अपना आधार बनाना चाहिए। मेरा लेंस वही किताब थी। बाकी मेरा राजनीतिक दिलचस्प खास नहीं थी।

जब आप इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया थी?

बीजेपी वालों से मेरा ज्यादा कांटेक्ट नहीं बन पाया। उनकी गुप्त मीटिंग को शूट करने में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। संघ के भवन में उनका बहुत बड़ा सा कार्यालय था। वहां गुजरात के टॉप आइटी प्रोफेशनल्स भी बैठते थे। वे शक की निगाह से हमें देखते थे। वे देखते थे कि हम तो हर राजनीतिक पार्टी के साथ बैठते थे। धीरे धीरे हुआ यह कि हर राजनीतक पार्टी हमें शक की निगाह से देखने लगी।

आपको बनारस में शूटिंग के दौरान भी कोई दिक्कत आई?
कम्युनिकेशन की दिक्कत तो बहुत थी। जब रैली निकलती है तो मोबाइल जाम हो जाते हैं। तंग गलियां हैं तो गाड़ियों मे ट्रैवेल नहीं कर सकते। हमे भागकर या मोटरसाइकिल से एक से दूसरी जगह जाना होता था। एक साथ पांच-पांच पार्टियों का प्रोग्राम की शीट बनानी होती थी। मुझे बहुत मजा आया। हम रात को उनके प्रोग्राम देख लेते थे। फिर तय करते थे कि अगले दिन कौन कहां जाकर शूट करेगा। मैं रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ फिल्म में असिस्टेंट था और क्राउड हैंडल करता था, तो वो दिन ताजा हो गए।

अगर भारत में फिल्म पर प्रतिबंध लग गया तो इसका भविष्य क्या होगा?
हमारे प्रोड्यूसर लंदन के रहने वाले भारतीय हैं। वे कोशिश में लगे हैं। वैसे ये फेस्टिवल में जा रही है। फ्रांस में दिखाई जाएगी मगर न्यूयार्क में नहीं जा पाएगी। वहां के फेस्टिवल इंडियन एनआरआई चलाते हैं। वे पंगा नहीं लेना चाहते। मामी फेस्टिवल वाले भी डर गए थे कि कहीं कोई पंगा हो न जाए। जो पंगा नहीं लेना चाहते वे घबराएंगे। नेट-फ्लिक्स भी घबराएगा। वह इसे एंटी बीजेपी मानता है तो भय होगा कि कहीं उसका लाइसेंस न रद हो जाए। बाहर जब हम विदेशों में दिखाएंगे तो बहुत से लोग इंडियन पॉलीटिक्स को समझ नहीं पाएंगे। हमारी पालिटिक्स बड़ी काम्प्लेक्स है। चुनाव एक महोत्सव की तरह है। स्टेज सजते हैं। रैलियां निकलती हैं। लोग नारे लगाते हैं। यह बिल्कुल रामलीला की तरह है। हमें इसमें मजा आता है। इस फिल्म में बनारस बहुत ही भव्य लगा है। इतनी सारी पब्लिक जिंदगी में देखी नहीं है।

इस प्रतिबंध को आप कितना जायज मानते हैं, या दूसरे शब्दों में मैं पूछूं कि सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आप क्या कहना चाहेंगे?

देखिए, हम कोर्ट में जा रहे हैं! हमारा प्रोड्यूसर जा रहा है। वहां वकील आते हैं। आपको मौका दिया जाता है अपनी बात रखने का। ट्रिब्लयून में प्रोड्यूसर को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं दिया जाता। यहां तो सेंसर वाले आंख बंदकर फिल्म देखते हैं। जरा सा शक होगा तो बोलेंगे रहने दो। मेरा मानना है कि वे कट सजेस्ट कर सकते हैं पर पूरी पिक्चर बैन करने का कोई मतलब नहीं होता है। मेरी फिल्म ओम दर-ब-दर को एक साल तक सेंसर सर्टीफिकेट नहीं दिया। बोलते थे पिक्चर समझ मे नहीं आ रही है। वे खोजते रहते कि उसमें दिखाई बातों का मतलब क्या हो सकता। उस समय कांग्रेस की सरकार थी। फिर एऩएफडीसी ने इस फिल्म को दबाकर रखा। सेंसर में ये लोग डांटते थे जैसे कि जजमेंट कर रहे हों। वे ज्ञान देने लगते हैं। वहां के बाबू तक हमें डांटते थे।



~विजय राजबली माथुर ©
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